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Full text of "Skandgupt Vikramaditya Etihasik Natak"

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प्रकाशय>-+- 


भारती-भगण्डार ेु 
( पुस्तक-प्रफाशवा चार सरिता ) 
$ घमाशा हिला 


द्वितीय संस्कररण 
मूल्य २॥] 


मुद्रक-. 
कृष्णारास मेहता 
लीडर प्रेस, इलाहाबाद 


निवेद ल्‍ 
निवंदद | 

श्री जयशंकर प्रसाद ” के नाठकों ने हिंदी-साहित्य के एक अंग की 
बड़ी ही सुन्दर पूर्ति की है। उनकी कल्पना कितनी मार्मिक और उच कोटि 
की है--इसके विषय में कुछ कहना वाचालता मात्र होगी। 

उनके नाटक हमारे स्थायी साहित्य के भंडार को अमूल्य रत्न देने के 
सिवा एक ओर मद्दद कार्य्य कर रहे है, वह हे हमारे इतिहास का डढार । 
महाभारतयुग के “ नागयज्ञ ? से लेकर हषेकालोन 'राज्यभी' प्रद्धति नाटकों 
सेवे हमारे लुप्त इतिहास का पुनर्निगेण कर रहे हैं। ऐसा करने में 
चाहे बहुत-सी बातें कल्पना-प्रसूत हों, किन्तु 'प्रसाद! जी की ये कल्पनाएँ 
ऐसी मार्मिक ओर अपने उद्दिष्ठ समय के अनुकूल हैं. कि वे उस सत्य की 
पूर्ति कर देती है जो विस्ट्टति के तिमिर में विलन हो गया है । 

किसी काल के इतिहाप्त का जो गृदा हे--श्र्थाद महापुरुषों की दे 
करनियाँ जिनके कारण उस काल के इतिदक्षस ने एक विशिष्ट रूप पाया है--- 
उसे यदि कोई लेखक अपने पाठकों के सामने प्रत्यक्ष रख सके तो उसने मूठ 
नहीं कहा, वह सत्य ही है | चाहे वास्तविक हो वा कल्पित-- 

भगवान कृष्ण ने गीता के रूप मे जो अखझत हमे दिया है उसका चाह 
सो पुराण सो रूप में वर्णन करें, पर यदि उन संगीन मठकों में से हम उस 
अमृत का पान कर सकते हैं तो वे सब-कफे-सब उसके लिये समुचित भाजन 
ही ठहरे--व्यर्थ के कृत्रिम आडम्बर नहीं । 


हू 


् 
गुप्तन्काल ( २७५ ई०--५४० ६० नक ) ऋतीत भारत पे रत्तप का 
मध्यात्ह है । उत्त समय आरय्य-्साम्राज्य मध्य-एशिया सुपाजा तक 
फैला हुआ था । समस्त एशिया पर हमारी संस्कृति शा अदा दाग 





शह्दा था इसी गसुप्तवंश का सचसे उज्ज्वल नक्षत्र धा-स्फष्शुप्त ) उमऊ 
घिहाप्तन पर बेठने के पहले दी साम्राज्य में भीतरी पह्यन्त्र उठ खडे धुए 
थे । साथ ही आक्रमणकारी हणों का आतक देश में छा गया था और गुप्त- 
सिद्दाघन टॉवाडोल हो चला था। ऐसी दुरदस्था में खाझों विपत्तियों 
सहते हुए भी जिप्त लोक्षोत्तर उत्छाह और पराक्रम से स्कदगुप्त ने इस स्थिति 
पे आ्य्य साम्राज्य की रक्ता की थी--पढ़कर नछों में घिजलली दोड़ जाती 
है। अन्त से साम्राज्य का एक-छन्च चक्रतत्तित्व मिलने पर भी उसे अपने 
वेमान्र एवं विरोधों भाई पुरगुप्त के लिये त्याग देना, तथा, स्पर्य आनमन्‍्म 
कोमार जीवन व्यत्तीत करने की प्रतिज्ञा करना--ऐसे प्रसंग है जो उ्तके 
महान चरित पर मुग्ध ही नहीं कर देते, वल्कि देर तक सहृदयों को 
करुणासागर में निमग्न कर देते हैं । 
कई कारणों से इस नाटक के निकाल देने में कुछ हफ़्तों की देर हो 
गई। किन्तु उत्तनी हो देशी साहित्य-पेमियों को--जो इसके स्वागत के 
: लिये लालायित दो रहे थे--असद्य है। उठी हैं ।' उनके तगादे-पर-तगादे था 
रहे हैं । अतएवं हम उनसे इस देर के लिये ऋम्राप्राथीं हैं । 


भावणी पणिमा, रण “भंकाशक 


स्कंदगुप्त-- 
कुमारशुप्त-- 
गोविन्दगुप्त-- 
पणुद्तत-- 
चक्रपालित--- 
बन्धुवम्सों -- 
भीमवम्भों-- 
सात स॒प्त--- 
प्रपंचबुद्धि-- 
शर्नाग-- 
कुमारदास ( धातुसेन )-- 
पुरणुप्त-- 
भटाके-- 

एप श्वी सन-- 
खिंगिल--- 
सुदुगल-- 
प्रस्यातकी त्ति-- 


फक्पे-पाथ्र 
युवेशाज ( विक्रमादित्य ) 
मगध का सम्राट - 
कुमारगुप्त का भाई 
मगध का सहानायक 
परणदत्त का पुत्र 
मालव का राजा 
उसका भाई 
( काव्यकर्ता कालिदास ) 
बोद्ध कापालिक 
अन्तवंद का विपयपति 
सिंहल का राजकुमार 
कुमार गुप्त का छोटा पुत्र 
नवीन महाबलाधिकृत 
मंत्री कुमारासात्य 
हूण आक्रमणकारी 
विदूषक 


लंकाराज-कुल का अश्रमण, महा- 
बोधिबिहार-स्थविर 


मद्दाप्रतिहार, महादंडनायक, नन्‍्दी-धराम का दंडनायक/ 
प्रहरी, सैनिक इत्यादि 


स्धनी-पात्र 


देवकी-- कुमारशुप्त की बड़ी रानी,-स्कंद्‌ 
है की सावा 

अलब्तदेवी-- कुमारगुप्त की छोटो राची+-- 
पुरगुप्त को माता 

जयमाला-- वंधुवमों की ख्ी,-मालव की रानी 

देवसेना-- बंधुवमों की वहिन 

विजया[-- मालव के धनकुत्रेर की कन्या 

कमला[-- भटाक की जननी 

रामा-- शवंनाग की सख्ती 

सालिनी-- 


साठ्गुप्त की प्रणयित्ती 
सखी, दासो इत्यादि 


स्कंद्गुप्त 


प्रणम अंक 
[ उज्मयिनी में गुप्त-साम्राज्य का स्कथावार ] 
स्कंदगुप्त--( टहलते हुए ) अधिकार-सुख कितना मादक और 
८५. री कक जि . कप ८ 
सार-द्वीन है! अपने को नियामक ओर क त्ता समकते को बलवती 
स्पुद्दा उससे वेगार कराती है ! उत्सवो में परिचारक ओर अश्ों में 
ढाल से भी अधिकार-लोलु॒प मनुष्य क्‍या अच्छे है ? (व्हश्कर ) 
उंह | जो कुछ हो, हम ते साम्राज्य के एक सनिक है । 
परणुदत्त-- प्रवेश करके) युवराज को जय हो ! 
+स्कंदगुप्त-आय परणुंदत को अभिवादन करता हैँ । सेनापति 
को क्‍या आज्ना है 
ए रे २ 
परणुदत्त--मेरी आज्ञा ! युवराज ! आप सम्राट के प्रतिनिधि 
हें ; ४ में तो आज्ञाकारी सेवक हूँ। इस वृद्ध ने गरुडृष्वज लेकर 
आये चन्द्रगुप्त की सेना का संचालन किया है | अब भी गुप्त- 
साम्राज्य की चासोर-सेना में--उसी गरुड्ध्चज की छाया में 
पवित्र श्लात्रधस्म का पालन करते हुए उसीके मान के लिये 
सर सिटु--यही कामना है। सुप्तकुल-मूषण ! आशीवाद दीजिये, 
वृद्ध पणुदत्त की माता का स्तन्य लल्बित न हो । 
स्कंदगुप्त-आय | आपको बीरता को लेखसाला शिक्षः 
ओर सिन्धु की लोल लहरियो से लिखी जाती है, शत्रु भी उस 
बोरता की सराहना करते हुए सुने जाते है । तब भी सन्देह ! 
पणुदत्त--संदेह दो बातों से है युवराज ! 


स्कद्गुप्त 
स्कंदगुप्त-वे कौन-सी हैं ९ 


९ किक 


तर्क 
परणादत्त--अपने अधिकारों के प्रति आपकी उदासीनता 
आर अयोध्या मे नित्य सये परिवतेव । ह 
स्कंदगुप्त-क्या अयोध्या का कोई नया समाचार हे 
पर्णदत्त--संभवतः सम्राट तो छुसुमपुर चले गये हैं, ओर 
कुमारामात्य महाबलाधिकृत वीरसेन ने स्व की ओर प्रध्यान 
किया । 


स्कंद्शुप्ू--क्या ! सहावलाधिकृत अब नहीं हैं ? शोक ! 
पर्णुदत--अनेक ससरों के विजेता, महामानी, गुप्त-साम्रांज्य 
के महावलाधिकृत अब इस लोक मे नहीं हैं | इधर प्रौढ़ सम्राट 
के विलास की मात्रा बढ़ गई है ! 
# ८ ९ 4 
स्कंदगुप्त--चिता क्‍या! आये! अभी तो आप हैं, तब भी 


में हो सब विचारों का भार वहन करूँ, अधिकार का उपयोग 
करूँ । वह भी किस लिये १ 


पणुदत्त--किस लिये ? त्रस्त प्रजा की रक्षा के लिये, सतीत्व 
के सम्मान के लिये, देवता, ब्राह्मण और गौ की सथ्योदा में विश्वास 
के लिये, आतंक से प्रकृति को आश्वासन देने के लिये आपको 
अपने अधिकारों का उपयोग करना होगा । युवराज ! इसीलिये 
मैने कहा था कि आप अपने अधिकारों के प्रति उदासीन हे 
जिसकी मुझे बड़ी चिन्ता है। गुप्त-साम्राज्य के भावी शासक को 
अपने उत्तरदायित्व का ध्यान नहीं ! 
स्क॑रकुप्त-सेनापते ! प्रकृतिस्थ होइये ! परम भद्गारक सहा- 
राजाधिराज अश्वमेध-पराक्रम श्रोकुसारशुप्त महेन्द्रादित्य के 
सुशासित राज्य की सुपालित प्रजा को डरने का कारण नहीं है । 
छ 


प्रथम अंक 


गुप्तसेना की म्य्यादा की रक्षा के लिये परशंद्त्त-लटश महावोर 
अभी प्रस्तुत हैं। - *'.., 

पणुदत्त-राष्ट्रनीति, दाशनिकता और कल्पना का लोक 
नहीं है। इस कठोर प्रत्यच्तवांद की समस्या बड़ी कठिन होती है । 
शुप्त-साम्राज्य की उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ उसका दायित्व भी 

बढ़ गया है; पर उस वोमझ को उठाने के लिये गुप्तकुल के शासक 
प्रस्तुत नहीं, क्‍योंकि साम्राज्य-लक्ष्मी को वे अब अनायास और 
अवश्य अपनी शरण आनेवाली वस्तु सममने लगे हे । 
स्कंदगुप्त--आय्य ! इतना व्यड्भा न कीजिये, इसके कुछ 
प्रमाण भी है ९ 

परुद्तत्त-प्रमाण ! प्रमाण अभी खोजना है ? ऑधोी आने के 
पहले आकाश जिस तरह: स्तम्भित हो रहता है, बिजली गिरने 
से पूत जिस प्रकार नील कॉइम्बिसी का सनोहर आवरण महा- 

“झुन्‍्य पर चढ़ जाता है, क्या बेसी ही दशा शुप्त-साम्राज्य की 
नहीं है ९ 
दुशुप्त-क्या पुष्यमिन्रों के युद्ध को देखकर बुद्ध सनापति 
चकित हो रहे है ? ( हँसता है ) 

"पणुदत्त--युवराज ९ व्यंग न कीजिये। केवल पुष्यमित्रों के 
युद्ध से ही इतिश्री न सममिये, स्लेच्छों के भयानक आक्रमण के 
लिये भो प्रध्तुत रहना चाहिये। चरों ने आज ही कहा है कि 
कपिशा को श्वेत हूणों ने पदाक्रान्त कर लिया! तिसपर भी 
युवराज् पूछते हें कि “अधिकारों का उपयोग किस लिये ? ! 
यही “किस लिये ? प्रत्यक्ष प्रमाण है, कि गुप्तकुन के शासक 
इस साम्राज्य को “ ग़ले-पड़ी ? वस्तु सममने लगे हैं ! 


स्कंदरगुप्ठ 
( चक्रपालित का भरवेश ) 
चक्रपालित--( देखकर ) अरे, युवराज भरी यहीं हैं ! युवराज 
की जय हो ! ला के 
स्कंदगुप्--आओ चक्र ! आय्य परणदत्त ने मुझे घव 
दिया है । । 
चक्र०--पिताजी ! प्रणाम । कैसी वात है ९ 
परण[०--ऋल्याण हो, आयुध्मन्‌ ! तुम्दारे युवराज अपने: 
न < पे च्ष्ट घे 22359 
अधिकारों से उदासीन हैं। वे पूछते हैं ' अधिकार किस लिये। 
चक्र०--तात ! इस 'किस लिये? का अथे में सममता हैँ । 
पर्‌०--कक्‍्या ९ 
चक्र०--शुप्तकुल का अव्यवस्थित उत्तराधिकार-नियम ! 
स्कन्दगुप्त--चक्र, सावधान ! तुम्हारे इस अनुसान का कुछ 
आधार भी है? ॥॒ 
चक्र०--युवराज ! यह अनुमान नहीं है, यह प्रत्यक्ष-सिद्ध है | 
परण[०--( गंभीरता से ) चक्र! यदि यह बात हे भी, तब 
भी तुमको ध्यान रखना चाहिये कि हम लोग साम्राज्य के सेवक 
झ 


. | असावधान बालक ! अपनी चंचलता को विपक्ष का 
बीज तल बना देना । मे 


स्कन्दगुप्त-आय्य परणेदत्त ! क्षमा कीजिये। हृदय की बातों 
“को राजनीतिक भाषा में व्यक्त करना चक्र नहीं जानता | 
( ५ छ पु जप हीं 
के ०--ठीक है, किन्तु उसे इतनी शीघ्रता न करनी 
चाहिये। ( देखकर ) चर आ रहा है, कोई युद्ध का नया समाचार 
है क्या 


६ 


प्रथम अंक 
( चर का प्रवेश ) 
“युवराज की जय हो !! 
पर०--क्ष्या समाचार है ? 
चर--अब की वार पृष्यमित्रों का अंतिम प्रयत्त है। वे अपनों 
समस्त शक्ति संकलित करके बढ़ रहे है। नासीर-सेना के नायक 
'नें सहायता सोगी है । दशपुर से भो दूत आया है । ५ 
स्कंद०--अच्छा, जाओ, उसे भेज दो । 
€ चर जाता है, दशपुर के दूत का प्रवेश ) 
युवराज भ््टारक की जय हो !! 
स्कंद०- सालवपति सकुशल है ? 
दूत--कुशल आपके हाथ है । महाराज विश्ववसों का शरो- 
'रांत हो गया है । रवीन नरेश महाराज बंधुवर्मा ने साभिवादन 
-श्रीचरणो से संदेश भेजा है । 
स्कंद०--खेद ! ऐसे समय में, जब कि हम लोगो को मालव- 
'पति से सहायता की आशा थी, बह स्वयं कोठुम्बिक आपत्तियो 
में फँस गये है ! 
दूत--इतना ही नहीं, शकन-राष्ट्रमंडल चंचल हो रहा हे, 
नवागत स्लेच्छवाहिनी से सौराध्ट्र भी पदाक्रांत हो चुका है, इसी 
कारण पश्चिमी मालव भी अब सुरक्षित न रहा। 
'(सयदगुप्त पशादत की और देखते है 
पणुं०--बलभी का कया समाचार है ९ है 
दूत--बलभी का पतन असी रुका है। किन्तु बबर हूणों से 
उसका बचना कठिन है । मालव की रक्षा के लिये महाराज बन्घु- 


| 


स्कद्युप्त 


बम्सों ने सहायता साँगी है। दशपुर की समस्त सेना सीसा पर 
जा चुकी है। 

स्कंद---मालव और शक्क युद्ध में जो संधि शुप्र-साम्राज्य 
और सालव-राष्ट्र में हुई है, उसके अनुसार मालव की रक्ा 
शुप्त-सेना का कचतेव्य हे। सहाराज विश्ववस्मों के समय से हीं 
सम्राट कुमारगुप्त उनके संरक्षक है। परन्तु दूत ! बड़ी कठिन 
समस्या है। 

दूत--विपम व्यवस्था होने पर भी युवराज ! साम्राज्य ने 
संरक्षकता का भार लिया है। 

परणु०- दूत ! क्या तुम्हे विदित नहीं हे कि पुष्यमित्रों से 
हमारा युद्ध चल रहा है ९ 

दुत--तत्र भ्री सालव ने कुछ समझकर, किसी आशा 
पर हो, अपनी स्वतंत्रता को सीमित कर जिया था । 
.. सस्‍्कद०-दृत ! केवल सन्धि-नियम ही से हम लोग वाध्य 
नही हूँ; कितु शरणागत-रक्षा भी क्षत्रिय का धम्में है। तुम 
विश्राम करो । सनापति पणुदत्त समस्त सेना लेकर पुष्यमित्रों की 
गति राकंगे। अकेला स्कंदशुप्त मालव की रक्षा करने के लिये 
सन्नद्ध हैं। जाओ, निर्भेय निद्रा का सुख लो | स्कंदगुप्त के जीते- 
जी मालव का कुछ न बिगड़ सकेगा । 


दूत--धन्य युवराज ! आस्यं-साम्राज्य के सावी शासक के 
उपयुक्त हो यह बात है | ( प्रशा्ष करके जाता है 


पणए|०-चुवराज ! आज यह बुद्ध, हृदय से प्रसन्न हुआ 
गुप़-साम्राज्य को लक्ष्मी भी प्रसन्न होगी। 
चक्र०--तात । पुृष्यसिन्न- 


युद्ध का अन्त तो समीप है । विजय 
८ 


प्रथम अंक 


निश्चित है । किसी दूसरे सेनिक को भेजिये। मुझे युवराज के 
साथ जाने की अलुमति हो । 

स्कंदू०-- नहीं चक्र, तुम विजयी होकर ममसे सालव से 
मिलो | ध्यान रखना होगा कि राजधानी से अभो कोई सहायता 
नहीं मिलती । हम लोगों को इस आसन्न विपद मे अपना ही 
भरोसा है । 

परण[०--छुछ चिंता नहीं युवराज ! भगवान सब संगल करेंगे ।. 
चलिये, विश्वास करें | 


स्कद्युत्त 
[ कुसुपपुर के रान-मंदिर मे सम्राद कुमारगुप्त और देने परिषद ] 


धातुसेन-परम भद्वारक ! आपने सी स्थ्रस इतने विकुट 
युद्ध किये है! मैने तो समझा था, राजसिहासन पर बेठेन्नेंठ 
शजदंड हिल्ना देने से ही इतना वड़ा गुप्त-साम्राज्य स्थापित हा 
गया था ; परतु-- 

कुमारशुप्त-- हँसते हुए + तुम्हारों लंबा से अब राक्षस नहीं 
शहते ९ क्यो धातुसेन ! 

धातुसेन--राक्षस यदि कोई था तो विभीपण, ओर बन्दरों में 
भी एक सुमीव हो गया था। दक्षिणापथ आज भी उनकी करनी 
का फल भोग रहा है। परंतु हाँ, एक जआाश्वय्य की बात हे कि 
सहामान्य परसेश्वर परस भद्टारक को भी युद्ध करना पड़ा | रास- 
चंद्र ने तो, सुना था, जब वे युवराज भो न थे तभी, युद्ध किया 
था। सम्राट होने पर भी युद्ध ! 


कुमार०-युद्ध तो करना ही पड़ता है। अपनी सत्ता बना 
रखने के लिये यह आवश्यक है । 

धातु०-अच्छा तो स्वर्गीय आय्य समृद्रश॒प्त ने देवपुत्रों तक 
का राज्य-विजय किया था, सो उनके लिये परम आवश्यक था ? 
क्या पाठलीपुत्र के समीप ही वह राष्ट्र था ९ 

कुभार०--तुम भी वालि की सेना से से कोई.बचे हुए हो ! 

धातु परम भरद्टारक की जय हो | बालि की सेना नथी, 


ओर वह युद्ध न था। जब उससें लडडू खानेवाले सुग्रीव निकल 
'पढ़े, तब फिए-- 


कुमार० -कक्‍्यों ९ 
१२० 


प्रथम अंक 


_ धातु०--उनुकी बड़ो सुन्दर ओवा में लडड्ू अत्यंत सुशोभित 
होता था, और सबसे बड़ी बात तो थी बालि के लिये--उनकी तारा 
का संत्रित्व । सुना है सम्राट ! स्री की मंत्रणा बड़ी अनुकूल और 
उपयोगी होतो है, इसी लिये उन्हें राज्य को भमटा से शीघ्र छुट्टी 
मिल गई । परम भद्टारक की दुह्ाई | एक ख्री को मंत्री आप भी 
बना लें, बड़े-बड़े दाढ़ी मंछवाले मंत्रियों के बदले उसकी एकांत 
संत्रणा कल्याणुकारिणी होगी । 
कुमार०--( हँसते हुए ) लेकिन प्रथ्वीसेन तो मानते ही 
नहीं | 

धातु०-- तब भेरी सम्मति से वे ही कुछ दिलों के लिये स्त्री 
हो जायें ; क्‍यों कुसारामात्यजी ? 

पृथ्वीसेन--पर तुप्त तो खत्री नहीं हो जो मे तुम्हारी सम्भाति 
सान लूँ ? का डे 
कुमार--( हँसता हुआ ) हों) तो आशय समुद्रगुप्त को विवश 
होकर उन विद्रोही विदेशियों का दमन करना पड़ा, क्योंकि मौस्य 
साम्राज्य के समय से ही सिंधु के उस पार का देश भी भारत- 
साम्राज्य के अन्तर्गत था। जगहिजेिता सिकन्द्र के सेनापति 

सिल्यूकस से उस प्रान्त को मौय्य सम्राट चंद्रगुप्त ने लिया था । 

धातु० “-फिर तो लड़कर ले लेने की एक परम्परा-सी लग 
जाती है । उनसे उन्होंने, उन्होंने उन्नसे , ऐसे हो लेते चले आये 
हैं। उसी प्रकार आय्य [...... ह 

कुमार०--उँह ! तुम समकते नहीं । मछु ने इसको व्यवस्था 
दी है। अर 
५ वातु०--नहीं धस्सोवतार | सम्रक में तो इतनी बात आ गई 

११ 


स्कदगुप्त 


कि लड़कर ले लेना ही एक प्रधान स्वत्व है। संसार में इसीका 
बोलबाला है । 


भटाऊ--नहीं तो क्या रोने से; भीख मांगने से कुछ अधिकार 
मिलता है ? जिसके हाथों में बल नहीं, डसका अधिकार ही. 
कैसा ? और यदि मॉगकर सिल भी जाय, तो शान्ति की रक्षा 
कौन करेगा ९ | 

मुदूगल--( प्रवेश करके ) रक्षा पेट कर लेगा, कोई दे भी तो । 
अक्षय तूणीर, अक्षय कवच सब लोगों ने सुना होगा; परन्तु इस 
अक्षय मंजूबा का हाल सेरे सिवा कोई नहीं जानृता ! इसके भीतर 
कुछ रखकर देखो, में केसी शान्ति से बैठा रहता हैँ ! 

( पत्रासन से बेठ जाता हे ) 

प्रथ्वयोसिन--परस भद्टारक की जय हो ! मुझे कुछ निवेदल 
करवा है --यदि आज्ञा हो तो । 

कुमार०-हाँ, हॉ, कहिये । 


प्ृथ्वीसेन--शिक्ना के इस पार साम्राज्य का स्कंघावार स्थापित 
है। मालवेश का दूत,भी आ गया है कि * हम ससैन्‍्य युवराज 


हायताथ प्रस्तुत है। ” सहानायक पणादत्त ने भी अनुकूल 
समाचार सेजा है। 


कुमार०--सालव का इस अभियान से कैसा भाव है, कुछ 
पता चला १ क्योंकि यह युद्ध तो जान-बूककर 'छेड़ा गया है । 
« ० अपने सुख से मालवेश न दूत से यहाँ तक कहा 


था के युचराज का कष्ठ देने की कया आवश्यकता थी, आज्ञत 
पात्त हा स से स्य इस ठीक कर लेता । 


ष् 
श्र 


है 


प्रथम अंक 


कुमार०--महासान्धि-विग्नहिक ! साधु ! यह वंश-परंपरा- 
गत तुन्हारों ही विद्या है। 

प्रथ्वीसिन-सम्राट के श्रीचरणों का प्रताप है। सौराष्ट्र से 
भो नवीन समाचार मिलनेवाला है । इसीलिये युवराज को वहाँ 
भेजने का मेरा अनुरोध था| 

भटाक--सौराष्ट्र की गति-विधि देखने के लिये एक रणदक्त 
सेनापति की आवश्यकता है । वहाँ शक-राष्ट्र बड़ा चच्चल अथच 
भयानक हे । 

४. प्रथ्वीसेन--( गृढ़ दृष्टि से देखते हुए ) महाबलाधिकृत ! आव- 
श्यकता होने पर आपको वहाँ जाना ही होगा, उत्कंठा की 
आवश्यकता नही । 

मटाक--नही, से तो.. ... .. 

कुमार ०--महावलाधिकृत ! तुम्हारी स्मरणीय सेवा स्वीकृत 
होंगी । अभी आवश्यकता नहीं। 

धातुसेन--( धाथ जोड़कर ) यदि दक्षिणापथ पर आक्रमण 
का आयोजन हो तो झुझे आज्ञा मिले । मेरा घर पास्‌ हे, मै जा 
कर स्वच्छुंदता-पूवक लेट रहूँगा, सेना को भी कष्ट न होने पावेगा। 

( सब हँसते है ) 

मुदगल--जय हो देव। पाकशाला पर चढ़ाई करनी हो तो 
मुझे आज्ञा मिले । मे असी उसका सबस्वांत कर डाल । 

( फिर सब हँसते हैं । गभीर भाव से अभिवादन करते हुए--एक ओर 
पृथ्वीसेन ओर दूसरी ओर भदके का अस्थान । ) 

कुमार ०--झुदुगल ! ठुन्हारा कुछ... .. -« 





शव 


स्त्द्शुप्र 


मुद्नल--महादेवी ने ,प्राथना को है कि युवराज भद्टारक को 
कल्याशु-कामना के लिये चक्रपारिस सगवान को पूजा को सब 
सामग्री प्रस्तुत है । आय्यपुत्र कच चलेंगे ९ कर 
कुप्तार:--( मूड बनाकर ) आज ता कुछ पारलीक नचकियाँ 
आनेवाली है. आपानक भी हू | सहादेदी से कह देता 
न हो, कल चलूगा | सस्ता न सुदगल ? जि 
मुदगल--( खड़ा होकर ) परसेश्वर परस ट्वारक की जय हो ! 

( जाता है ) 

धातुसन--वह चाणक्य छुछ सॉंग पीता था । उससे लिखा ह 

॥ 


कि राजपुत्र भेड़िये हें, इतसे पिता को सदेव सावधान रहना 
चाहिये । 


कुसार०--वह राष्रननाति है | 
( अनन्तदेवों का चुपचाप प्रवेश ) 


वातु० -सूल गया । उसक बदल उस ब्राह्मण का लिखना था 
ऊ राजा खाग व्याहू हो न कर, क्‍या मे ड्यो-सी संतान 
च्त्पन्न हा ९ 

अनन्‍्तदृबी-- ( सामने आकर ) आय्यपुन्र की जय हो ! 

( चातु्देन मयभोत्र होने का-छा मे ह बनाकर चुप हो जाता ह ) 

कुसार०--आओ प्रिय । तुम्ह खोज ही रहा था। 

अचजनन्‍्त०--नत्तेकियों को बुलवाती आ रहा हूं । कुमारासात्य 
आदि थे, मन्त्रण में बाधा पसमकर, जान-वूमकर देर लगाई 
आपको तो देखती हूँ कि अवकाश ही नहीं । 

( धातुलेन की ओर कद्ध होकर इखती है ) 

कुंसार०--वह अबोध विदेशी शी हँसोढ़ है । 
अनत०-- तव भी सीसा होनी चाहिये 
0९० 


प्रथम अक 
धातु०--चाणक्य का नाम हो कोटिल्य हे । उ्लके सूत्रों की 
व्याख्या करन जाकर ही यह फल मिला । क्षमा मिल ता एक 
बात ओर पूछ छू ; क्योकि फिर इस [दफ्य का प्रश्त न करूगा । 
अचत्त०-पूछ ल( | | 
धातठु०--5 सके अनथशास््र मे विषकन्या का "* “7 
छमार०--( छॉंव्कर ) चुप रहा। 
€ नक्तेकियों का गाते हुए प्रवेश ) 
न छेड़ना उस्त अश्ैत ल्खति से 
खिचे हुए बीन-तार कोकिल 
करुणु रामिवी तड़प उठेगी 
छुना न ऐसी पुकार कोकिल 
हृदय धूल में मिला दिया है 
उसे चरण-चिन्ह-सा किया है 
खिले फूल सब गिरा दिया हे 
न अब बसंती बहार कोकिल 
सुनी बहुत आनंद-मेरवी 
विगत हो चुकी निशा-माधवी 
रही न अब शारदी केरवी 
न तो मघा की फुद्धार कोकिल 
न खोज पागल मथुर प्रेम को 
न तोड़ना ओर के नेम को 
बचा विरह मोन के छोेम को 
कुचाल अपनी सुधार कोकिल 


[ पद-परिव्तन | 


[ पथ में माद्गुप्त ] 

ओर अनन्त उत्कंठा से कवि-जीवन व्यत्तीत करने की इच्छा हुइ । 
संसार के समस्त अभावों को असंत्तोप कहकर हृदय को धाखा 
देता रहा । परन्तु केसी विडस्ब॒ना ! लक्ष्मी के लालों का भ्रूभंग 
ओर क्षोस॒ की ज्वाला के अतिरिक्त मिला क्‍या ९--एक काल्पनिक 
प्रशंसनीय जीवन, जो कि दूसरों की दया में अपना अस्तित्व 
रखता है ! संचित छृदय-कोष के अमूल्य रत्नों की उदारता. और 
दारिद्रय का व्यंग्यात्मक कठोर अटद्वहास, दोनों की विपमता की 
कोन-सी व्यवस्था होगी। मनोरथ को--भादत के प्रकांड बोद्ध 
पंडित को--परास्त करने में में भी सबकी अशंसा का भाजन 
बना । परंतु हुआ क्‍या ९ 


सातृ०--कविता करना अनन्त पुण्य का फल है । इस दुराशः 


( मुद्गल का प्रवेश ) 
सुदल-कहिये कविजी ! आप ते बहुत दिनो पर 
दिखाई पड़े | कुलपति को कृपा से कही अध्यापन-कार्य मिल 
गया क्‍या ९ 
६ अप बज क | 
मातू०--में तो अभो यों ही बैठ! हूँ । 
मुद्ठ ० ३०. अर हक 
#ल- क्‍या वठ-वठे काम्न चल जाता है ? तब ते भाई, 
उम्र वड़ साग्यवान हो। कविता करते हे। न? भाई | उसे 
छोड़ दे । ; 
का है 4 8 ७ छा ' 
“2० क्या | बहोतो मेरे भूखे छदय का आहार है! 
-हैवित्व-वर्णुसय चित्र है, जो स्वर्गीय भाव-पूर्ण संगीत गाय; 


करता है। अंधकार का आलोक से, असन्‌ का सत्‌ से, जड़ का. 
श्द्‌ 


प्रथम अंक 


खेतन से, और वाह्य जगत का अन्तर्जेंगत्‌ से सम्बन्ध कोन 
“कराती है? कविता ही न ! 
मुदूगल-परन्तु हाथ का झुख से, पेट का अन्न से, और 
आँखों का निद्रा से भी सम्बन्ध होता है. कि नहीं इसके भो 
कभी सेचा-विचारा है ? 
साढगुप्त-संखार में क्या इतनो ही वस्तुएँ विचारने को है? 
पशु भी इनकी चिन्ता कर लेते होंगे। 
मुदूगल--और मनुष्य पशु नहीं है ; क्योंकि उसे बातें बनाना 
आता है--अपनी मूखेताओं के छिपाना, पापों पर बुद्धिमानी का 
आवरण चढ़ाना आता है! और वाग्जाल की फाँस उसके पास 
है। अपनी घोर आवश्यकताओं में ऋृत्रिमता बढ़ाकर, समय 
ओर पशु से कुछ ऊँचा हविपद्‌ मनुष्य, पथ बनने से बच जाता है । 
माद्शुप्त-हेगा, तुम्हारा तायय्ये क्‍या है ? 
मुदूगल--विचार-पूर्ण स्वप्न-सय जीवन छोड़कर वास्तविक 
स्थिति मे आओ । ब्राह्मण-कुमार हो, इसीलिये दया आती है। 
माठ्गुप्त-क्या करूँ 
मुद्गल--मैं देचार दिन में अबंती जानेवाला हूँ; युवराज 
भद्टारक के पास तुम्हें, रखवा दूँगा । अच्छी इत्ति मिलने लग 
जायगी। है स्वीकार ? 
मातृगुध्त-पर तुम्हे मेरे ऊपर इतनी दया क्‍यों ९ 
सुद्गल--तुम्हारी बुद्धिमत्ता देखकर में प्रसन्न हुआ हैँ 
उसी दिन से मै खोजता था | तुम जानते हे। कि राजा हा 


२७ 


स्कंद्शुप् 


अधिकारी होने के लिये समय की आवश्यकता हे। बड़े लोगों 


की एक दृढ घारणा होती है कि, ' अभी टकराने दा, ऐसे बहुत 
आया-जाया करते है। है 

माठ्युप्त-तब ते बड़ी कृपा हैं | से अवश्य चल गा । 

काश्मीरमंडल में हुणों का आतंक है, शास्र ओर संस्क्ृत-विय्या 

का काई पूछनेबाला नहीं। स्लेच्छाक्रान्त देश छोड़कर राज- 
घानी मे चला आया था| अब आप ही मेरे पथ-प्रदशक हू । 

सुद्गल--अच्छा ते मे जाता हूँ, शीघ्र ही मिलंगा। तम 
चलने के लिये प्रस्तत रहना । 

(जाता है ) 

साठ्शुप्त-काश्मीर ! जन्मसूमि !! जिसकी धूलि में लोट 
कर खड़े हाना सीखा, जिसमे खेल-खेलकर शिक्षा प्राप्त की, 
जिसमें जीवन के परमाणु संगठित हुए थे, वही छूट गया । और 
बिखर गया एक सनेहर स्वप्न, आह ! वही जो मेरे इस श्रीवन-पश्न 
का पाथेय रहा ! 

प्रिय! 


संछति के वे सुंदरतम ऋण या ही भूल नहीं जाना 
वह व्च्छूडुलता थी अपनी---कहकर मन मत बहलाना 
मादकता-ती तरल हँती के प्याले में उठती लहरी 
मेरे निश्चासों से उठकर अथर चूमने का ठहरी 
में व्याकुल परिरंम-प्रुकुल में बन्दी अलि-प्ता छाँप रहा 
छुलक उठा प्याला, लद्दरी में मेरे सुख का माप रहा 
सजग घुप्त सदस्य हुआ, हो चपल चलीं भौंहें मिलने 
लोन हो गई लहर, लगे मेरे ही नख छाती छिलमे 
१८ 


ः प्रथम अंक 
श्यामा का नुखदान मनोहर मुक्ताओं से प्रधित गहा 
' 'लीवन के उस पार उड़ाता हँसी, खड़ा में चकित रहा 
तुम अपनी निष्ठर क्रीड़ा के विश्रम से, बहकाने से 
सुखी हुए, फिर लगे देखने मुझे पथिक पहचाने-से 
डस सुख का आलिड्वन करने कभी भूजब्कर आ जाना 
मिलन-हितिज-तट मधु-नलनिधि में रदु हिलकोश उठा जाना 


कुमारदास--( प्रवेश करके ) साधु ! 

5. माठ्शुप्त--( अपनी भावना में तत्लीन जेसे किसीको, न देख 
- रहा हो ) अमृत के सरोवर में स्वर्ण-कमल खिल रहा था, ! 
अ्रमर वंशी बजा रहा था; सौरभ और पराग की चहल-पहल 
थी । सबेरे सृथ्य की किरणें उसे चूमने को लोटती थी, संध्या मे 
शीतल चाँदनी उसे अपनी चादर से ढक देती थी। उस सधुर . , 
सौन्दय, उस अतीन्द्रिय जगत्‌ की साकार कल्पना की ओर मैंने' 
हाथ बढ़ाया था, वहीं--चहीं स्वप्न टूट गया ! 


कुमारदास- समक में न आया, सिहल से और काश्मीर 
में क्या भेद है। तुम गौरवर्ण हो, लम्बे हो, खिंची हुई भोहें 
है; सब होने पर भी सिंहलियो की घुंघुराली लट, उज्ज्वल श्याम 
शरीर, क्या स्वप्न में देखने की वस्तु नहीं ? 

मातृशुप्त--( कुमारठास को जेसे सहसा देखकर ) प्रथ्वी को 
' समस्त ज्वाला को जहाँ ग्रकृति ने अपने बफ के अश्चल से ढंक 
दिया है, उस हिमालय के-- 

कुमारदास--ओऔर बडवानल के अनन्त जलराशि से जो 
संतुष्ट कर रहा है, उस रत्लाकर का--अच्छा जाने दो, रज्लाकर 


का 


स्कद्मुत्त 


नीचा है; गहरा है। हिसालय झूँचा है, गव से सिर उठाये है, 
तब जय हो काश्मीर का ! हों, उस हिमालय के...... -- 
मात्गुप्त-डउस हिमालय के ऊपर ग्रभात-सुख्य को सुनहरा 
ब्रभा से आलोकित बफ़ का, पीले पोखराज का-सा, एक महल था । 
उसीसे नवनीत की पुतली मॉककर विश्व को 'देखती थी। वह 
हिम की शीतलता से सुसंगठित थी । सुनहरो किरणों का जलन 
हुई । तप्त होकर सहल को गला दिया। पुतली | उसका मगल 
हा, हमारे अश्रु की शीवलता उसे सुरक्षित रखे। करपना का - 


भाषा के पंख गिर जाते हैं, मोन-नीड़ मे निवास करने दो । 
छेड़ो मत सित्र ! 


हर 


कुमारदास--तुम विद्वान हो, सुकवि हो।; तुमका इतना 
माह ९ 

साठ्गुप्त--यदि यह विश्व इन्द्रजाल ही है, तो उस इन्द्र- 
जाली को अनन्त इच्छा के पूणु करने का साधन--यह मधुर 


साह्‌ चिरजीवी हो ओर अमिलाषा से सचलनेवाले भूखे हृदय 
का आहार मिले । 


. छुमारदास--मिन्र ! तुम्हारी केसल कल्पना, वाणी की वीणा 
भे मनकार उत्पन्न करेगो | तुम सचेष्ट बनो, प्रतिभाशील हे । 
तुम्दारा भविष्य वड़ा उज्ज्चल है । 

माह्गुप्र--उसकी चिता नहीं । देन्य जीवन के प्रचंड 
आतप मे सुन्दर स्नह सेरी छाया वन ! झुलसा हुआ जीवन घन्य 
दा जायगा । 

छुमारदास--मित्र ! इन थोड़े दिना का परिचय मुन्के 
आजीवन स्मरण रहगा। अब तो में सिहल जाता हॉ--देश की 


हा 
का ही, 
3 


प्रथम अंक 


पुकार है । इसलिये में स्वप्तों का देश ' भव्य भारत ? छौड़ता 
कविवर ! इस क्षीण-परिचय कुमार धातुसेन के भूलना मत-- 
* कभी आना । 

साद्शुप्त-सम्राद कुमारशुप्त के सहचर, विनोदशील कुमार- 
दास ! तुम क्या कुमार घातुसेन हो ? 

कुमारदास-ाँ मित्र, लंका का युवराज । हमारा एक मित्र, 
एक बाल-सहचर, प्रस्यातकीति, महावोधि-विहार का श्रमण है । 
उसे और गुप्त-साम्राज्य का वेभव देखने पय्यटक के रूप में 
भारत चला आया था। गोतस के पद-रज से पवित्र भूमि के 
खूब देखा ओर देखा दूप से उद्धत गुप्त-साम्राज्य के तीसरे पहर 
का सूथ्य । आय्य-अम्युत्थान का यह स्मरणीय युग है । मिन्र, 
परिवतेन उपस्थित है । 


सावगुप्त--सम्राट कुमारणशुप्त के साम्राज्य में परिवर्तन ! 


धीतुसेन--सरल युवक ! इस गतिशील जगत्‌ में परिवत्तन पर 
आमख्य ! परिवर्तन रुका कि महापरिवर्तत--प्रलय--हुआ ! परि- 
वर्तन ही सृष्टि है, जीवन है । स्थिर हेाना मृत्यु है, निश्चष्ट शांति 
मरण है । प्रकृति क्रियाशील है। समय पुरुष ओर खत्री की गेंद 
लेकर दोनों हाथ से खेलता है। पुद्धिंग - ओर खीलिग की सर्मष्टि 
अभिव्यक्ति की.. कुंजी है, | पुरुष उछाल दिया जाता है, 
उत्पेक्षण होता है;। ख्री आकषण करती है । यही जड़ पंकृति का 
चेतन रहस्य है। : 
' साठ्गुप्त--निस्सन्देह । अनन्तदेवी के इशारे पर कुमारणुप्त 
नाच रहे है । अद्भुत पहेली है ! 


स्कद्शुम 


ओर. प्रश्न - और ख्त्री है विश्लेषण: उत्तर और सब बानतां का 
ससाधान | पुरुष के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देन के लिये बच्ध 
प्रस्तुत है। उसके कुतूइल--इसके अभावो का परिप्रर 


टट सारत 
का उष्ण प्रथत्त आर शाोतल उपचार | अमागा मन्त॒प्य संतुष्ट 
- अंश्ा के ससान | पुरुष 


कहा-- के |; स्त्रीन अर्थ लगा 
या-- कोवा !; बस, वह रटने लगा । विपय-विह्नल द्रृद्ध 
सम्राट, तरुणी की आकांक्षाओ के साधन चन रहे हैं | काले 
समेघ क्षितिज से एकन्र है, शीघ्र ही अन्धकार हागा । परंत आशा 
का केन्द्र श्रुवतारा एक युवराज स्कंद' है। निमम शून्य आकाश 
सें शीघ्र ही अनेक वणु के मेघ रंग भरंगे। एक विकट अभिनय 
का आरस्भ हानेवाला हैं । तुम भो सभवतः उसके अभिनेताओं में 
मे एक होगे । सावधान ' सिहल तुम्हारे लिये प्रस्तुत्त हैं । प्रस्थान) 
' मसातृशुप्तर-विचल्षण उदार राजकुमार ! 


शतुससे--पहेली ! यह भी रहस्य ही हैं। एरूप ४--छुतदल 


6 ४०९7 


[ प्रस्थान हू 


हे [ अनन्तदेवी का मुप्तजित्त प्रकोष्ठ | 

अनन्तदेवी - जया [ रात्रि का हितीय प्रहर ता व्यतोत है। 
रहा है, असी सटठाक के आने का समय नही हुआ ९ 

जया--स्वासिनी ! आप बड़ा सयानक खेल खेल रही है । 

अननन्‍्त>--च्षुद्र हृदय--जोा चूहे के शब्द से भी शंकित होते 
है, जे अपनी साँस स ही चोक उठते हैं, उन्तके लिये उन्नति का 
कंटकित साग नहीं है | महत्त्वाकांत्ा का दुर्गंम स्वर्ग उसके लिये 
स्वप्न है। 

जया -परंतु राजकीय अन्तःपुर की मयोदा बड़ी कठेार 
अथच फूल से कोमल है। ,. * -,', 

अनन्ते5->अपनी नियति का पथ सें अपने पेरों चलन गी, 
अपनो शिक्षा रहने दे । ; 

(जया कपाट के सप्तीप कान लगाती है, सकेत होता हे, गुप्त हार 

खुलते ही भठाकी सामने उपस्थित होता है ।) 

भटाक--महादेवी की जय हे। ! 

अनन्त०--परिहास न करो मगध के महाबलाधिकृत ! देवका 
के रहते किस साहस से तुम मुझे महादेवी कहते हो 

भटाक--हमारा हृदय कह रहा है, और आये दिन साम्राज्य 
की जनता, प्रजा, सभो कहेगी। 

अनंत०--मुझे विश्वास नहीं होता | 

भटाक--महादेवी ! कल सम्राट के समक्ष जे विद्रप ओऔर।/ 
व्यज्ञ-चाण मुझपर बरसाये गये है, वे अन्तस्तल से गड़े हुए है। 
उनके निकालने का 5 प्रयत्न नहीं करूँगा, वे दी भावी विछुव से 
सहायक देंगे । चुभ-चुसकर वे मुझे सचेत करेंगे । 


ब्३्‌ 


है 


स्कद॒शुप्र 


में उन पथ-प्रदर्शकों का अनुसरण करूँगा । बाहुबल से 
वीरता से और अनेक प्रचंड पराक्रमों स ही मुझे मगध के 
सहावलाधिकृत का साननीय पद सिला है; मे उस सम्मान 
की रक्षा करूँगा । महादेवी !। आज मेने अपने छदय 
के सार्सिक रहस्य का अकरस्मात्‌ उद्घाटन कर दिया है। परन्तु 
वह भी जान-बूककर--ससममकर । मेरा छदय शुला के लोहफलक 
सहने के लिये है, श्ुद्र विष-वाक्य-वाण के लिये नहीं । 


अनन्त०--तुम॒ बीर हे। भटाक ! यह तुम्हारे उपयुक्त ही 
हैँ । देवकी का प्रभाव जिस उप्रता से बढ रहा है. उसे देखकर 
मुझे पुरणुप्त के जीवन सें शंका हे! रहो है। सहावलाधिकृत ! 
ढुवेल माता का हृदय उसके लिये आज ही से चिन्तित है, विकल 
है। सम्राट की मति एकन्सी रहती, वे अव्यवस्थित और 
खंचल है । इस_ अवस्था में वे विलास की अधिक मात्रा से केवल 
जीवन के जटिल सुखो को गुत्थियाँ सुलमाने से व्यस्त है । 


भठाक--में सव समझ रहा हू । पुष्यसित्रा के युद्ध से मुझे 
सेनापति की पदवी नहीं मिली, इसका कारण भी में जानता हैँ । 
में दूध पीनेवाला शिशु चही हू । ओर यह्‌ मुझे स्मरण 

कि प्रथ्वीसेन के विरोध करने पर भी आपको कृपा स सुझे महा- 


वलाधिकृत का पद सिला है। में ऋतन्न नहीं हैँ, सहादेवी | आप 
निश्चिन्त रह । 


अनन्त०--पुष्यमित्रा के युद्ध से भेजन के लिये मेने भी कुछ 
समभक्तर ड्ययोंग नहीं किया। भटाक | क्रान्ति उपस्थित है 


६३ #*॥ 
तुस्हारा यहाँ रहना आवश्यक है । 
४ 


प्रथम अंक 


सटाक-क्रान्ति के सहसा इतना समीप उपस्थित होने के तो. 
कोई लक्षण भुमे नहीं दिखाई पड़ते । 
अननन्‍्त०--राजधानी में आनन्द-विलास हो रहा है, और 
पारसीक सदिरा की घारा बह रही है; इनके स्थान पर रक्त की 
धारा बहेगी ! आज तुम कालागुरु के गंध-धूम से सन्तुष्ट हो रहे. 
हो, कल इन उच्च सोध-मन्दिरों में महापिशाची की विप्युव-ज्वाला' 
धधकेगी ! उस चिरायेंघ की उत्कट गंध असह्य -होगी । तब तुम ' 
.भठाक | उस आगामी खंडन-प्रलय के लिये प्र॑स्तुत हो कि नही ९ 
( ऊपर देखती हुईं ) उहूँ, अपचबुद्धि की कोई बात आज तक मिथ्या 
नहीं हुई । 
भठाक--कौन अपंचबुद्धि ? हल 
अनन्त०--सूचीभेद्य अंधकार से छिपनेवाली रहस्यमयी: 
निग्रति का-अज्बलित कठोर नियति का-नोंल आवरण उठा 
कर मकाँकनेवाला। उसकी आँखो में अभिचार का संकेत है; 
सुस्कराहठ में विनाश की सूचना है ; ऑधियों से खेलता हे, बातें 
करता है-बिजलियो से आलिगन |! * 
( प्रपंचबुद्धि का सहसा प्रवेश ) 
प्रपंचबुछि--स्मरण है भाद्र की अमावस्या ? 
€ भठाक और अनन्तदेवी सहमकर हाथ जोड़ते है ) 
अननन्‍्त०-स्मरण है, सिल्ल-शिरोमणे ! उसे मैं भूल सकती 


2णभ( 


] 
प्रपंच०--कौन, महाबलाधिकृत ! हूँ हें हैं हैँ, ठुम लोग सद्धमे 
के अभिशाप की लीला देखोगे; हे आँखों में इतना बल [ 


करन 


हक जन बज 
न डॉट कक] ७ 
है. 


स्कंद्गुप्त 


क्यों, समझ लिया था कि इन सुडित्तन्मस्तक जीणु-कलवर सिश्ठ- 
कंकालों मे क्या धरा है । दखो--शव-चिता मे नृत्य करतो हुई 
तारा का तांडव नृत्य, शून्य सबनाशकारिणी पकृृति को सुड- 
मालाओ को कंदुक-क्रोड़ा ! अश्वमेघ हो चुके, उनके फल-स्वरूप 
सहानरसेघध का उपसहार भो देखों। ( देखकर ) हैँ तुममें--तू 
करंगा १ अच्छा सहादवी ! अम्नावस्या के पहल प्रहर मं, जब नाल 
. गगन से भयानक और उज्ज्वल उस्कापात होगा, महा-शुन्य की 
ओर देखना | जाता हैँ | सावधान ! 
( प्रस्थान ) 

भठाक--सहादेवो ) यह भूकंप के समान हृदय को हिला देन- 
वाला कौन व्यक्ति है ? ओह, मेरा तो सिर घूम रहा है ! 

अनन्त०--यही तो सिक्षु प्रपंचबुद्धि है ! 

भसठाक--तब झुझे विश्वास हुआ | यह क्रर-कठोर नर-पिश्वाच 
मरी सहायता करेगा। में उस दिन के लिये प्रस्तुत हूँ ।९ 

अनन्‍्त०--तब अतिश्रुत होते हो ९ 

सटाके--दास सदैव अजुचर रहेगा | 

अचनन्‍्त०--अच्छा, तुस इसी गुप्त द्वार से जाओ। देखें, अभी 
कादस्ब की सोह-निद्रा से सम्राट जगे कि नही ! 

जया--( प्रवेश करके >) परम भद्टारक अगड्राइयों ले रहे है | 
स्वासित्ती, शीघ्र चलिये। 

( जया क्व प्रस्थान ) 
भदाके--तो महादेवी, आज्ञा हो | 


२६ 


प्रथम अंक 


अनन्त०--( देखती हुई ) भठाक ! जाने को कहैँ ९ इस शत्र- 
घुरी में में असहाय अबला इतना--आह ! ( आँसू पोछती हे ) 

भटाक --थैय्य रखिये । इस सेवक के बाहुबल पर विश्वास 
कीजिये । 

अनन्त०--तो भठाक, जाओ । 


( जया का सहत्ता प्रवेश ) 

जया--चलिये शीघ्र ! । 

/ (दोनों नाती हैं ) ,. , (७०7 ..' 

भटाक--एक उुर्भेय्य नारी-हृदय में विश्व-प्रहेलिका का-रहस्य- 

बीज है । ओह, कितनी साहसशीला स्त्री है ! देखू , गुप्त-साम्राज्य 

के भाग्य की कजी यह किधर घुमाती है। परन्तु इसकी आँखों 

में काम-पिपासा के संकेत अभी उबल रहे है। अठप्ति की चंचल 

प्रवच्चना कपोलों पर रक्त होकर क्रीड़ा कर रही है। हृदय में 

खासेां की गरसी विलास का संदेश वहन डी रही है। परन्तु'* 
अच्छा चल, यह विचार करने का स्थान नहीं है । 


( गुप्त द्वार से नाता है ) 


[ पढ-परिवत्तंव ] 


[ अन्‍्तःपुर का द्वार ] 


शर्वनाग--( व्हल्ता हुआ ) कोन-ली वस्तु देखी ? किस 
सोंदुय्य पर सन रीका ? कुछ नहीं, सदेव इसी सुन्दरी खन्न-लता 
की प्रभा पर में मुग्ध रहा। में नहीं जानता कि और भी कुछ 
सुन्दर है । वह मेरी स्ली--जिसके अभावों का कोप कभी खाली 
नहीं, जिसकी अत्सनाओं का भांडार अक्षय है, उससे भरी 
अंतरात्मा कॉप उठती है। आज मेरा पहरा हे। घर से जान 
छूटी, परन्तु रात बड़ी सयानक है। चलें अपने स्थान पर बैठे । 


सुनता हूँ कि परम भट्टारक की अवस्था अत्यन्त शोचतन्तीय है-- 
जाने भगवान 


( भटाक का प्रवेश ) 
भटाक--कौन ! 
९ 
शवनाग--नायक शबनाग । 
भटाक--कितने सनिक हैं ९ 
शव०--पूरा एक गुल्म । 


सटाक--अंतःपुर से कोई आज्ञा मिली है ? 
शव ०--नही । 


सटाक--तुमको मेरे साथ चलना होगा । 
शव०--मै प्रस्तुत हूँ; कहाँ चलें १ 
भटाक--मसहादेवी के द्वार पर | 
शवं०--वहों सेरा क्‍या कत्तंव्य होगा ? 


भठाक-कोई न तो भीतर जाने पावे और न भीतर से बाहर 
आने पावे । 


ब्८ 


न प्रथम अक 


शर्व०--( चौककर ) इसका ताठय्य ९ 

भटाकें--( गम्भीरता से ) तुमको महाबलाधिकृत की आज्ञा 
पालन करनी चाहिये | 

शर्व०--तब भी क्‍या स्वयं महादेंवों पर नियंत्रण रखना 
होगा ? 

भटठाक--हाँ । 

शव ०--ऐसा ! 

भटाके-ऐसा ही । 

( कोलाहल, भीषण उल्कापात 2 

भटार्क--ओह, ठीक समय हो गया ! अच्छा, में अभी 

आता हैँ 
( द्वार खोलकर भटार्क भीतर जाता हे) 
( राम्ा का प्रवेश ) 

रामा--क्‍्यों, तुम आज यहीं हो ९ 

शर्व०--मै, में, यही हूँ; तुम केसे ! 

रामा-मूखे ! महादेवी सम्राट को देखना चाहती हैं, परन्तु 
उनके आने में बाधा है। गोबर-गणेश ! तू कुछ कर सकता है ९ 

शर्व०-मै क्रोध से गरजते हुए सिंह की पूंछ उखाड़ सकता . 
हूँ, परन्तु सिहवाहिनी ! उुम्हे देखकर मेरे देवता कूच कर - 
जाते है ! 

रामा--( पैर पटककर ) तुम कीड़े से भी अपदार्थ हो ! 

शर्व०-न न न न, ऐसा न कहो; मैं सब कुछ हैं। परन्तु 


ह है. 


मुझे घबराओ मत; सममकाकर कहो। झुझे कया करना होगा ? 
५ 


स्कंदगुप्त हि 


रामा-महादेवी देवको की रक्षा करनी होगी, समझा ? क्‍या 
आज इस संपूण गुप्तन्‍साम्नाज्य मे कोई ऐना प्राणो नहीं, जो 
उनको रक्षा करे ! शत्रु अपने विपेले डंक और तोखे डाह सवार 
रहे है। पृथ्वी के नीचे कुमंत्रणाओं का क्ञीण भूकम्प चल 
32 आकलन 

शव०--यहां तो में भी कभी-कभी सोचता था| परन्तु. . . 

मा सु, जिस प्रकार हो सके, महादेवी के द्वार पर 
आओ, मे जाती हैँ । 

( जातो हैं ) 
( एक सेनिक का प्रवेश ) 

सेनिक--नायक ! न जाने क्‍यों हृदय दहल उठा है, जैस 
सनसन करती हुई, डर से, यह आधी रात खिसकती जा रही 
हे! पवन मे गति है, परन्तु शब्द नहीं। “सावधान? रहने का 
>च्द में चिल्लाकर कहता हूँ, परन्तु सुझे ही सुनाई नहीं पड़ता 
* है। यह सब क्या है नायक ॥। 

शबें०--तुम्हारी तलवार कही भूल तो नहीं गई है ९ 

संनिक--स्यान हल्की-सी लगती है, टटोलता हूँ--पर. .. 

शब०--तुम॒ घबराओ भत, तीन साथियों को साथ लेकर 


! धूम, सबको सचेत रक्खो | हम इसी शिला पर है, कोई डरने 
की वात नही । 


( सैनिक जाता है, फाटक खोलकर परणुप्त निकलता है, पीछे भठाक 
और सैनिक ।) कु 53308, 


पुरणुप्त--नायक शबेनाग | 
३० 


प्रथम अंक 


शब०--जय हो कुमार की ! क्‍या आज्ञा है ? 
पुरगुप्त--तुम साम्राज्य को शिष्टता सीखो | 


शब०--छुमार ! दास चिर-अपराधी है । (सिर झुझा लेता है ) 


भटाक-- इन्हें महादेवी के द्वार पर जाने की आज्ञा दीजिये, 
यह विश्वस्त सेनिक वीर है । 
पुरगुप्त-जाओ तुम महादेवी के छ्वार पर । जैसा महाबलाधि- 
कृत ने कहा है, वेसा करना । 
शर्वे०--जैसी आज्ञा | 
( अपने सैनिकों को छाथ लेकर नाता है, दूधरे नायक और सैनिक 
परिक्रमण करते है । ) 
भटाक--कोई भो पूछे तो यह मत कहना कि सम्राट का 
निधन हो गया है। हाँ, बढ़ी हुईं अस्वस्थता का समाचार बतलाना 
ओर सावधान, कोई भो--चाहे वह कुसारासात्य ही क्‍यों न 
हो--भीतर न आने पावे। तुम यही कहना कि परम भरद्वटारक 
अत्यन्त विकल हैं, किसोसे मिलना नहीं चाहते । समभका ? 
नायक--अच्छा ... . . - 
( दोनों जाते है, फाटक बन्द होता है ) 
नायक-- सेनिकों से ) आज बड़ी विकट अवस्था है, भाश्यो ! 
सावधान ! है किट 
( कुमारामात्य, पृथ्वीसेन, महादंडनायक ओर महाप्रतिहार का प्रवेश ) 
महागप्रतिहार--नायक, द्वार खोलो, हम लोग परम भद्टारक 
का दशन करेंगे। 
नायक--प्रभु ! किसीको भीतर जाने की आज्ञा नही है । 


३१ 


स्कंदगुप्त ि | 
महाप्रतिहरु-( चाककर ) आज्ञा |! किसको आज्ञा | 
अवोध ! तू नहीं जानता-सम्राट के अत पुर पर स्वय सम्राट का 


भी उतना अधिकार नहीं जितना महाप्रतिहार का ? शाॉप्र हार 
उन्‍्मुक्त कर । 


तायक--दंड दीजिये प्र, परल्तु द्वार न खुल सकेगा । 
सहाप्रति०--तू क्‍या कह रहा है ! 
नायक--जैसो भीतर से आज्ञा मिलो है | 
कुमारामात्य--( पैर पटककर ) ओह ! 
दंडनायक--विलस्व असकद्य है, नायक ! छार से हट जाओ | 
महाप्रति०--मैं आज्ञा देतः हूँ कि तुम अंतःपुर से हट जाओ 
युवक ! नहीं तो तुम्हें पदच्युत करूँगा । 


नायक--यथारथे है। परन्तु में महाबलाधिकृत की आज्ञा से 
यहाँ हैँ, और में उन्हीं का अधीनस्थ सेनिक हूँ। महाप्रतिहार के 
अंतःपुर-रक्षकेां में मे नहीं 


सहाप्रति०--क्या अंतःपुर पर भी सेनिक नियंत्रण है ९ 
पृथ्वीसेन ! 


हर पृथ्वीसेन--इसका परिणास सयात्तक है। अंतिम शय्या पर 
लेटे हुए सम्राट की आत्मा के कष्ट पहुँचाना होगा । 
सहाप्रतिए--अच्छा, ( छुछ देखकर ) हों, शवनाग कहाँ गया 
नायक--उसे सहावलाधिकृत ने दूसरे स्थान पर भेजा है । 
सहाप्रति०--( छोध से ) सूखे शरवेत्ाग ! 
श्र 


प्रथम अंक 
( अंत्तःपुर से क्षीण क्रंदव ) 
महादंडनायक--( काम लगाकर सुनते हुए ) क्‍या सब शेष 
है। गया ! हम अवश्य भोतर जायेंगे। 


( तीनों तलवार खींच लेते हैं, नायक भी सामने आ जाता है, 
द्वार खोलकर पुरगुप्त ओर भटाक का प्रवेश । ) 


प्रथ्वीसेन--भटाक | यह सब क्या है ९ 

सटाक-( तलवार खोंचऋर सिर से लगाता हुआ ) परम भद्ठा- 
रक राजाधिराज पुरणशुप्त की जय हा ! माननीय कुमारामात्य, 
महादंडनायक और महाप्रतिहार ! साम्राज्य के नियमालुसार, 
शस्त्र अपण करके, परम भद्टारक का अभिवादन कोजिये । 

( तोनों एक दूधरे का मूँद देखते है ) 

महाप्रतिहार--तब क्‍या सम्राट कुमारणशुप्त महेन्द्रादित्य अब 
संसार में नही है ! थे 

भठटाक--नही । 

प्रथ्वीसेन--परन्तु उत्तराधिकारी युवराज स्कदगुप्त ९ 

पुरणुप्त-चुप रहे । तुम लोगों के बैठकर व्यवस्था नहीं 
देनी होगी । उत्ताधिकार का निर्णय स्वयं स्वर्गीय सम्राट कर 
गये हैं. । 

प्रथ्वीसेन--परन्तु प्रमाण ९ 

पुरगुप्त--क्‍्या तुम्हें प्रमाण देना होगा ? 

पृथ्वीसेन--अवश्य । 

पुरगुप्त-महाबलाधिक्ृत ! इन विद्रोहियों को बन्दी करो | 

( भठाक॑ आगे बढ़ता है ) 


33 


स्कद्गुप्त 
पृथ्वीसेन-ठहरों सटाक ! तुम्हारी विजय हुई, परन्तु एक 
अति कह: . 
पुरुप्त--आधी वात सी नहीं, वन्दी करो। 
वि. ए कर 4 छह 
पृथ्वीसिन--कुमार ! तुम्हारे ठुवबंल और अत्याचारी हार्थों 
गुप्त-साम्राज्य का राजदंड टिकेगा नहीं। संभवतः तुम साम्राज्य 
पर विपत्ति का आवाहन करोगे। इसलिये कुमार |! इससे विरत 
हो जाओ | 


पुरगुप्त--महावलाधिऋृत ! क्यो विलम्ब करते हे। १ 
भठाक--आप लोग श्र रखकर आज्ञा मानिये। 


महाप्रतिहार--आततायी ! यह्‌ स्वर्गीय आय्य चन्द्रगुप्त का 
दिया हुआ खज्ड तेरी आज्ञा से नहीं रक्खा जा सकता।! छठा 
अपना शख््र, ओर अपनी रक्षा कर ! 


प्थ्वीसेत--महाप्रतिहार |! सावधान | क्या करते हा १ यह 
अन्तर्विद्रोह का समय नहीं है। पश्चिम और उत्तर से काली 
घटाएँ उसड़ रही हैं, यह समय वल-नाश करने का नही है। 
. आआ।; हस लोग गुप्त-साम्राब्य के विधान के अनुसार चरम ग्रति- 
कार कर । बलिदान देना होगा । परन्तु सटार्क! जिसे तुम खेल 
ससमभकर हाथ से ले रहे हा, उस काल-सजद्भी राष्ट्रतीिति की-- 
प्राण दुकर भी--रक्षा करना । एक नही, सौ स्कंद्गुप्त उसपर 
न्याछावर है। आय्यं-साम्राज्य की जय हा | ( छुरा मारकर गिरणा 
है, महाप्रतिहार और दंडनायक भी वैस्ता ही करते हैं । ) 


पुरगुप्त--पाखड स्वय बिदा हो शय- अच्छा हा हुआ ! 
भसटाक--परन्तु भूल हुई । ऐसे स्वासिभत्त सेवक | 
रेड 


प्रथम अंक: 
पुरगुप्त--कुछ नहीं। ( भोतर जाती है ) 
भटठाकें--तो जायें, सब जायें; ग॒प्त-साम्राज्य के हीरों के-से 


उज्ज्वल-हृद्य बोर युवकों का शुद्ध रक्त; सब मेरी प्रतिहिंसा* 
'राक्षुसी के लिये बलि हो ! 


उ्क्का तन्‍कमववा#8डी २६? 


[ नगरज्पान्त में पथ ] 


है 


सुदूगल--( प्रवेश करके ) किसीके सम्मान-सहित निमंत्रण देने 
'पर, पविज्नता से हाथ-पैर धोकर चौके पर बैठ जाना--एक दूसरी 
-बात है; और भटकते, थकते, उछलते, कूदते, ठोकर खाते और 
लु़कते--हाथ-पैर की पूजा कराते हुए सागे चलना--एक मिन्न 
*बस्तु है। कहां हस और कहाँ यह दोड़, कुसुसपुरी से अवन्ती 
ओर अवन्ती से मूलस्थान ! इस बार की आज्ञा ते पालन 
करता हूँ ; परन्तु, यदि, तथापि, पुनश्च, फिर भी; कभी ऐसी 
आज्ञा मिली कि इस ब्राह्मण ने साष्टांग प्रशाम किया। अच्छा, 
इस वृक्ष की छाया सें बैठकर विचार कर रू कि सेकढ़ों योजन 
लोट चलना अच्छा है कि थेड़ा और चलकर काम कर लेना ! 


( गठरी रख बेठकर ऊँघने लगता है, मात्गुप्त का प्रवेश | 
हि मात्गुप्त-सुके ते युवराज ने सूलस्थान की परिस्थिति 
'सभालने के लिये भेजा, देखता हूँ कि यह सुदूगल भी यहाँ आ 
"पहुंचा ! चजे इसे कुछ तंग कर, थेड़ा मनाविनाद ही सही। 
( कपड़े से मुँह छिपाकर, गठरी खींचऋर चल्तता है ) 


सुदूगल--( उठऋर ) ठहरो भाई, हमारे जैसे साधारण लोग 
अपनी गठरी आप ही ढेते है; तुम्र कष्ट न करो | ( माठ्गुप्त 
चफर काटता है, मुद्गल पीड़े-पीछे दौड़ता है। ) 
., भादृगुप्त-- हृर खड़ा होकर ) अब आगे बढ़े कि तुम्हारी 
ॉग हूटी ! 
सुदुगल---अपनी गठरी बचाने में टॉग टूढना बुरा नहीं, 
३६ 


प्रथम ऋफ 


अपशकुन नहीं । तुम यह न समझना कि हम दूर चलते-चलते 
थक गये हैं । तुम्हारा पीछा न छूटेगा । हम बाह्मण हैं, हमसे 

शाख्रा्थ कर ले । डंडा न दिखाओ | हाँ, मेरी गठरी जो तुम लेते 
है।, इसमें को न-सा न्याय है ? बोलो-- 

माठ्शुप्त--न्याय ? तब तो तुम आप्तवाक्य अवश्य मानते 
होगे । 

मुदूगल--अच्छा तो तकशाखत्र लगाना पड़ेगा ९ 

सातठृगुप्त--होँ ; तुमने गीता पढ़ी होगी ९ 

मुदूगल--हाँ अवश्य, ब्राह्मण और गीता न पढ़े ! 

माठ्शुप्त--उसमें तो लिखा है कि “न त्वेवाह जातु नाउसौ 
न त्वं नेसे ट--न हम हैं न तुम हो, न यह वस्तु है, न तुम्हारी है 
न हमारी ;--फिर इस छोटी-सी गठरी के लिये इतना मूगड़ा ! 

मुदुगल--ओहे ! तुम नहीं समझे । 

सातृगुप्त--क्या ? 

सुदूगल--गीता सुनने के बाद क्‍या हुआ ? 

मातृगुप्त--महाभारत ! 

मुदूगल--तब भइया, इस गठरी के लिये महाभारत का एक 
लघु संस्करण हे। जाना आवश्यक है | गठरी सें हाथ लगाया कि 
डंडा लगा | (डंडा तानता है ) 

मातृ गुप्त-झुह्ल, डंडा मत तानो, में वैसा मू्ख नहीं कि 
सूच्यग्र-भाग के लिये दूध और मधु से बना हुआ एक बंद रक्त 
भी गिराऊँ | 

( गठरी देता है ) 


९ 


स्कदयुप्त 

मुदुगल--अरे कोन ! साहगुप्त ! 

(नेपथ्य में केलाहल ) 

साद्गुप्त--होँ सुदुगल । इधर ते शक्त और हां की सम्सि- 
लित सेना घोर आतंक फैला रही है, चारों ओर विप्लव का 
साम्राज्य है। निरीह भारतीयां की घोर दुदंशा है । 

मुदूगल---और सें महादेवी का संदेश लेकर अबन्ती गया; 
वहाँ युवराज नहीं थे। वलाधिकृनत पर्णदत्त की आज्ञा हुई कि 
महाराजपुत्र गाविन्दगुप्त को, जिस तरह है|, खोज निकाला । यहाँ 
ते विक्ट समस्या है । हम लोग कया कर सकते हैं ९ 





साठ्गुप्त--झुछ नहीं, केवल भगवान से प्राथना | साम्राज्य 
० ७. ६ ० ९ पी पे है 0 
में काई सुतनेवाला नहीं, अकेले युवराज स्कन्द्गुप्त क्या करंगे ? 
( सुदुगल-परन्तु भाई, हम इंश्वर हे।ते तो इन सनुष्यो की केई 
प्राथता सुनते हो नहीं। इनके हर काम में हमारी आवश्यकता 
पड़ती है ! मैं तो घबरा जाता, भला वह ते कुछ सुनते भी हैं। 
सातठशुप्त--नही मुदगल, निरीह प्रजा का नाश देखा नहीं 
जाता | क्या इनकी उत्पत्ति का यही उद्देश था? क्‍या इनका 
जीवन केवल चीटियो के समान किसीकी प्रतिहिसा पूर्ण करने 
के लिये है ? देखों--वह दूर पर बेंधे हुए नागरिक और उत्तपर 
हूणा की नृशंसता ! ओह ! 
सुदूगल--अरे ! हाय रे बाप !! 
सात गुप्त-सावधान ! असहाय अवस्था से प्रार्थना के 
कप र्त्ति रे ल्‍्ः ७ लिप भ पु 
अतिरेक्त और काईइ उपाय नहा, आओ हस लोग भगवान से 
विनती करें-- 
शे८ 


प्रथम अंक 
( दोनों सम्मिलित स्वर से ) 


उतारोगे अब कब भू-भार 


बार-बार क्‍ये कह रक्‍्खा था लूँगा में अवतार 


उमड़ रहा है इस भृतल पर दुख का पारावार 
वाड़व लेलिहान जिह्मा का करता है विस्तार 
प्रलय-पयाघर बरस रहे है रक्तन्श्भ्ु की घार 
मानवता में राक्षतत्व का अब है पूर्ण प्रचार 
पड़ा नहीं कानों में अब तक क़रया यह हाहाकार 
सावधान हो अब तुम जानो में तो चुका पुकार 
( हण-सैनिकों का प्रवेश--वन्दियों के साथ। ) 


हूण--चुप रह, कया गाता है ९ 


मुद्गल-है है, भीख माँगता हूँ, गीत गाता हूँ | आप भी 
कुछ दीजियेगा ९ (दीन मुद्रा बनाता है) 
हूण--( धक्का देते हए ) चल, एक ओर खड़ा हे | हाँ जी, 


# 


इन दुष्टों ने कुछ देना अभो स्वीकार नहीं किया, बड़े कुत्ते हैं ! 


नागरिक--हम निरीह प्रजा हैं। हम लोगों के पास क्‍या 
रह गया जे। आप लोगों के दे । सैनिकों ने तो पहले ही छठ 
लिया है । 

हुण-सेनापति-तुम लोग बाते बनाना खत जानते हे।। 
अपना छिपा हुआ धन देकर प्राण बचाना हे तो शीघ्रता करो, 
नहीं ते गरम किये हुए लोहे प्रस्तुत है--कोढ़े और तेल में तर 
कपड़े भी । उस कष्ट का स्मरण करो | 


द्र्‌९ 


स्कन्द्गुप्त 
नागरिक-पआ्राण ते तुम्हारे हाथों में है, जब चाहे ले ले । 
हूश-सेनापति--( कोड़े से मारता हुआ ) उस तो लेदही लेंगे; 
पर, धन कहाँ है ९ 
नागरिक - नहीं है निरदूय ! हत्यारे | कह दिया कि नहीं है। 
हण-लेनापति--( सैनिक से ) इनके बालकों के तेल से 
भीगा हुआ कपड़ा डालकर जला दो और ख्लियों के गरम लोहा 


कु कि. 


से दागा । 
दियाँ--हे नाथ ! 
हमारे निबलो के वल कहाँ हे। 
हमारे दीन के सम्बल कहाँ हो 
पुरुष--नहीं हे। नाम ही बस नाम है क्‍या 
सुना केवल यहाँ हे। या वहॉ हे 
स्ियाँ--पुकारा जब किसीने तब सुना था 
भला विश्वास यह हमके कहो हो 
( ज्िये। का पकड़कर हण खीचते हैं ) 
, आरशुप्त-हे प्रभु ! 
हमे विश्वास दो अपना बना लो 
सदा स्वच्छन्द हां--चाहे जहाँ हों 
.. ईन निरीहें के लिये आराण उत्सगे करना घस्म है। कायरो ! 
ख्ियों पर यह अत्याचार !! 
( तलवार से बंघन काठ्ता है । लपकते हुए एक सन्यासी का प्रवेश । ) 
है९० 


प्रथम अंक, 


संन्यासो--साधु ! वीर ! सम्हलकर खड़े हे। जाआ-- 
भगवान पर विश्वास करके खड़े हे । 

मुद्गल--( पहचानता हुआ » जय हो; महाराजपुत्र गविन्दु- 
गुप्त को जय हो 

( सब उत्साहित होकर भिड़ जाते है ; हुण-सेनिक भागते हैं । ) 

गोविन्द०--अच्छा सुदुगल ! तुस यहा कैसे ? और युवक !' 
तुम कीन हो १ 

माठ्गुप्त--थुवराज स्कंदगुप्त का अडचर । 

मुदूगल--वीर-पुज्गञव ! इतने दिना पर दशेन भी हुआ तो 
इस वेष से ! 

गोविन्द०-- सुदूगल ! क्या कहेँ। स्केंद कहाँ है ९ 

मात्गुप्त--उज्जयिनी में । 

गोविन्द ०--अच्छा है; सुरक्षित है। चलो, ढुगे में हमार 
सेना पहुँच चुकी है, वहाँ विश्राम कर्रा ! यहाँ का अबन्ध करके 
हमको शीघ्र आवेश्यक काय्य से मालंव जाना है। अब हूणा के 
आतंक का डर नहीं । 

सब--जय हो राजकुमार गोविन्दगुप्त की 

गोविन्दु०-पुष्यमित्रो के युछू का क्‍या परिणाम हुआ १ 

माठत्गुप्त--विजय हुईं । 

गोविन्द ०--और सालव का | 

(४ /३ 
मुद्गल--युवराज थोड़ी सेना लेकर बन्धुवस्सा की सहायता: 


[8०] 


लिये गये हे । 
४१ 


केद्सुप्त 

गोविन्द०--( ऊपर देखकर ) वीरपुत्र है। स्कन्द | आकाश के 
देवता और प्रथ्वी की लक्ष्मी तुम्हारी रक्षा करें। आय्ये-साम्राज्य 
के तुस्ही एक-मात्र भरोसा हो । 

सुदूगल--तब सहाराज-पुत्र ! बड़ी भूख लगी है। शभाण 
जचते ही भूख का धावा हो गया, शीघ्र रक्षा कीजिये ! 

गोविन्द०--हाँ-हाँ, सब लोग चलो | 


[ सब बाते हैं ] 


[ अवन्‍्ती का दुर्ग |: 
( देवसेना, विजया, जयमाला ) 
विजया--विजय किसकी होगी, कोन जानता है। 


जयमाला--तुमको केवल अपने घन की रक्षा का इतना 
ध्यान है । 

देवसेना--और देश के सान का, स्थ्रियों की प्रतिष्ठा का, 
बच्चों की रक्षा का कुछ नही । 

विजया--( संकुचित होकर ) नहीं, मेरा अभिमप्राय यह 
नहीं था। 

जयमाला--परन्तु एक उपाय है । 

विजया--वह क्या ९ 

जयमाला--रक्षा का निश्चित उपाय | 

देवसेना--तुम्हारे पिता ने तो उस समय नहीं माना, न 
सुना, नहीं तो आज इस भय का अवसर ही न आता । 

जयमाला--तुम्हारों अपार धन-राशि में से एक छ्ुद्र अंश, 
बही यदि इन धच-लोरछुप खझगालों को दे दिया जाता तो" 

विजया--किन्तु इस प्रकार अर्थ देकर विजय खरीदना तो 
देश की वीरता के प्रतिकूल है । 

जयमसाला--ठहरो, कोई आ रहा है । 

( बन्धुवर्म्मा का प्रवेश 2) 

बंधुवस्मो--प्रिये ! अभी तक युवराज का कोई संदेश नहीं 
मिला। संभवतः शक ओर हूणों की सम्मिलित वाहिनी से आज 
छुग को रच्ता न कर सकू गा। 

254 


स्कंदगुप 

जयमाला-सनाथ ! तव क्‍या सुझे स्कंदशुप्त का अभिनय 
करना होगा ? क्‍या मालवेश को दूसरे को सहायता पर हा राज्य 
करने का साहस हुआ था जाओ प्रश्चु) सना लेकर सिह-विक्रस 
से सेना पर टूट पड़ी | दुर्ग-रक्षा का भार में लेती हू । 

विजया--महाराज ! यह केवल वाचालता है। दुर्ग-रक्षा का 
सार सुयाग्य सेनापति पर होना चाहिये । 

वन्धुवस्सो--घवराओ मत श्रेष्ठि-कन्ये ! 

जयमसाला-स्वणु-र्त की चसक देखनेवाली आँखें 
विजली-सी तलवारों के तेज को कव सह सकती है। श्रेष्ठि-कन्ये ! 
हम जत्राणी है, चिरसद्विनी खड़़लता का हम लोगो से चिर- 

स्नह 

वन्धुवस्मो-प्रिये ! शरणागत ओर विपन्न की मय्योदा 
रखती चाहिये। अच्छा, दुगे का तो नहीं; अंतःपुर का भार 
तुम्हारे ऊपर है। 

देवसेना_-भइया; आप निश्चिन्त रहिये । 

चंधुवस्मा--भीस दुग का निरीक्षण करेगा ; में जाता हूँ । 

( जाता है ) 

विजया--भयानक युद्ध समीप हो जान पड़ता है, क्‍यों 
राजकुमारी ! 

देवसेना--तुम वीणा ले लो तो सें कुछ गाऊँ। 

विजया-हँसी न करो राजकुमारी ! 

जयमाला--बुरा क्या है १ 

विजया--युद्ध और गान ! 

घट 


प्रथम अंक 


जयमाला--युद्ध कया गान नहीं है ? रुद्र का खझूंगीनाद, 
रवी का त्ांडवनृत्य, और शख्रों का वाद्य मिलकर भेरव-संगीत 
को सृष्टि होती है। जीवन के अंतिम दृश्य को जानते हुए, 
: अपनी आँखों से देखना, जीवन-रहस्य के चरम सौन्दर्य की 
नग्न और भयानक वास्तविकता का अनुभव केवल सच्चे वीर- 
' हृदय को होता है। ध्वंसमयी महामाया प्रकृति का वह निरंतर 
. संगीत है | उसे सुनने के -लिये'हृदय में साहल और बल एकत्र 
 करो। अत्याचार के श्मशात्र में ही सड्डल का, शिव का, सत्य 


_ सुन्दर संगीत का समारम्भ होता है । 
देवसेना--तो भाभो) में तो गाती हूँ। एक बार गा छ, 
हमारा प्रिय गान फिर गाने को मिले या नहीं । 
जयमाला--तो गाओ न । 
विजया--रानी ! तुम लोग आग की चिनगारियाँ हो, या 
स्लरी हो? देवी ! ज्वालामुखी की सुन्दर लठट के सभान तुम 
लोग ६४७ कि 25 आह 2 आज 
जयमाला--सुनो, देवसेना गा रही है-- 
( गाना ) 
भरा नेनों मे मन में रूप 
किसी छलिया का अमल अनूप 
जल-थल, मारुत, व्योम मे, जो छाया है सव ओर 
खोज-खोजकर खो. गई में, पागल - परम - विभोर 
भाँग से भरा हुआ यह कूंप 
भरा नेनों में मन में रूप 


मु 


है. 8] 


स्कंदगुप्त 
धमनी फी तंत्री बजी, तू रहा लगाये कान 
बलिहारी मैं, कौन तू है मेसश जीवन + प्रान 
खेलता जेसे. छाया - धूप । 
भरा नेनों में मन में रुप॥ 
( छहसा भीमवर्म्मा का प्रवेश ) 
भीस--साभी, ढुगे का द्वार टूट चुका है। हम अंतः:पुर कै 
बाहरी द्वार पर है | अब तुस लोग प्रस्तुत रहना । 
जयसाला--डनका क्या समाचार है ९ 
भीस--अभी कुछ नहीं मिला । गिरिसंकट से उन्हान 
शत्रओ के माग को रोका था, परन्तु दूसरी शत्र-सेना गुप्त मागे से 
आ गई। में जाता हूँ, सावधान ! 
( जाता है ) 
( नेपथ्य में कोलाहल, भयानक शब्द ) 
विजया--महारानी ! किसी सुरक्षित स्थान में निकल चलिये। 


जयमाला--( छुरी निकालकर ) रक्षा करनेवाली तो पास 
है, डर क्‍या, क्यो देवसेना ? 


देवसेना--भाभी ! श्रेष्टि-कन्या के पास नहीं है, उन्हें भी दो । 
विजया--न न न, से लेकर क्या करूँगी, भयानक ! 


देवसेना--इतनी सुन्दर वस्तु क्या कलेजे में रख लेने के 
योग्य नही है ९ 


विजया--( धड़ाके का शब्द सुनकर ) ओह ! तुम लोग बड़ी 
बनिदेय हो ! 


जयमाला--जाओ, एक ओर छिपकर खड़ी हो जाओ ! 
४६ 


प्रथम अंक 
( रक्त से लपपथ भीम का प्रवेश ) 


भीम--भाभी ! रक्षा न हो सकी, अब तो में जाता हूँ। 
वीरों के बरंणीय सम्मान को अवश्य प्राप्त करूँगा | परन्तु 

जयमाला--हम लोगों को चिन्ता न करो । वीर ! ख्लियो की, 
ब्राह्मणों की, पीड़ितों ओर अनाथों की रक्षा में प्राण-विसजन 
करना, क्षत्रिय का धम्स है। एक प्रलय की ज्वाला अपनी 
तलवार से फेला दो ! भैरव के झंगीनाद के समान प्रबल 
हुंकार से शत्र-हृदय कँपा दो । वीर ! बढ़ी, गिरो तो मध्या 
भीषण सूय्ये के ससान (--आगे, पीछे, सर्वत्र आलोक और 
जज्ज्वलता रहे ! 

( भीम का प्रस्थान, द्वार का टूटना, विजयी शत्रु-सेनापति का प्रवेश, 
भीम का आकर रोकना, गिरते-गिरते भीम का जयमाला ओर देवसेना 
की सहायता से युद्ध । सहसा स्कंदगुप्त का सैनिकों के साथ प्रवेश | ) 

£ युवराज स्कंदगुप्त की जय ! 
(शक ओर हसण स्तम्भित होते हैं ) 

स्कंद०--ठहरो देवियों ! स्कंद के जीवित रहते ख््रियों को 
शलत्र नहीं चलाना पड़ेगा । 

( युद्ध ; सब पराजित ओर बंदी होते हैं। ) 

विजया--( भाँककर ) अहा ! केसी भयानक - ओर सुन्दर 
मूत्ति है 

स्कन्द०---(,विजया को देखकर ) यह--यह कान ९ 


- [ पटाक्षेप ] 


है 
ड़ 


दिर्ताय अंक 
[ मालव में शिप्रा-तटन्ऊुंज | 
देवसेना--इसी प्रथ्वी पर है ओर अवश्य है। 

विजया--कहाँ राजकुमारी ? संसार में छल, प्रवदूचला और 
हत्याओ को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पढ़ता है कि 
थह जगत्‌ ही नरक है। ऋृतन्नता और पाखंड का साम्राज्य 
यहीं है। छीना-कपटी, नोच-खसोट, मुँह में से आधी रोटी छीन 
कर भागनेवाले विकट जीव यहीं तो है । श्मशान के कुत्तों से 


भी बढ़कर मनुष्यो की पतित दशा है। 


देवसेना--पवितन्रता की माप है मलिनता; सुख का 
आलोचक है दुःख, पुएय की कसौटी है पाप। विजया ! 
आकाश के सुन्दर नक्षत्र आँखो से केवल देखे ही जाते हे; वे 
कुसुम-कोमल है कि वजञ्ञ-कठोर--कौन कह सकता है। आकाश 
में खेलती हुई कोकिल की करुणामयी तान का कोई रूप है या 


' नहीं, उसे देख नहीं पाते । शतद्ल और पारिजात का सौरस बिठा 


रखने की वस्तु नहीं। परन्तु संसार मे ही नक्षत्र से उज्ज्वल-- 
किन्तु कोमल--स्वर्गीय संगीत की प्रतिमा तथा स्थायी कौत्ति- 
सौरभ वाले आ्राणी देखे जाते हैं । उन्हीं से स्वर्ग का अनुसान कर 
लिया जा सकता है। 
विजया--होंगे, परन्तु मेंने नहीं देखा। 
४८ 


द्वितीय अंक 

देवसेना--तुमने सचमुच कोई ऐसा व्यक्ति नही देखा ? 

विजया--नहीं तो-- 

देवसेना-- समझकर कहो | 

विजया--हाँ, समझ लिया है 

देवसेना--क्या तुम्हारा हृदय कही पराजित नहीं हुआ १ 
विजया | विचारकर कहो, किसी भी असाधारण महत्त्व से 
तुम्हारा उदंड हृदय अभिभूत नहीं हुआ ९ यदि हुआ है तो वही 
स्वग है । जहाँ हमारी सुन्दर कल्पना,आदश--का...त्तीड़ ब्रताकर 
विश्राम करती है, बही-स्वगे-है।.वही विहार का, वही प्रेम करने 
का स्थल स्वर्ग है, और वह इसी लोक में मिलता है। जिसे नहीं 
मिला, वह इस संसार में अभागा है | 

विजया--तो राजकुमारी, में कह दूँ ? 

देवसेना--हाँ, हाँ, तुम्हें कहना ही होगा। 

विजया--मुझे तो आज तक किसीको देखकर हारना नहीं 
पड़ा | हाँ, एक युवराज के सामने सन ढीला हुआ, परंतु में 
कुछ राजकीय प्रभाव भी कहकर टाल दे सकती हूँ । 

देवसेना--नहीं विजया ! वह टालने से, बहला देने से, नहीं 
हो सकता । तुम भाग्यवती हो, देखो यदि वह स्वग तुम्हारे हाथ 
लगे । ( सामने देखकर ) अरे लो ! वह युवराज आ रहे हैं। हम 
लोग हट चलें । 

( दोनों जाती हैं, स्कंदगुप्त का प्रवेश, पीछे चक्रपालित ) 

स्कंद०--बिजय का ज्ञर्पिक उल्लास हृदय की भूख मिंठा 

४५९ 


स्कद्गुप्त 


देगा ? क्रमी नहीं | वीरों का भी क्‍या ही व्यवसाय है, कया ही 
उन्‍्मत्त भावना है। चक्रपालित ! संसार में जो सबसे मद्दान्‌ हे; 
वह क्‍या है ? त्याग। त्याग का ही दूसरा नाम महत्त्व है। प्राणों 
का मोह त्याग करना वीरता का रहस्य है । 


चक्र०--युवराज ! संपूर्ण संसार कम्मश्य वीरों की चित्र- 
शाला है। वीरत्व एक स्वावलम्बी गुण है। प्राणियों का विकास 
संभवतः इसी विचार के ऊर्जित होने से हुआ है । जीवन मे वहीं 
तो विजयी होता है, जो दि्नि-रात “ युद्ध्यरव विगतज्वरः ” 
का शंखनाद सुना करता है। 


स्कंद०--चक्र | ऐसा जीवन तो विडम्धना है, जिरूके 
लिये दिन-रात लड़ना पड़े। आकाश में जब शीतल शुभश्र शरद्‌- 
शशि का विलास हो, तब भी दाँत-पर-दाँत रखे, सुद्ठियों को 
बॉघे हुए, लाल ओंखो से एक दूसरे को घूरा करे ! वसंत के मनो- 
हर प्रभात में, निभ्चत कगारों में, चुपचाप बहनेवाली सरिताओं 
का स्रोत गरस रक्त बहाकर लाल कर दिया जाय ! नहीं, नहीं 
चक्र! मेरी सममत में मानव-जीवन का यही उद्देश नहीं है । 


कोई ओर भी निगृढ रहस्य है, चाहे उसे मैं स्वयं न जान 
सका हूँ । 


चक्र०--सावधान युवराज ! प्रत्येक जीवन में कोई बड़ा 

कास करने के पहले ऐसे ही ढुवंल विचार आते है; वह तुच्छ 

प्राणो का मोह है । अपने को रगड़ों से अलग रखने के लिये, 

अपनी रक्षा के लिये, यह उसका ह्ष॒द्र प्रयस्त होता है। अयोध्या 

चलने के लिये आपने कब का समय निश्चित किया है ९ राज- 
७७ 


द्वितीय अंक 


सिंहासन कब तक सूना रहेगा ? पुष्यमिन्नों और शकों के युद्ध 
समाप्त हो चुके है । 
स्कंद०--तुम झुभे उत्तेजित कर रहे हो । 
चक्र०--हाँ युवराज ! मुझे यह अधिकार है | 
स्कंद०--नहीं चक्र ! अम्वमेघ-पराक्रम स्वर्गीय सम्राट कुमार- 
गुप्त का आसन मेरे थाग्य नहीं है।, मे झगड़ा करना नहीं 
चाहता, मुर्मे सिंहासन न चाहिये । पुरगुप्त को रहने दो। मेरा 
अकेला जीवन है। मुझे *** 
चक्र०--यह नहीं होगा। यदि राज्यशक्ति के केन्द्र में ही 
अन्याय होगा; तब तो समग्र राष्ट्र अन्यायों का क्रीड़ा-स्थल हो 
जायगा। आपको सबके अधिकारों की रक्षा के लिये अपना 
अधिकार सुरक्षित करना ही पड़ेगा । 
( चर का आना, कुछ संकेत करना, दोनों का प्रस्थान, देवलेना ओर 
विजया का प्रवेश । ) 
विजया--यह्‌ क्‍या राजकुमारी ! युवराज तो उदासीन हैं। 
देवसेना--हाँ विजया, युवराज की मानसिक अवस्था कुछ 
बदली हुई है । 
विजया--दुबंलता इन्हें राज्य से हटा रही है । 
देवसेना--कहीं तुम्हारा सोचा हुआ , युवराज के महत्त्व 
का परदा तो नहीं हटा रहा है ? क्‍यों विजया ! वैभव का अभाव 
तुम्हें खटकने तो नहीं लगा ९ 
विजया--राजकुमारी ! तुम तो निदय वाक्यवाणों का अयोग: 
कर रही हो । 
५१ 


स्कंद्शुप्त 

देवसेचा--लहीं विजया, बात ऐसी है। धनवानों के हाथ 
में माप ही एक है। वह विद्या; सौन्दय्यं, चल; पविन्नता, और 
तो क्‍या; हृदय भी उसीसे सापते हैं। वह माप है--उनका 
ऐश्वय्य । 

विजया-परन्तु राजकुसारी ! इस उदार दृष्टि से वो 
चक्रपालित क्‍या पुरुष नहीं है? है अवश्य । वीर हृदय है, प्रशस्त 
वक्ष है, उदार मुखमंडल है ! 

देवसेना-और सबसे अच्छी एक वात है.। तुम सममती 
हो कि वह महत्त्वाकांक्षी है । उसे तुम अपने वेभव से क्रय कर 
सकती हो, क्यो ? भाई, तुमको लेना है, तुम स्वयं समझ लो, 
मेरी दलाली नहीं चलेगी । 

विजया--जाओ राजकुमारी ! 

देवसेना--एक गाना सुनोगी ९ 

विजया-महारानी खोजती होंगी, अब चलना चाहिये। 

हि देवसेला--तव तुम अभी प्रेम करने का, मनुष्य फेंसाने का; 

ठीक सिद्धांत नहीं जानती हो । 

विजया-क्ष्या ९ 


देवसेंना--चये ढंग के आभूषण, सुन्दर चसन, भरा हुआ 

यौवन--यह सब तो चाहिये ही, परन्तु एक वस्तु और चाहिये। 

ऊुपुरुष को वशीभूत करने के पहले चाहिये एक धोखे की टट्टी । 

मेरा तालय्य है--एक वेदता अनुभव करने का, एक विहलता का, 

' अभिनय उसके मुख पर रदे--जिससे कुछ आडी-तिरछ्ी रेखाएँ 

मुख पर पढ़ें, ओर सूखे सनुष्य उन्हीं को पढ़ लेने के लिये 
प्र 


द्वितीय अंक 
ज्याकुल हो जाय | और फिर दो बूँद गरम-गरस आँसू और इसके 


' बाद एक तान वागीश्वरी की-करुण-कोमल तान | बिता इसके 


|; क् 
“सब रंग फोका-- 
बिजया--उस समय भी गान 
देवसेना--विना गान के कोई कार्य्य नहीं । विश्व के 
प्रत्येक कम्प में एक ताल है। आहा ! तुमने सुना नहीं ! टुभाग्य 
तुम्हारा | सुनोगी ? 
विजया--राजकुमारी ! गाने का भी रोग होता है. क्‍या ९ 
हाथ को डँचे-लीचे हिलाना, मुंह बनाकर इक भार प्रकट करना, 
फिर सिर को इस जोर से हिला देना जैसे उस तान से शून्य 
में एक हिलोर उठ गई ! 


,. ."' देवसेना--विजया ! प्रत्येक परमाणु के मिलन में एक 


सम है; अत्येक हरी-हरी पत्ती के हिलने में एक लय है। 


4६०००: 


मनुष्य ने अपना स्वर विक्ृत कर रक्‍्खा है; इसीसे तो उसका 
स्वर विश्व-्वीणा में शीघ्ष नहीं मिलता। पांडित्य के मारे 
जब देखो, जहाँ देखो, बेताल-बेसुरा बोलेगा | पक्षियों को देखो, 
उनकी “ चहचह ” “ कलकल ” ' छलछल ? मे, काकली में; 
रागिनी है । 

विजया--राजकुमारी; क्या कह रही हो ? 

देवसेना--तुमने एकांत टीले पर; सबसे अलग; शरद के सुन्दर 
प्रभात में फूला हुआ; फूलों से लदा हुआ; पारिजात-बृक्ष देखा है ? 
विजया--नहीं तो । 
देवसेना--उसका स्वर अन्य वुक्षों से नहीं मिलता । वह 

ध्३्‌ 


् न 
स्कंदगुप्त 


अकेले अपने सोरभ को तान से दक्षिण-पवन में कम्प उत्पन्न 
करता है, कलियों के चटकाकर ताली वजाकर, भ्ूम-मकूमकर 
नाचता है | अपना नत्य, अपना संगीत, वह स्वयं देखता है 
सुनता है। उसके अंतर में जीवन-शक्ति वीणा वजादी है । 
वह बड़े कोमल स्वर से गाता है-- 


घने प्रेम-तरु-तले 
वेठ छाँह लो भव-आतप से तापित और जले 
छाया है विश्वात की श्रद्धा-प्तरिता-कूल 
! सिंची ऑँसुओं से झदुल है परागमय धूल 
यहाँ कोन जो छुले 
फूल चू पड़े वात से भरे हृदय का घाव 
मन की कथा व्यथा-मरी वैठों सुनते जाव 
कहाँ जा रहे चले 
पी लो छवि-रस-मराधुरी सींचो जीवन-बेल 
जी लो सुख से आयु-भर यह माया का खेल 
मिलो स्नेह से गले 
घने प्रम-तरु-तले 
( उन्धुवर्म्मा का प्रवेश ) 
देवसंना--( संकुचित होती-सो ) अरे| सइया-- 
उशुवस्मो-दुवसेना, तुझे गाने का भी विचित्र रोग है ! 
इवसना->ररोग तो एक-न-एक सभी को लगा हें! परन्तु 
>ह राग अच्छा हैं, इससे कितने रोग अच्छे किये जा सकते हैं । 
वधुवम्सा--पगली । जा देख 
कोई समाचार आया है। बह 


ण्ठे 


द्वितीय अंक 

देवसेना--तब उन्हें जाना आवश्यक होगा। भाभी बुलाती 
है क्‍या १ 

बंधुवस्मो--हों, उनकी विदाई करनी होगी । संभवतः 
सिंहासन पर बेठने का--राज्यामिषेक का प्रकरण होगा। 

देवसेना--क्या आपको ठीक नहीं मातम '९ 

बंधुवस्मा--नही तो; सुमसे कुछ कहा नहीं। परन्त भोंहों 
के नीचे एक गहरी छाया है, वात कुछ समम में नहीं आती । 

देवसेना--भइया, तम लोगों के पास बातें छिपा रखने का 
एक भारी रहस्य है।जी खोलकर कह देने में पुरुषों की 
भय्यादा घटती है। जब तम्दारा हृदय भीतर से क्रंदून करता है, 
तब तुम लोग एक मुस्कराहुट से उसे ठाल देते हो--यह बड़ी 
प्रवश्चना है । 

वंधुवम्मो--( हँसकर ) अच्छा जा उधर, उपदेश मत दे । 

( विजया ओर देवसेना जाती हैं ) 

वंधुवस्मो--उदार-वीर-हृदय, देवोपस-सोन्द्य्ये, इस आय्यो 
बत्त का एकमात्र आशा-स्थल इस युवराज का विशाल मस्तक 
कैसी वक्र लिपियों से अक्लित है ! अंतःकरण में तीत्र अभिमानच 
के साथ बिराग है। आँखों में एक जीवन-पूण ज्याति है । 
भविष्य के साथ इसका युद्ध होगा, देखें कौन बिजयी होता 
है। परन्त में प्रतिज्ञा करता हैँ कि अब से इस वीर परोपकारी के 
लिये मेरा सबस्‍्व अर्पित है । चलू -- 


[ जाता है | 


[ मठ में प्रपंचबुद्धि, भगाक और शबैनाग 
प्रपंच०--बाहर देख लो, कोई है तो नहीं । 
( शर्व॑ जाकर लोद आता हैं ) 

शर्व०--कोई नही, परन्तु आप इतना चौकते क्‍यों हैं ? मे 
ते कभी यह चिन्ता नही करता कि कौन आया है या आवेगा ।! 

प्रपंच 7--तुम नहीं जानते । 

शव ०--नही श्रमण ! में खद्ग हाथ मे लिए प्रत्येक भविष्यत्त्‌ 
की प्रतीक्षा करता हूँ । जो कुछ होगा, वही निबटा लेगा | इतने डर 
की; घबराहट की, आवश्यकता नहीं। विश्वास करना और 
देना, इतने ही लघु व्यापार से संसार को सब समस्याएँ हल 
हो जायँगी। 

प्रपंच०--प्रत्येक भित्ति के किवाड़ों के कान होते हैं; समस्त 
लेना चाहिये, देख लेना चाहिये | 

शव ०--अच्छी बात है, कहिये । 

भटाक--तुम पहले चुप तो रहो । 


( शर्तें चुप रहने की मुद्रा घनाता है ) 


५ अपंच०--धम्स को रक्षा करने के लिये प्रत्येक उपाय से काम: 
लेना होगा। 

शव०-मिश्षु-शिरोमणे ! वह कोन-सा धर्म है, जिसकी 
हत्या हे रही है ९ 

प्रपंच०--यही हत्या रोकना, अहिंसा, गौतम का धस्म है। 
यज्ञ को बलियों को रोकना, करुणा और सहानुभूति की प्रेरणा 
से कल्याण का प्रचार करना । हों, अवसर ऐसा है कि हम वह 

०६ 


ट्वितीय अंकः 

काम भी कर जिससे तम चोक उठों । परन्त नहीं, वह तो तसहें 
करना ही होगा । 

भटाक--क्या ९ 

प्रपंच०--महादेवी देवकी के कारण राजधानी में विद्रोह की 
संभावना है, उन्हें संसार से हटाना होगा | 

शव०--ठोक है, तभी आप चोंकते हैं, और तभी धर्म की रक्षा 
हागी। हत्या के द्वारा हत्या का निषेध कर लेंगे-कक्‍्यों ? 

भटाक--ठहरो शव | परन्त महास्थविर ! क्या इसकी अत्यंतः 
आवश्यकता है ९ 

प्रपच०--नितांत । 

शर्वे०--बिना इसके काम ही न चलेगा, धम्मे हो न 
प्रचारित होगा ! 

प्रपंच०--और यह काम शव को करना होगा । 

शवे०--(चैंककर) मुझे ? में कदापि नहीं *“ 

भटाक--शीघ्रता न करो शव ! भ्रविष्यत के सुखों से इसकी 
तुलना करो । 

शर्व०--नाप-तौल में नहीं जानता, मुझे शत्रु दिखा दो में 
भूखे भेड़िये की भांति उसका रक्तपान कर लूँगा, चाहे में ही क्‍यों 
भटाक-मेरी आज्ञा । 
शबे०--तम सैनिक हो, उठाओ वलचार | चलो, दो सहख 


शन्नुओं पर हम दो मलुष्य आक्रमण करें। देखें; मरने से कोन 
(9 


स्कंद्गुप्त 


भागता है। कायरता ! अबला सहादेवी की हत्या ! किस प्रलोभन 
में तम पिशाच बन रहे हे १ 


भटार्क--सावधान श्ब ! इस चक्र से तुम नहीं निकल 
सकते । या तो करो या मरो | में सज्जनता का स्वांग नहीं ले 
सकता, मुझे वह नहीं भाता । मुझे कुछ लेना है, वह जैसे 
सिलेगा-लेंगा । साथ दोगे तो तम भी लाभ में रहोगे। 


शव०--नहीं भटाक ! लाभ ही के लिये मनुष्य सब कास 
करता; तो पशु बना रहना ही उसके लिये पयाप्त था। सुझसे यह 
काम नहीं होने का ! 


प्रपंच०--ठहरो भटाक ! मुझे पूछने दो । क्‍यों शव ! तुसने 
जो यह अस्वीकार किया है, वह्‌ क्‍यों ९ पाप समझकर ? 
शव ०--अवश्य । 


प्रपंच०--त॒म किसी कस्से को पाप नहीं कह सकते, वह अपने 
नप्न रूप में पूण है, पविन्न है। संसार ही युद्धक्षेत्र है, इसमें परा- 
जित होकर शख््र अपेण करके जीने से कया लाभ ? तुम युद्ध में 


हत्या करना धस्स सममते हे।, परन्तु दूसरे स्थल पर अधस्से ९ 
शव ०-हहां । 


प्रपच०--सार डालना; प्राणी का अन्त कर देना, दोनों 
स्थलों में एक-सा है, केवल देश और काल का भेद है। यही न ९ 
शव०--हाँ, ऐसा ही तो । 


प्पच०--तब तुम स्थान ओर समय की कसौटी पर कर्म को 
परखते है।, इसीसे कम्म के अच्छे और बुरे होने की जॉच करते हो। 
५८ 


द्वितीय अंक 

शव ०--दूसरा उपाय क्‍या ९ 

प्रपंच०--है क्‍यों नहीं । हम कस की जाँच परिणाम से करते 
हैं, और यही उद्देश तुम्हारे स्थान और समयवाली जाँच का होगा। 

शवं०-परन्तु जिसके भावी परिणाम को अभी तुम देख न 
सके, उसके बल पर तुम केसे पूर्व काय्ये कर सकते हो ९ 

प्रपंच०--आशा पर, जो र्ृष्टि का रहस्य है। आओ इसका 
एक प्रत्यक्ष उदाहरण दें । ( मदिरा का पात्र भरता है, स्वयं पीकर 
सबको पिलाता है; वार-बार ऐसा करता है। ) 

प्रपंच०--क्‍्यों, केसी कड़वी थी ९ 

शव ०--ँह, हृदय तक लकीर खिंच गई | 

भटाक--परन्तु अब तो एक आनन्द का ख्रोत हृदय में बहने 
लगा है । 

शर्ब०--में नाच ९ ( उठना चाहता हे ) 

प्रपंच०--ठहरो, मेरे साथ । 

(उठकर दोनों नाचते हैं, अकस्मात लड़खंडाकर प्रपंचबुद्धि गिर 
पड़ता है, चोद छगती है । ) 

भठाके--अरेरे | ( सग्हलकर उठाता है ) 

अपँच०--छुछ चिन्ता नहीं। 

शबे०--बड़ी चोट आई। 

प्रपच०--परन्तु परिणाम अच्छा हुआ | तुम लोगों पर भारी 
विपक्ति आनेबाली थी । 

भटठाके--बह ठल गई क्‍या ६ (आश्चर्य से देखता है ) 

प्‌ 


स्कदगुप्त 

शवं०--क्यों सेनापति | टल गई ९ 

प्रपंच०--उस विपत्ति का निवारण करने के लिये हो मैंने 
यह कष्ट सहा । मै तुम लोगों के भूत, भविष्य और वतंमान का 
नियामक, रक्षक और द्रष्टा हूँ । जाओ, अब तुम लोग निर्भय हो । 

भठाक--धन्स् गुरुदेव ! 

शवं०--आशख्रय्य ! 

बे भटाक--शंका न करो, श्रद्धा करो ; श्रद्धा का फल भिलेगा । 

शव | अब भी तुम विश्वास नही करते ९ 

शवे०--करता हूँ । जो आज्ञा होगी वही करूँगा । 

प्रपंच०--अच्छी बात है, चलों-- 

( सब जाते हैं, घातुसेन का प्रवेश ) 

धातुसेन--मे अभी यहीं रह गया, सिंहल नहीं गया। इस 

रहस्यपूर्णो अभिनय को देखने की इच्छा वलवती हुई | परन्तु 


मुद्गल तो अभी नहीं आया, यहीं तो आने को था। (देखता हे ) 
लो, वह आ गया ! 


हट 


मुदुगल--क्यों भइया, तुम्हीं धातुसेन हो ? 
धातु०--( दँसकर ) पहचानते नहीं ९ 
सुदूगल--किसीकी धातु पहचानना वड़ा असाधारौण कार्य 
है। तुम किस धातु के हो ९ 
_ धातु०--भाई सेना अत्यंत घन होता है, बहुत शीघ्र गरम 
होता है, और हवा लग जाने से शीतल हो जाता 


तृग जाने जाता है। मूल्य भी 
. चहुत लगता है । इतने पर भी सिर पर वोम-सा रहता है। में 
द्6 


द्वितीय अंक 

सोना नहीं हूँ, क्योंकि उसकी रक्षा के लिये भी एक धातु की 
आवश्यकता होती है, वह है “लोहा? । 

मुदुगल--तब तुम लोहे के हो ९ 

धातु०--लोहा बड़ा कठोर होता है। कभी-कभी वह लोहे को 
भी काट डालता है। उहूँ, भाई ! में तो मिट्टी हँ--मिट्टी, जिसमें 
से सब निकलते हैं। मेरी समम में तो मेरे शरीर की धातु मिट्टी 
है, जी किसीके लोभ की सामग्री नहीं, और वास्तव में उसी- 
के लिये सब धातु अख्न बनकर चलते हैं, लड़ते है, जलते हैं, 
इटते हैं, फिर मिट्टी होते हैं ! इसलिये मुझे मिट्टी सममे-घूल 
सममो | परन्तु यह तो बताओ, महादेवी की मुक्ति के लिये क्‍या 
उपाय सोचा ९ 

मुदूगल--मुक्ति का उपाय ! अरे ब्राह्मण की मुक्ति भोजन 
करते हुए मरने सें, बनियों की दिवालों की चोट से गिर जाने में, 
और शुद्रों की--हम तीनों की ठोकरों से सुक्ति-ही-मुक्ति है । 
महादेवी तो ज्षत्राणी है, संभवतः उनको मुक्ति शस्त्र से होगी । 

धातु०--ठुमने ठीक सोचा । आज अझछरात्रि में, कारागार में । 

मुदू्गल--छुछ चिन्ता नहीं, युवराज आ गये हैं । 

धातु०--में भी प्रस्तुत रहूँगा । 

( दोनों जाते हैं ) 


[ पटन्परिवततन | 


[ देवकी के राजमन्दिर का बाहरी भाग ] 
( मदिरोन्मत्त शर्चनाग का प्रवेश ) 


श्वें०--कादुस्व, कामिनी, कआ्चच--वर्णुंसाला के पहले 
अक्षर ! करना होगा, इन्ही के लिये कसम करना होगा। महुष्य 
को्‌ यदि इस कगगों की चाद नही तो क्स्से च्त्यों करे १ क्स्स से 
एक 'छ' और जोड़ दें । लो, अच्छी वर्णमैत्री होगी ! 

कादस्व | ओह प्यास ! (प्याले से मदिर डडेलता है ) लाल 
यह क्या रक्त ? आह ! कैसी भाषण कसनीयता हे | लाल सांदिरा 
लाल नेत्रा से लाल-लाल रक्त देखना चाहती है । किसका १ एक 
आणी का; जिसके केामल सांस सं रक्त सिला हो । अरेरे, नहीं, 
टुबल नारी । ऊह, यह तेरी दुबंलता हे। चल अपना काम देख, 
द्ख--सासने सोने का संसार खड़ा है ! 

( रामा का प्रवेश ) 

रामा--पामर ! सोने की लंका राख हो गई । 

शक्॑ं०--जसम सद्रा न रहो होगी सुद्रो! 

रामा--मद्रि का समुद्र उडफ्नकर बह 
समुद्र के तट पर ही लंका बसी थी ! 

श्वं०--ठव उससे ठुम-जेसी कोई कामिनी न होगी। तुम 
जोन हो--स्वर्म को ऋष्लरा या स्वप्त की चुड़ेल ? 


शसार- झा रे जुष्थए् ह्दा्‌ छ्लांसल छछ, जार इ/छुफ्र 
दखत ह--जस खा जायेगे । मे कोई है ! 


रहा था-मदिरा- 


शव०-झुदरी ! यह तुम्हारा ही दोष है। तुम लोगो का 


वेश-विन्यास, आँखों की छुका-चोरी, अंगों का सिश्न ठचा, चलने में 
ध्््‌ 


ठ्वितोय! अंक 

एक क्रोड़ा; एक कोतूहल, पुकारकर--टोककर कहते है--“ हसें' 
देखो !” हम क्या करें, देखते हो बनता है ! | 

रामा--हुब्नेत्त मद्यप ! तू अपनी ख्री को भी नहीं पहचानता 
ह--परस्ों समककर उसे छेड़ता है 

शवं०--( सम्हलकर ) अयेँ | अरे ओह ! मेरी रामा, तुम हो ! 

रामा०--हाँ, में हूँ । 

शव ० --( हँतकर ) तभी तो में तुमको जानकर हो बोला, 
नहीं भला में किसी परस्री से--( जीभ निकालकर कान पकड़ता है ) 

रासा--त्रच्छा, यह तो बताओ, कादम्ब पीना कहाँ से सीखा 
है? और यह क्‍या ब॒कते थे ? 

शवें०--अरे प्रिये | तुमसे न कहूँगा तो किससे कहूँगा, सुनो- 

दामा-हाँहाँ कहो । हे 

शवब०--तुमको रानी बनाऊंगा । 

रासा--( 'बॉंकऋर ) क्या ? 

शवे०--तुम्ददें सोने से लाद दूँगा । 

रामा--किस तरह १ 

शर्च०- वह भी बतला दूँ? तुम नित्य कहती आती हो कि 
“४ तू निकम्मा है, अपदार्थ है, कुछ नहीं है ?--तो में कुछ कर 
दिखाना चाहता हूँ ! 

रामा--अरे कहो भी । 

शव ०--वह पीछे बताऊँगा । आज तुम महादेवी के बंदीग्रह 
में न जाना, सममका न ? 

६३ 


स्कंदशुप्त 
रामा--( उत्छुकता से ) क्‍यों # 


शव ०--सोचा लेना हो, सान लेना हो; तो एंसा दा करना ; 
क्योंकि आज वहाँ जो कांड होगा, त्स उसे देख न सकांगा। 
तम अभो इसी स्थान से लोठ जाओ ! 


रामा--( बस्ती हुई ) क्या करोगे ? तुस पिशाच को दुष्का- 
मना से भी भयानक दिखाई देते हो ! तस कया करोगे ? बोलो | 


शवं०--(मद्रपान करता हुआ ) हत्या | थोड़ी-सी साद्रा दे, 
शीघ्र दे; नहीं तो छरा भोंक दूँगा । ओह, मेरा नशा उखड़ा 
जा रहा 


रामसा--आज तुम्हें वया हो गया है ! मेरे स्वामी ! मेरे ... ... 
शव०--अभी सें तेरा कुछ नहीं हूँ | सोना मिलने से हो 
जाऊँगा, इसीका उद्योग कर रहा हूँ । 
( इधर-उधर देखकर, चगल से सुशही निकालकर पीता है ) 


रामा--ओह ! से समझ गई ! तूने बेच्र दिया--पिशाच.- के_ 
हाथ तूने अपने को बेच दिया.। अहा । ऐसा सुन्दर, ऐसा 


मनुष्योचित्त मन, कोड़ी के सोल वेच दिया । लोभ-वश मसलुष्य से 
पशु हो गया है। रक्त-पिपासु ! ऋरकस्सों सनुष्य ! ऋतपन्नता को 
कांच का कोड़ा | नरक को हुर्गेध ! तेरी इच्छा कदापि पू् न 
होने दंगी। मेरे रक्त के प्रत्येक परसाणु में जिसकी कृपा की 
शक्ति है, जिसके स्नेह का आकषण है, उसके प्रतिकूल आचरण ! 
वह सेरा पति तो क्या, स्वयं इश्वर भी हो, नहीं करने पावेगा। 

शवं०--क्‍्या तूँ --ओ-तूँ 

पर 


द्वितीय अंक 
रामा-हाँ-हाँ, में न होने दूँगी। मुझे ही सार ले हत्यारे ! 
मद्यप ! तेरी रक्त-पिपासा शान्त हो जाय। परन्तु महादेवी पर 
डाथ लगाया तो में पिशाचिनी-सो अ्लय की काली आँधी बनकर 
कुचक्रियों के जीवन की काली राख अपने शरीर में लपेटकर 
तांडव नृत्य करूँगी ! मान जा; इसीमें तेरा भला है । 
शव०--अच्छा, तू इसमें विन्न डालेगी । तू ते क्‍या, विज्नों 
का पहाड़ भी होगा तो ठोकरों से हटा दिया जायगा । मुझे सोना 
और सम्मान मिलने में कौन बाधा देगा ? ४ 


रामा--में दूँगी । सोना मैं नहीं चाहती, मान में नहीं चाहती, 
मुझे अपना स्वासी अपने उसी मलुष्य-रूप में चाहिये। ( पेर 
पड़ती है ) स्वामी ! हिंस्र पशु भी जिनसे पाले जाते है, उनपर 
चोट नहीं करते; अरे तुम तो सस्तिष्क रखनेवाले मनुष्य हो । 

शब०--( ठुकय देता है ) जा, तू हट जा, नही तो मुझे एक 
के स्थान पर दो हत्याएँ करनी पड़ेंगी! मे प्रतिश्रुत हूँ, वचन 
दे चुका हूँ ! 

रामा--(प्राथना करती हुई) तुम्हारा यह भूठा सत्य है। 
ऐसी प्रतिज्ञाओं का पालन सत्य नहीं कहा जा सकता; ऐसे घोखे 
के सत्य लेकर ही संसार में पाप और असत्य बढ़ते हैं। स्वामी ! 
मान जाओ | 

शब०--ओह, विलंब होता है, तो पहले तू ही लें-- 
(पकड़ना और मारना चाहता है ; रामा शीघ्रता से हाथ छुड़ाकर भाग 
जाती है ।) 


द्५ 


स्कदगुप्त 
( अनंतदेवी, प्रपंचचुद्धि ओर भठाके का प्रवेश ) 

भटाके--श ! 

शब०--जय हो ! मे प्रस्तुत हूँ; परंतु मेरी खली इसमें वाघा 
डालना चाहती है। में पहले उसीकों पकड़ना चाहता था; परंतु 
वह भगी । 

अनंतदेवो--सौगन्द है ! यदि तू विश्वासधात करेगा तो 
कुत्तों से नुचचा दिया जायगा । 

प्रपंच०--शवब ! तुम तो स्त्री नहीं हो । 

शव०--नहीं, मैं प्रतिश्र॒त हूँ । परंतु... .. 

भटाके--तुम्हारी पद-बृद्धि और पुरस्कार का प्रमाण-पत्र 
यह प्रस्तुत है । ( दिखाता है) कास हो जाने पर-- 

शवे०-स्तब शीघ्र चलिये, दुष्टा रामा भीतर पहुँच गई होगी । 


[ सब जाते हैं ] 


[ बंदीश॒द में देवकी और रामा | 

रामा-महादेवी ! में लज्जा के गत्ते में डूब रही हूँ। सुमे 
कृतज्षवा और सेवा-धम्म घिकार दे रहे हैं । मेरा स्वामी. ... . . 

देवकी--शांत हो रामा ! बुरे दिन कहते किसे हैं. ९? जब 
स्वजन लोग अपने शील-शिष्टाचार का पालन करें--आत्म- 
समपंण, सहानुभूति, सत्पथ का अवलम्बन कर; तो दुर्दिन का 
साहस नहों कि उस कुटुम्ब को ओर आँख उठाकर देखे। 
इसलिये इस कठोर समय में भगवान की स्निग्ध करुणा का 
शीतल ध्यान कर । 

रामा--महादेवी ! परन्तु आपको क्‍या दशा होगी ९ 

देवकी-मेरी दशा ? मेरी लाज का बोझ उसीपर है. जिसने 
वचन दिया है, जिस विपद-भंजन की असीस दया अपना स्तिग्ध 
अश्वल सब दुखियों के आँसू पोंछने के लिये सदैव हाथ में 
लिए रहती है । 

रामा--परन्तु उसने पिशाच का प्रतिनिधित्व भ्रहण किया 
है, ओर 6०7७ 

देवकों-न घबरा रामा |! एक पिशाच नहीं, नरक के असंख्य 
ढुद्दोन्त प्रेत और ऋर पिशाचों का त्रास और उनको ज्वाला 
दयासय को कृपादृष्टि के एक बिन्दु से शान्त होती है। 

( नेपध्य से गाना ) 
पालना बनें प्रलथ की लहरें 
शीतल हो ज्वाला की ऑँधो 
रूरझणा के घन. छुहरें 


६७ 


स्कंदगुप्त 
दया दुलार करे पल भर भी 
विपदा पास्सल न हहरे 


प्रभु का हो विश्वास सत्य त्तो 
छुख का केतन फहरे 
( भठाक॑ श्रादि के साथ अनंतदेवी का प्रवेश ) 
अनंत०--परन्तु व्यंग की विषज्वाला रक्त-धारा से भी नहों 
चुमती देवकी । तुम्र मरने के लिये प्रस्तुत हो जाओ 
देवकी--क्‍्या तुम मेरी हत्या करोगी ९ ४ 
प्रपंचलुद्धि--हों । सद्धम्म का विरोधी, हिमालय की निर्जन 
ऊँची चोटी तथा अगाध समुद्र के अंतस्तल में भी, नहीं बचने 


पावेगा; ओर उस महाबलिदान का आरम्म तुम्ही से होगा। 
शव ! आगे वढ़ो । 
ए 4. कि पे कडों 0५ 
रामा--एक शव नहीं, तुम्हारे-जैसे सेकड़ पिशाच भी यदि 
जुटकर आवें, तो आज मसहादेवी का अंगर्पश कोई न कर सकेगा । 
( छुरी निकालती है ) 
ए्‌ ० बचा पी मप्पी 
शर्वें--में तेरा स्वामी हूँ रासा ! क्या तू सेरी हत्या करेगी ९ 
रासा -ओह ! बड़ी धम्मबुद्धि जगी है पिशाच को, और यह 
महादेवी तेरी कौन है ९ 
ए पर पु रा 
शव०--फिर भी में तेरा" 
रामा-स्वासी ? नहीं-नहीं, तू मेरे स्वामी की नरक- 
निवासिनी प्रेतात्मा है। तेरी हत्या केसी--तू तो कभी का सर 
चुका है। 
देवकी--शांत हो रामा ! देवकी अपने रक्त के बदले और 
६८ 


छ्वितीय अंक 
/किसीका रक्त नहीं गिराना चाहतो । चल रे रक्त के प्यासे कुत्ते ! 
चल, अपना काम कर । 
( शव॑ आगे बढ़ता है ) , 
अनंतदेवी--क्यों देवकी ! राजसिहासन लेने की स्पधों 
क्या हुई ? 
देवकी--परमात्मा को कपा है कि मैं स्वामी के रक्त से 
कछुषित सिहासन पर न बैठ सकी । 
भटाक-झभगवान का स्मरण कर लो । 
देवकी-मेरे अंतर की करुण कामना एक थी कि “ स्कंद ' 
-के देख छ । परन्तु तुम लोगों से, हत्यारों से, में उसके लिये भी 
७९ | ९ ८ ७ ०७ 
प्राथना न करूँगी। भाथंना उसी विश्वम्भर के श्रीचरणों मे 
है; जो अपनी अनंत दूया का अभेद्य कवच पहनाकर मेरे स्कन्द 
को सदैव सुरक्षित रक्खेगा । 
शव--अच्छा तो ( खड् उठता है, राप्ता सामने आकर खड़ी हो 
जाती है ) हट जा अभागिनी ! 
रामा--मूर्ख ! अभागा कौन है जो संसार के सबसे 
पवित्र धर्म्म कतज्ञता के भूल जाता है; और भूल जाता है कि 
सबके ऊपर एक अटल अद्ृष्ट का नियामक सर्वशक्तिमान्‌ है; 
बह॒या में ? ह 
शर्व०--कहता हैँ कि अपनी लोथ मुझे पे 
ठुकराने दे ! 
रामा-दुकड़े का लोभी ! तू सती का अपसान करे; यह 
तेरी स्पधी १ तू कीड़ो से भी तुच्छ है । पहले में मरूँगी, तब 
महादेवी । 


६0९ 


सेन 


न 


६५ 


स्कद्गुप्त 


अननन्‍्त०--( क्रोध से ) तो पहले इसीका अंत करो शर्त ! 
शीघ्रता करो । 

शब०--अच्छा तो वही होगा । ( प्रहार करने पर उद्यत होता है ) 

( किवाड़ तोड़कर स्कंद भीतर घुस आता ह--पीछे मुदगल ओर 
धातुसेन । आते ही शर्वेनाग की गर्दन दवाकर तलवार छीन लेता है। ) 

स्कंदृ०--( भदाक॑ से ) क्यों रे नीच पश्ुु ! तेरी क्‍या 
इच्छा है ९ 
भटाक--राजकुमार ! वीर के प्रति डचित व्यवहार होना 
चाहिये । 

स्कंद--तू वीर है ९ अद्धंरात्रि में निस्सहाय अबला महादेवी 
की हत्या के उद्देश से घुसनेवाला चोर! तुमे भी वीरता का 
अमिमान है १ तो इंह्-युद्ध के लिये आमंत्रित करता हँ--बचा 
अपनेको ! 

( भठाक॑ दो-एक हाथ चलाकर घायल होकर गिरता है | ) 
स्कद०--मेरी सौतेली माँ ! तुम “*९ 
अनंत०--स्कंद ! फिर भी मै तुम्हारे पिता को पत्नी हूँ । 
( घुटनों के बल बैठकर हाथ जोड़ती हुई ) 

स्कंद?--अनंतदेवी ! कुसुमपुर में पुरगुप्त को लेकर चुपचाप 
चेठी रहो | जाओ--मै स्त्री पर हाथ नहीं उठाता, परन्तु साव- 
धान ! विद्रोह की इच्छा न करना, नहीं तो क्षमा असम्भव है। 

“ आअहा | मेरी मा!” 

देवकी--( आलिंगन करके ) आओ मेरे वत्स ! 


[ अ्रन्ती-दु्ग का एक भाग; बंधुवर्मा, भीमवर्मा ओर जनयमाला का प्रवेश | 
बैधुवम्सो--वत्स भीस ! बोलो, तुम्हारी क्‍या सम्मति है ९ 
भीम०--तात | आपकी इच्छा; में आपका अजुचर हूँ। 
जयमाला--परन्तु इसकी आवश्यकता ही कया है ? उनका 


इतना बड़ा साम्राज्य है, तब भी क्‍या मालव ही के बिना काम 
नचलेगा ? 


वंधु०--देवी ! केवल स्वार्थ देखने का अवसर नहीं है। यह 
ठीक है कि शकों के पतन-काल में पुष्करणाधिपति स्वर्गीय महा- 
राज सिहवम्पों ने एक स्व॒तंत्र राज्य स्थापित किया, ओर उनके 
वंशधर ही उस राज्य के स्वत्वाधिकारी हैं; परन्तु उस राज्य का 
ध्वंस हो चुका था; स्लेच्छो की सम्मिलित वाहिनी उसे धूल में 
मिला चुकी थी ; उस समय तुस लोगो के केवल आत्म-हत्या का 
ही अवलम्ब निःशेष था, तब इन्हीं स्कंदगुप्त ने रक्षा की थी; 
यह राज्य अब न्याय से उन्हीं का हैं। 

भीस०--परल्तु क्‍या वे'साँगते है ९ 

बंघु०--नहीं भीम ! युवराज स्कॉद्युप्त ऐसे शक्लुद्र हृदय के 
नहीं; उन्होंने पुरशुप्त को इस जघन्य अपराध पर भी मगध का 
शासक बना दिया है। वह ते। सिहासन भी नहीं लेना चाहते | 

जयमाला--परन्तु तुम्हारा मालव उन्हे म्रिय है! ., 

बंधु०--देवी, ठुम नहीं देखती हो कि आय्योवत्ते पर 
विपन्ि को प्रलय-मेघसाला घिर रही है; आयय साम्राज्य के अन्तर्वि- 
रोघ और दुर्बललचा को आक्रमशकारी भलीभांति जान गये 
हैं। शीघ्र ही. देशव्यापी युद्ध की संभावना है । इसलिये यह 


७६ 


स्कंद्गुप्त 
मेरी ही सम्मृति दै कि साम्राज्य को सुब्यवस्था के लिये, आदये- 
राष्ट्र के च्राण के लिये; युवराज उज्जयिनी में रहें; इसीमें सबका 
कल्याण है। आप्यावत्त का जीवन केवल स्कंदरुप्त के कल्याण 

है। और, उज्जयिनी में साम्राज्याभिषेक का अनुष्ठान होगा, 
सम्राट होंगे स्कद॒गुप्त । 

जयमाला--आयप्यपुत्र ! अपना पैठक राज्य इस प्रकार दूसरों 

के पदतल में निस्संकोच अपित करते हुए हृदय काँपता नहीं है २ 
क्या फिर उन्हीं की सेवा करते हुए दास के समान जीवन 
व्यतीत करना हे।गा ? 


वंधु०--( घिर झुकाकर सोचते हुए ) तुम कृततन्नता का समर्थन 
करोगी, वैभव और ऐश्वय्य के लिये ऐसा कद॒य्य प्रस्ताव करोगी; 
इसका मुझे स्वप्न मे भी ध्यान न था ! 

जयमाला--यदि होता १ 


वधु०--तब से इस कुद्धम्ब को कमनीय कल्पना को दूर ही 
से नमस्कार करता ओर आजीवन अंविवाहित रहता | ज्षत्रिये | 
जे। केवल खज्ड का अवलंब रखनेवाले है--सेनिक हे, न्ह्‌ 
विलास की सामग्रियां का लोभ नहीं रहता। सिंहासन पर, 
सुलायम गद्दों पर लेदने के लिये या अकम्मेण्यता और शरीर- 
पोषण के लिये क्षत्रियों ने लोहे को अपना आभूषण नहीं 
बनाया है ९ 
भीस०--भइया ! तब ९ 


बंधुए--भीम ! क्षत्रियों का कत्तेव्य है--आत्त-त्राण- 
परायण होना, विपद्‌ का हँसते हुए आलिंगन करना, विभीषि- 
रख 


हितीय अंकः 
काओं की मुसक्या कर अवहेला करना; और--ओर विपन्नों के. 
लिये, अपने धम्म के लिये, देश के लिये प्राण देना ! 


( देवसेना का सहसा प्रवेश ) 


| थे 5 जिद में 
*४ देवसेना--भाभी ! सर्वात्मा - के स्वर में, आत्म-ससपेण के 
प्रत्येक ताल में, अपने विशिष्ट व्यक्तित्व का विस्टुत हो जाना. 


एक मनोहर संगीत है। कदर स्वार्थ, भाभी; जाने दो. अश्या को 
देखो--कैसा उदार, कैसा. महान्‌ और कितना-पविन्न ! 


जयमाला--देवसेना ! समष्टि में भी व्यष्टि रहता है । 
व्यक्तियो से ही जाति बनती है। विश्वग्रेम, सवभूत-हित-कासना * 
परम धरम है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं हे सकता कि अपने. 
पर प्रेम न हो । इस अपने ने क्या अन्याय किया है जो इसका: 
चह्िष्कार हो ? 

वंघु०--ठहरो जयमाला ! इसी छ्ुद्र ममत्व ने हमको दुष्ट 
भाव॑ना की ओर भेरित किया है; इसीसे हम स्वार्थ का समथन 
करते हैं । इसे छोड़ दो जयमाला ! इसके वशीभूत हाकर हम 
अत्यन्त पविन्र वस्तुओं से बहुत दूर होते जाते हैं । बलिदान करने. 
के योग्य वह नहीं, जिसने अपना आपा नहीं खोया । 

भीम--भाभी ! अब तक न करो । समस्त देश के कल्याण 
के लिये--एक कुटठुम्ब की भी नहीं, उसके श्ष॒द्र स्वार्थों, की बलि 
होने दो । भाभी ! हृदय नाच उठा है, जाने दो इस नीच श्रस्ताव 
को । देखो--हमारा आय्यावत्ते विपन्न है; यदि हम मर-मिटकर 


भी इसकी कुछ सेवा कर सके 
डे 


स्कंदगुप्त 

जयमाला-जब सभी लोगों की ऐसी इच्छा है, तब मुझ 
क्‍या । 

बंधु०--तब मालवेश्वरी को जय हो ! तुम्ही इस सिद्दासन 
पर बैठो । वंधुवमों तो आज से आसव्य-साम्राज्य-सेना का एक 
साधारण पदातिक सेनिक है । तुम्हें तुम्हारा ऐश्वय्य सुखद हो 


( जाना चाहता हे ) 
[ 2 # ५ का मच 
भीस०--ठहरो भइया, हस भरी चलते ह । 


चक्रपालित--( प्रवेश करके )--धन्य वीर ! तुमने ज्षत्रिय का 
सिर ऊँचा किया है। बंधुवमा ! आज तुम महान्‌ हो, हम तुम्हारा 
अशभिननन्‍्द्न करते ह। रण में, वन सें, विपत्ति से, आनन्द सें, 


हम सब समभागी होगे। धन्य तुम्हारी जननी--जिसने आश्यराष्ट्र 
का ऐसा शूर संनिक उत्पन्न किया । 


बंघु०--स्वागत चक्र ! सालवेश्व॒री को जय हो ! अब हम सब 
निक जाते है ! 


चक्र०-ठहरो बंधु | एक सुखद समाचार सुन लो । पिताजी 
का अभी-अभी पत्र आया है कि सोराष्ट्र के शक्कों को निर्मल 
करके परम भद्टारक मालव के लिये प्रस्थान कर चुके 


बु०सभवतः मसहाराजपुत्र उन्तराषध की सीसा की 
रक्षा करेंगे । 


चक्र०--हों बंघु ! 


सेना भा वे रु कह लय 
द्वसना--चलो भाई, से सो तुम् लोगों की सेवा करूँगी | 
७४ 


द्वितीय अंक 
जयसाला--( घुदने देककर ) मालवेश्वर को जय हो | प्रजा. 
ने अपराध किया है, दंड दीजिये पतिदेव ! आपकी दासी क्षमा 
माँगतो है । सेरी आँखें खुल गई' | आज हमने जो राज्य पाया है, 
वह विश्व-साम्राज्य से भी ऊँचा है--महान है । मेरे स्वामी और 
ऐसे महान ! धन्य हूँ में *** “** 


[ बंथुवर्मा सिर पर हाथ रखता है ] 


[ पथ में भटक और उसकी माता 
कमला-तू मेरा पुत्र है कि नहीं ! 
भसटारक--साँ | संसार मे इतना ही तो स्थिर सत्य है; और 
मुमे इतने ही पर विश्वास है। संसार के समस्त लांछनों का 


तिरस्कार करता हूँ, किस लिये ? केवल इसीलियें कि तू मेरी मा 
है, ओर वह जीवित है । 


कसला--और मुझे इसका दुःख है कि में सर क्‍यों न गईं; 
में क्यों अपने कलइू-पूण जीवन को पालती रही। भटाक ! 
तेरी माँ के एक ही आशा थी. कि पुत्र देश का...सेवक -होगा, 
स्लेच्छों से पददुलित भारतभूमि का उद्धार करके मेरा कलझू घो 
डालेगा ; मेरा सिर ऊँचा होगा । परंतु हाय ! 


भटाक-साँ | तो तुम्हारी आशाओं के मैने विफल किया १ 
मेरी खद्बलता आग के फूल नही बरसाती ९ क्या सेरे रखु- 
नाद वज-ध्वनि के समांन शत्र के कलेजे नही कपा देते १ क्या तेरे 
भटाक का लोहा भारत के क्षत्रिय नहीं मानते ९ 
कसला- मानते है, इसीसे तो ओर ग्लानि है । 
भंटाक--घर लौट चलो माँ | ग्लानि क्‍यों है 
कसला--इसलिये कि तू देशद्रोही है | तू राजकुल की शांति 
का प्रलय-सेघ वन गया, ओर तू साम्राज्य के कुचक्रियो में से एक 
हैं। आह | नाच ! कृतन्न )। कमला कलझ्लिनी हो सकती है, 
परतु यह नीचता, ऋृतन्नता, उसके रक्त से नहीं। ( रोती है ) 
( विजया का प्रवेश ) 
विजया--माता ! तुस क्यो रो रही हो ? (भय की ओर देख- 
जद 


द्वितीय अंक 

कर ) और यह कौन है ? क्यों जी ! तुमने इस बृद्धा का क्‍यों 
अपमान किया है ? 

कमला-देवी ! यह मेरा पुत्र था। 

विजया--था ! क्या अब नहीं ! 

कमला --नहीं, इसने महाबलाधिकृत होने की लालच में 
अपने हाथ-पैर पाप-श्रृंखला मे जकड़ दिये; अब फिर भी उज्जयिनी 
में आया है--किसी षड़यंत्र के लिये ! 

विजया--कौन, तुम महाबलाधिकृत भटाक हो? ओर 
तुम्हारी माता की यह दीन दशा ! 

कमला--ा वेटी ! उससे कुछ मत कहो, में स्वयं इसका 
है. ९४ /< ७0९५४ 5 90 में 
ऐश्वय्ये त्यागककर चली आई हूँ । महाकाल के मंदिर में भिक्षा- 
अहण करके इसी उज्जयिनी में पढ़ी रहूँगी, परंतु इससे "'*** 

भटाक--साँ ! अब और न लज्जित करो । चलो-“घर चलूँ ! 

विजया--( घगत ) अहया !. कैसी वीरल-व्यंजक मनोहर 


_ ूति है! और गुलसाञाज्य का मापा 
कमला --इस पिशाच ने छलना के लिये रूप बदला है। 
सम्राट का अभिषेक होनेवाला है; यह उसीमे कोई प्रपश्च रच 
आया है। मेरी कोई न सुनेगा, नहीं तो मैं स्वयं इसे दंडनायक 
को समर्पित कर देती । 
( सहसा मादगुप्त, पुद्गल और गोविन्दगुप्त का प्रवेश ) 


८ क्ैन | मटाक ? अरे यहाँ भी !! / 


स्कंदगुप्त 
( भदाकक॑ तलवार निकालता है, गोविन्दगुप्त ब्सके हाथ पे तलवार छीन 
खेते हैं । ) 
मुदूगल-महाराजपुत्र गोविन्द्सुप्र की जय ! 
गोविन्द०--क्वतन्न | वीरता उन्‍्माद नही है, आँधी नहीं है, जेः 
उचित-अजुचित का विचार न करती हो | केवल शस्त्र-वल पर 
टिकी हुई वीरता विना पैर की होती है। उसकी दृढ़ भित्ति है-- 
न्याय । तू उसे कुचलने पर सिर ऊँचा उठाकर नहीं रह सकता। 
साद्शुप्त ! वन्‍्दी करो इसे | 
४ और तुम कोन हो भद्रे ९ ? है 
कसला-समें इस क्ृतन्न की माता हैँ। अच्छा हुआ, में तो 
स्वयं यही विचार करती थी । 
गोविन्द० -यह तो मेंने अपने कानों से सुना। घन्य हो 
देवी ! तुम-जैसी जननियाँ जब तक उत्पन्न होंगी, तब तक 
आय्य-राष्ट्र का विनाश असमस्भव है । 
“और यह युवती कौन है ९” 
कसला--मुमे सहायता देती थी, कोई अभिजात कुलत्न की 
कन्या है । इसका कोई अपराध नही | 
« भुदुूगल-अरे रास ! यह सी अवश्य कोई भयानक स्त्री होगी ! 
साह्गुप्त-परंतु यह अपना काई परिचय भी नहीं दे 
रही है ! 
विजया--में अपराधिती हैँ; मुझे भी बंदी 
भटाक--यह क्‍यों, इस युवती से तो 
हूँ; इसका केाई अपराध नहीं । 
८ 


ही करो । 
तो में परिचित भी नहीं 


हद्वितीय अंक 
विजया--( स्वगत ) ओह ! इस आनंद-महोत्सव में मुझे 
कौन पूछता है; मे मालब में अब किस काप्त की हूँ ! जिसके 
रु ८ ८5 अप ्थछ 
भाई ने समस्त राज्य अपंण कर दिया है वह देवसेना ओर कहाँ 
मैं । तब तो मेरा यही ...( भदाक की ओर देखती है) 
गोविन्द०--भद्रे ! तुम अपना स्पष्ट परिचय दो । * 


विजया--ैं अपराधिनी हूँ। 
+ [ ली पे 

मातठगुप्त - परंतु तुम्हारा और भी कोई परिचय है ९ 

विजया--यही कि मै बन्दी होने को अभिलाषिनी हैँ । 

कमला--बल्से ! तुम अकारण क्यों ढुःख उठातों हो 

विजया-मेरो इच्छा । मुझे बंदी कीजिये । में अपना परिचय 
न्यायाधिकरण में दूँगी। यहाँ मै कुछ न कहूँगी। मेरा यहाँ 
अपमान किया जायगा तो आय्यराष्ट्र के नाम पर में तुम लोगों 
पर अभियाग लगाऊँगी । 

गेविंद०--क्‍्यों भटाके ! यदि तुम्हीं कुछ कहते-- 

९ बस हे कप 

भटाक-मैं कुछ नही जानता कि यह कौन है। मुझे भी 

विलम्ब हो रहा है; शीघ्र न्यायाधिकरण में ले चलिये | 


मुदूगल--और बृद्धा कमला ! 
गोविन्द०--वह बंदी नहीं है, परंतु एक बार स्कंद के समक्त 
उसे चलना होगा । 
साह्गुप्त-तो फिर सब चलें, अभिषेक का समय भी 
समीप है । 
[ सब जाते हैं ] 


[ राजसभा ] 


( बचुवर्मा, भीमवर्म्मा, माठगुप्त तथा मुद्गल के साथ स्कदगुप्त का एक | 
ओर से ओर दूसरो ओर सेस्गोविंदगुप्त का प्रवेश | ) 


स्कन्द०--( बीच में खड़ा होकर ) ताव ! कहाँ थे? इस 
बालक पर अकारण क्रोध करके कहाँ छिपे थे ? 
( चरण-वंदन करता है ) 
गोविन्द०--उठो बत्स ! आय्ये चन्द्रगुप्त को अनुपम प्रतिकृति ! 
शुप्कुल-तिलक ! भाई से सें रूठ गया था, परन्तु तुमले कदापि 
नहीं; तुम मेरी आत्मा हो वत्स | (आलिद्नन करता है। अनुचरियों के 
साथ देवको का प्रवेश, स्कंइ देवकी का चश्णव॒ न्दन करता है । ) 
देवकी--वत्स ! चिरविजयी हो ! देवता तुम्हारे रक्षक हों । 
हक गीवोद ५ ड्ि  छ रे ७३ 
महाराजपुत्र | इसे आशीवांद दीजिये कि गुप्तकुल् के गुरुजनों के 
प्रति यह सदैव विनयशील रहे । 
गोविन्द०--महादेवी ! तुम्दारों कोख से पेदा हुआ यह 
रल, यह गुप्तक्ूल के अभिम्तान का चिन्ह, सदेव यशोपम्रिमंडित 
रहेगा ! 


+ ह हक. के 4 
स्कृल्द्‌०--( चंघुवर्भमा से ) मित्र सालवेश |! बढ़ों, सिंहासन 
पर वैठो ! हम लोग तुम्हारा अमिनंदन करे' । 


( जयमाला ओर देवसेना का प्रवेश ) 


जयमाला-- देव | यह सिंहासन आपका है, सालवेश का 
जे धकार ह हर प्‌ अप 

इसपर कोई अधिकार नही । आय्यावत्ते के सम्राद्‌ के अतिरिक्त 
अब दूसरा कोई मालव के सिंहासन पर नहीं बैठ सकता । 


वि । 


द्वितीय अंक 
( ४“ मालव की जय हो | ”-..तुमुल ध्वनि ) 


बंधुवम्मों -( हैसछकर ) सम्राट ! अब तो मालवेश्वरी ने 
स्वयं सिंहासन त्याग दिया है, ओर में उन्हें दे चुका था, 
इसलिये अब सिंहासन ग्रहण करने में विल्लम्ब न कोजिये । 

गोविन्द०--वत्स ! इन आयये-जाति के रत्नों की कौन-सी 
प्रशंसा करूँ। इनका साथ-त्याग ' दधीचि के दान से कम नहीं । 
बढ़ा वत्स ! सिंहासन पर बैठो, में तुम्हारा तिलक करूँ। 

स्कंद०--तात ! विपत्तियों के बादल घिर रहे हैं; अन्तवि- 
द्रोह की ज्वाला प्रज्वलित है; इस समय, मैं केवल एक सैनिक बन 
'सकू गा, सम्राद ,चह्टीं.. 

गोविन्दगुप्त-आज आयय-जाति का प्रत्येक बच्चा संनिक 
है, सेनिक छोड़कर ओर कुछ नहीं। आय्ये-कन्याएँ अपहरण 
को जाती है; हूणो के विकट तांडव से पवित्र भूमि पादाक्रांत 
है; कहीं देवता की पूजा नहीं होती ; सीमा की बबर जातियों की 
राक्षसों बृत्ति का प्रचंड पाखंड फेला है। इसी समय जाति 
तुम्हें पुकारती है--सम्राट होने के लिये नहीं, उद्धार युद्ध में . 
सेनानी बनने के लिये-सम्रादू ! कक व 

( गोविन्दगुप्त और बन्युवर्मा हाथ पक्रड़कर स्कन्‍्दगुप्त को सिंहासन 
पर बेठाते है । भीम छुत्र लेकर बेठता है । देवसेना चम्र करती है | गठड़- 
ध्वज लेकर बन्‍्वुत्र्मा खड़े होते हैं । देवको रानतिलक करती है । गोविन्द- 
गुप्त खडग का उपहार देते हैं। चक्र गरुड़ाह्ू राजदड देता है। ) 

गोविन्द्गुप्त-परम भद्वारक महाराजाधिराज रुकंदगुप्त की 
जय हो | 

८९ 


स्कंद्रुप्त 

सब--( समवेत स्वर से ) जय हो ! | 

बन्धु5-आये-साम्राज्य के महावलाधिकृत महाराजपुक्र 
गोविन्दगुप्त की जय हो | ( सब वेसा ही कहते हैं ) कि 

स्कंद०--आस्य ! इस गुरुभार उत्तरदायित्व का सत्य ख 
पालन कर सकूँ, और आय्यराष्ट्र की रक्ता में सर्वेस्व-अपर कर 
सकूँ, आप लोग इसके लिये भगवान्‌ से प्राथना कौजिये और 
आशीवाद दीजिये कि स्कंदगुप्त अपने कत्तेव्य से, स्वदेशसेवा से, 
कभी विचलित न हो । 

गोविन्द०-सम्राद ! परमात्मा की असीस अनुकस्पा से 
आपका उद्देश सफल हो | आज गोविन्द ने अपना कत्तेव्य-पालन 
किया। बत्स बंधुवम्मो ! तुम इस नवीन आय्यराष्ट्र के संस्थापक 
हो । तुम्हारे इस आत्मत्याग की गौरव-गाथा आय्य-जाति का 
मुख उज्ज्वल करेगी। वीर ! इस बृद्ध में साम्राज्य के महाबला- 
घिकृत होने की क्षमता नहीं, तुम्हीं इसके उपयुक्त हो। 

वंधु०--अभी नहीं आय्यं! आपके चरणों में बैठकर यह 
चालक स्वदेश-सेत्रा की शिक्षा अहण करेगा। सालत़ का राज- 
कुट्ठम्व्‌, एक-एक बच्चा, आरयये-जाति के कल्याण के लिये जीवन 
उत्सगं करने के प्रस्तुत है। आप जो आज्ञा देंगे, वद्दी होगा। 

(4 धन्य ॥ घन्य । 2 

स्कंद०--तात ! पणुदत्त इस समय नहीं हैं ! 
.. चक्र०-_सम्राद्‌ ) वह सौराष्ट्र की चच्चल राष्ट्रनीति की देख- 
रेख में लगे हैं । 

( कुमारदास का प्रवेश ) * 
माद्रुप्त--सिहल के युवराज कुमार धातुसेन की जय हो! 
टर्‌ 


ह्ितीय अंक 
( सब आश्चय्य से देखते हैं ) 
स्कद०--कुमारदास, सिहल के युवराज ! 
माठ्गुप्त--हाँ महाराजाधिराज ! 
स्कंद०--अद्भुत ! वीर युवराज ! तुम्हारा स्नेह क्या कभो मूल 
सकता हूँ ? आओ, स्वागत ! 
( धब मंच पर बेठते हैं ) 
गोविन्द०--बन्दियों को ले आओ । 
( सेनिकों के साथ भठाके, शर्चनाग, विजया तथा कम्तला का प्रवेश ) 
दु०--क्यों शव ! तुम क्‍या चाहते हो ? 
शव०--सम्राद्‌ ! मुझे वध की आज्ञा दीजिये, ऐसे नीच के 
लिये और कोई दंड नहीं है । 
स्कंद०--नहं! , में, तुम्हें इससे भो कड़ा दंड दूँगा, जो वध 
से भी उम्र होगा | 
शर्व०--वही हो सम्राद ! जितनी यंत्रणा से यह पापी प्राण 
निकाला जाय, उतना ही उत्तम होगा । 
स्कंद०-परन्तु मैं तुम्हे मुक्त करता हूँ, क्षमा करता हैँ। 
तुम्हारे अपराध ही तुम्हारे ममेस्थल पर सेकड़ों बिच्छुओं के डंकः 
की चोट करेंगे। आजीवन तुम उसी यंत्रणा को भोगो, क्योकि 
रामा--साध्वी रामा-को में अपनी आज्ञा से विधवा न बनाऊंगा 
रामा सती ! तेरे पुएय से आज तेरा पति झत्यु से बचा ! 
( रामा सम्रादू का पेर पकड़ती हे ) 
शव ०-दुहाई सम्राट्‌ की |! मुझे वध की आज्ञा दीजिये, नहीं 
८३३ 


स्कंदगुप्त 
तो आत्म-हत्या करूँगा। ऐसे देवता के प्रति मैंने दुराचरण किया 
था। ओह ! ( छुरी निकालना चाहता है ) 

स्कंद०--ठहरो शव ! में तुम्हें आजीवन बन्दी बनाऊँगा। 

( रामा आश्चर्य ओर दुःख से देखती २ ) 
रकंद०--शवे | यहाँ आओ | 
( शव समीप आता है ) 

देवकी--वत्स | इसे किसी विषय का शासक बनाकर भेजो, 
. जिसमें दुंखिया रामा को किसी प्रकार का कष्ट न हो । 

सब--महादेवी की जय हो ! 

स्कंद०--शर्ब | तुम आज से अन्‍्तर्वेद के विषयपति नियत्त 
किये गये । यह लो--( खड्ड देता है ) 

शबे--( रुद्द कंठ से ) सम्राट ! देवता ! आपकी जय हो! 
( देवकी के पेर पर गिरकर ) सा! मुझे! क्षमा करो, में सलुष्य से 
पशु हो गया (व | अब तुम्हारी ही दया से में मनुष्य 
हुआ । आशीवोद दो जगद्धान्नी कि में देव-चरणों मे आत्मबलि 
देकर जीवन सफल करूँ! 


-देवकी--उठो । क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु 
के पास नहीं मिलती । प्रतिहिंसा पाशव धम्मे है । उठो, में तुम्हें 
क्षमा करती हूँ। 

- ( शर्व॑ खड़ा होता है ) 

स्कंद०--भटाक ! तुम इस गुप्त-साम्राज्य के महाबलाधि- 
क्त नियत किये गये थे, और तुम्हीं साम्राज्य-लक्ष्मी महादेवी की 

८४ 


द्वितीय अंक 


हत्या के कुचक्र में सम्मिलित हो ! यह तुम्हारा अक्षस्यथ अप- 
राध है। 

भटाके०--मैं केवल राजमाता को आज्ञा का पालन 
करता था । 

देवकी- क्‍यों भटाक ! तुम यह उत्तर सच्चे हृदय से देते 
हो १ क्‍या ऐसा कहकर तुम स्वयं अपनेको धोखा देते हुए ओरों 
के भी प्रवंचित नहीं कर रहे हो ? 

भटाक--अपराध हुआ । ( सिर नीचा कर लेता है ) 

. स्कन्द०--तुम्हारे खड्ग पर साम्राज्य को भरोसा था। 

तुम्हारे हृदय पर तुम्हीं को भरोसा न रहे, यह बड़े घिक्कार की 
' बात है। तुम्हारा इतना पतन ? ( भदाके स्तब्ध रहता है। विजया 
* की ओर देखकर ) और तुम्म विजया ? ठुस क्यों इसमें-- 

देवसेना--सम्राद ! विजया मेरी सखी है । 

विजया-परंतु मैंने भटाक को वरण किया है। 

जयमाला--विजया ! 

विजया--कर चुकी देवो ! 

देवसेना--उसके लिये दूसशा उपाय न था राजाधिराज ! 
प्तिहिंसा मनुष्य के। इतना नीचे गिरा सकती है ! परंतु विजया, 


सूने शीघ्रता की । 
(स्कद्‌ विजया की ओर देखते हुए विचार मे पड़ जाता है ) 


८ ९ 
गोविन्द०--यह बुद्धा इसी ऋवन्न भठाक की माता है। भटाके 
के नीच कर्मो से दुखी होकर यह उज्जयिनी चली आई है। 
स्कंद०--परंतु विजया, तुमने यह क्या किया ९ 
८५ 


स्कदगुप्त 

देवसेना--( स्वगत ) आह | जिसकी मुझे आशंका थी; वही 
है । विजया ! आज तू हारकर भी जीत गईं 

देवकी--बत्स ! आज तुम्हारे शुभ महामिषेक में एक बंद 
भी रक्त न गिरे। तुम्हारो माता को भी यह संगल-कामना है कि 


तुम्हारा शासन-दंड क्षमा के संकेत पर चला करे। आज से सबके 
लिये क्षमाप्राथिनी हूँ। 


कुमारदास--आयनारी सती ! तुम धन्य हो ! इसी गौरव से 
तुम्हारे देश का सिर ऊँचा रहेगा | 
स्कंद०--जैसी माता की इच्छा-- 


मात्शुप्र-परमेश्वर परम भद्टारक महाराजाधिराज स्कंद- 
शुप्त की जय !! 


| यवनिका | 


तृतीय अंक. 
[ शिप्रा-तद ] 


प्रपंचचुद्धि--सब विफल हुआ ! इस ढुरात्मा स्कन्द्युप् ने मेरो 

७ 4) ९३ 0५ में 
आशाओं के भंडार पर अगला लगा दी। छुसुमपुर में पुरणुप्त 
और अनन्तदेवी अपने विडम्बना के दिन बिता रहे है। भटाके 


[0] 


भी बन्दी हुआ, उसके प्राणों की रक्षा नहीं । ऋर कर्मो को अवता- ' 
रणा से भी एक बार सद्धम्मं के उठाने की आकांक्षा थी, परन्तु 
“बह दूर गया ! ( कुछ सोचकर ) उम्रतारा की साधना से विकट से 
भी विकट कार्य्य सिद्ध होते है, तों फिर इस महाकाल में महा- 
श्मशान से बढ़कर कौन उपयुक्त स्थान होगा | चले -- 
( ज्ञाना चाहता है; भदाके का प्रवेश ) 

अटाक-भिक्लुशिरोमणे ! प्रणाम; ! हु 

प्रपंच०--कौन; भटाक ? अरे मैं स्वप्न देख रहा हैं क्या ! 

भटावी --नहीं आय्य; में जीवित हैं । 

प्रपंच०--उसने तुम्हें शूली पर नहीं चढ़ाया 

भटाक--नही, उससे बढ़कर ! 

प्रपंच०--कक्‍्या ९ 

भटाक-सझुझे अपमानित करके क्षमा किया। मेरी वीरता 
पर एक दुवेह डपकार का बोझ लाद दिया। 


८9 


स्कंदरगुप्त 
प्रपंच०--तुम सूखे हो । शत्र से वदला लेन का उपाय करना 
चाहिये; न कि उसके उपकारो का स्मरण । 
सटाक- में इतना नीच नहीं है 5 2 
प्रपंच०--परंतु में तुम्हारी प्रवृत्ति जानता हैँ | तुम इतन. उच्च 
सी नहीं हो । चलो एकान्त से वात करे । काई आता 
( दोनों जाते ह ) 
( विज्या का प्रवेश ) 
विजया--में कहो जाऊँ ! उस उच्छुखल वीर को में लोह- 
झूंखला पहना सकगी ९ उसे अपने बाहु-पाश में जकड़ सकती: 
हैँ ? हृदय के विकल मनोरथ ! आह ! 
( गान ) 
उमड़कर चली भिगोने आज 
तुम्दाशय निश्चलत  अद्बल छोर 
नयन-जल-धारा रे प्रतिकूल ! 
देख ले तू फिर्कर इस ओर 
हृदय की अन्तरतम मुसक्थान 
->. कलपनामय तेश यह विश्व 
' लालिमा में लय हो लवलीन 
निरखते इन आँखों की कोर 
हु कोन १ ओ ! राजकुमारी ! 
( देवतेवा का अवेश--दृर पर उसकी परिचारिकाएँ) 
देवसेना--विजया! सायंकाल का दृश्य देखने शिप्रान्तट परः 
तुस भी आ गई हो! 


८८ 


तृतीय अंक 
विजया--हाँ राजकुमारी ! ( सिर झुका लेती हे ) 
देवसेना--विजया, अच्छा हुआ, तुमसे भेंद हो गई; सुमे 
कुछ पूछना था। 
विजया--पूछना क्‍या है ९ 


देवसेना- क्या जो तमने किया है, उसे साच-सममकर ? 
कही तम्हारे दम्भ ने तमके छल तो नहीं लिया ९ तीत्र मनोदृत्ति 
के कशाघात ने तुम्हे विपथगामिनी तो नही बना दिया ? 


विजया--राजकुमारी ! में अनुगृहीत हैँ। उस कृपा के नहीं 
भूल सकती जो आपने दिखाई है । परन्तु अब ओर प्रश्न करके. 
मुझे उन्तेजित करना ठीक नही । 


देवसेना--( आश्चर्य से ) क्यों विजया ! मेरे सखी-जनोचितः 
सरल प्श्न में भी तुम्हें व्यज्ञः सुनाई पड़ता है ९ 

विजया--क्या इसमें भी प्रमाण की आवश्यकता है ? राज* 
कुमारी ! आज से मेरी ओर देखना मत । मुझे कझृत्या अभिशाप, 
की ज्वाला समकना और ...... 

देवसना--ठहरो, दम ले लो ! संदेह के गत्ते में' गिरने के 
पहले विषेक का अवलम्बन ले लो विजया 

विजया--हताश जीवन कितना भ्रयानक होता है--यह 
नहीं जानती हो ? उस दिन जिस तीखी छुरी को रखने के लिये 
मेरी हँसी उड़ाई जा रही थों, में समझती हैँ कि उसे रख लेना 
मेरे लिये आवश्यक था। राजकुमारी ! मुझे न छेड़ना । में तुम्हारी 
शन्नु हूँ । ( क्रोष से देखतो हे ) 


९ 


सकंदगुप्त 

देवसेना-( आश्चर्य पे ) क्या कह <ही हो ९ 

विजया-वही जिसे तुम सुन रही हो। 

देवसेना--वह तो जैसे उन्मत्त का प्रलाप था, अकस्मात्‌ 
स्वप्न देखकर जग जानेवाले प्राणी की कुतूहल-गाथा थी । 
विजया ! क्या मैंने तुम्हारे सुख मे बाधा दी ? परल्तु मैंने तो 
तुस्हारे मागे को स्वच्छ करने के सिवा रोड़े न विछाये | 
«४ विजया-डपकारो की. ओएट से मेरे स्वगे को छिपा -दिया, 
'मेरी कामन्ा-लता को. ससूल उखाड़कर कुचल दिया ! 

देवसना--शीघ्रता करनेवाली श्री ! अपनी असावधानी 
का दोष दूसरे पर न फेंक । देवसेना मूल्य देकर प्रणय नहीं लिया 
चाहती है. . .. . . । अच्छा, इससे क्‍या ९ 

० ( जाती है ) 
विजया--जाती हो, परन्तु सावधान ! 
( भटठाके और प्रप॑चबुद्धि का प्रवेश) 

भटाके--विजया ! तुम कब आई हो ९ 

विजया--अभी-अभी ; तुम्दीं के तो खोज रही थी । 
( प्रपंचबुद्धि को देखकर ) आप कोन है ९ 

भठाक--योगाचार-संघ' के प्रधान श्रसण आस्ये प्रपंचबुद्धि 


( विजया नमस्कार करतो है ) 


. अपंच०--कल्याण हो देवि ! भटाक से तो तुस॒ परिचित-सी 
हो; परन्तु मुझे भी जान जाओगी । 


९० 


तृतीय अंक 

विजया--आय्य | आपके अजुग्रह-लाभ की बड़ी आकांच्ा है। 

प्रपच०--शुभे ! प्रज्ञापारमिता-स्वरूपा तारा तम्हारी रक्षा 
करे ! क्‍या तम सद्धमे की सेवा के लिये कुछ उत्सग कर 
सकोगी ? ( कुछ सोचकर ) तम्हारे मनोरथ पूरा होने में विन्न और 
विलम्ब है। इसी लिये तुम्हें अवश्य धर्मोचरण करना होगा । 

विजया--आय्य ! मेरा भी एक स्वाथ है। 

प्रपंच०--क्‍्या ९ 

विजया--राजकुमारी देवसेना का अन्त ! 

प्रपंच०--और मुमे उम्रतारा की साधना के लिये महाश्मशान 
में एक राजवलि चाहिये ! 

भठाक--यह तो अच्छा सुयोग है ! 

विजया--उसे श्मशान तक ले आना तो मेरा काम है; आगे 
में कुछ न कर सकूँगी । 

प्रपंच०--सब हो जायगा। उम्रतारा की कृपा से सब कुछ 
सुसम्पन्न होगा । 
“/ भटाक-परन्तु मैं करतन्नता से कलंकित होऊँगा, और स्कन्द- 
गुप्त से मैं किस मुंह से. ... . नहीं, नहीं. . .. . . 

प्रपंच ०--सावधान भठाक ! अलग ले जाकर इतना सममभाया, 
फिर भी ...! तस पहले अनन्तदेवी ओर पुरणुप्त से प्रतिश्रुव हो 


चुके हो । 
भदाकं--ओह ! पाप-पह्ु में लिप्त मनुष्य का छुट्टी नहा! 
कुकर्म उसे जकड़्कर अपने नागपाश में बॉध लेता है। ढुभोग्य ! 


५९१ 


स्कदशुप्त 


साद्शुप्त--( निकलकर ) भयानक छुचक्र ! एक निर्मल 
कुसुम-कली को कुचलने के लिये इतनी बड़ी प्रतासणा की 
चक्की ! मनुष्य ! तुमे हिसा का उतना ही लोभ है, जितना एक 
भूखे भेड़िये को ! तब भो तेरे पास उससे कुछ विशेष साधन हैं-- 
छुल; कपट, विश्वासघात, ऋृतन्नता, और पैने अख्र । इनसे भी 
बढ़कर भाण लेने की कलाकुशलता । देखा जायगा; भठाक ! घुस 
जाते कहाँ हो ! 


[ जाता है ] 


[ श्मशान में साधक-रूप से प्रपंचनुद्धि । दूर से स्कंदगुप्त 
टहलता हुआ आता है। | 


स्कंदू०--इस साम्राज्य का बोक किसके लिये ? हृदय में 
अशाल्ति, राज्य सें अशान्ति, परिवार में अशान्ति | केवल्न मेरे 
अस्तित्व से ? साछूम होता है कि सबकी--विश्व-भर की--शान्ति- 
रजनी मे मे ही धूमकेत हूँ, यदि मैं न होता ते यह संखार 
अपनी स्वाभाविक गति से, आनन्द से, चला करता। परनन्‍्त मेरा 
तो निज का कोई स्वार्थ नही, हृदय के एक-एक कोने को छान 
डाला--कद्दीं भी कामना की वन्‍्या नहीं। बलवती आशा की 
आँधी नही चल रही है। केवल गुप्त-संम्राद के वंशधर होने की 
दयनीय दशा ने मुर्के इस रहस्य-पूर्ण क्रिया-कलाप में संलग्न रखा 
है। कोई भी मेरे अंतःकरण का आलिड्गन करके न रो सकता है, 
और न तो हँस सकता है। तब भी व्िजया... ? ओह ! उसे 
स्मरण करके कया होगा । जिसे हमने सुख-शवरी की सन्ध्यातारा 
के समान पहले देखा, वही उल्करापिडड होकर दिगन्त-दाह करना 
चाहती है। विजया ! तूने क्‍या किया ! (देखकर ) ओह ! 
कैसा भयानक मनुष्य है ! केसी क्र आकृति है ! मून्तिमान पिशाच 
है | अच्छा, माठ्गुप्त तो अभी तक नही आया । छिपकर देखू । 


( छिपता है ) 
( विजया के साथ देवसेना का प्रवेश ) 
देवसेन्ना--आज फिर तुस॒ किस अमिग्नाय से आई हो ? 
विजया--और तुस राजकुमारी ? क्या तुम इस महा-वीभत्स 
श्मशान मे आने से नहीं डरती हो ? 
९३ 


स्कद्गुप्त 
देवसेना--संसार का सूक शिक्षक “ श्मशान _ क्या डरने को 
वस्तु है? जीवन की नश्वरता के साथ ही स्वात्मा के उत्थान 
का ऐसा सुन्दर स्थल और कोनहै ९ 
( नेपथ्य से गान ) 


सब जीवन वीता जाता हे 
धूप-छाँह के खेल-सदश । घब० 


समय भागता है प्रतित्षण 
नव-अत्तीत के तुपार-कण में 

हमें लगाकर  भविष्य-रण में 

आप कहाँ छिप जाता है ९--सब॒० 


वुल्ले, लहर, हवा के कहोंके 
मेघ ओर बिजली को थोक्ते 
किसका साहस है कुछ रोके 
जीवन का वह नाता है ।--छब० 
है न 'वंशी को चस बज जाने दो 
| अं , मीठी मीड़ें! को आने दो 
आँख बन्द करके गाने दो 
जो वुछु हमको आता है ।--सब० 


विजया--( खवगठ ) भाव-विभोर दूर की रामिनी सुनती हुई 
यह कुरंगी-सी कुमारी..... .आह ! कैसा भोला झुखड़ा है! नहीं, 
'चहीं विजया ! सावधान ! प्रतिहिसा......( प्रकद ) राजकुमारी ! 
देखो, यह कोई बड़ा सिद्ध है, वहाँ तक्त चलोगी ९ 


"रिठि 


तृतीय अंक 
देवसेना--चलो, परन्तु मुझे सिद्ध से क्‍या प्रयोजन | जब 
मेरी कांमनाएँ विस्कृति के नीचे दबा दी गई हैं, तब वह चाहे 
स्वय इंश्वर हो हो तो क्‍या ? तब भी एक कुतूहल है; चलो-- 
( विजया देवसेना को आगे कर प्रपंचचुद्धि के पास ले जाती है, ओर आप 
हट जाती है । ध्यान से आँख खोलकर प्रप॑च उसे देखता है। ) 


प्रपंच०--तुम्हारा नाम देवसेना है ९ 

देवसेना--( आश्चये से ) हाँ सगवन ! 

प्रपंच०--तुमको देवसेवा के लिये शीघ्र श्रस्तुत होना होगा । 
तुम्हारी ललाट-लिपि कह रही है कि तुम बड़ी भाग्यवती हो ! 

देवसेना--कौन-सी देवसेवा 

प्रपंच०--यह नश्वर शरीर, जिसका उपभोग तुम्हारा प्रेमी भो 
न कर सका और न करने की आशा है, देवसेवा मे अपित 
करो ! उग्नतारा तुम्हारा परम सद्भल करेगी । 

देवसेना--( सिहर उठती है ) क्‍या मुझे अपनी बलि देनी 
होगी १ ( घृमकर देखती है ) विजया ! विजया ! ! 

प्रपंच०--डरो सत, तुम्हारा सजन इसीलिये था। नित्य की 
मोह-ज्वाला में जलने से तो यही अच्छा है कि तुम एक साधक 
का उपकार करती हुईं अपनी ज्वाला शांत कर दो ! 

देवसेना--परन्तु'' *“'कापालिक ! एक और भी आशा 
मेरे हृदय में है । वह पूण नहीं हुई है । में डरती नहीं हूँ, केवल 
उसके पूर्ण होने की प्रतीक्षा है। विजया के स्थान को में कदापि 
न भ्रहण करूँगी । उसे अम दे, यदि वह छूट जाता 


५५ 


स्केद्गुप्त 

प्रपंच०--( उठकर उछ्तका हाथ पक्रड़कर खड़ उठाता है ) परन्तु 
ए 

मुझे ठहरने का अवकाश नहीं | उम्रतारा की इच्छा पूण हो 

देवसेचा--प्रियतस ! मेरे देवता युवराज !! तुम्हारों जय हो ! 
( प्विर झुकाती है ) 
[ पीछे से माठगुप्त आकर प्रपंच का हाथ पकड़कर नेपथ्य में ले जाता हे, 
देवसेना चकित होकर स्कंद का आलिड्नन करती हे ! | 


[ मगध में अनंतदेवी, पुरगुप्त, विजया ओर भठाक ] 

पुरगुप्त--विजय-पर-विजय ! देखता हूँ कि एक वार वंक्षुतट 
पर गुप्तसाम्राज्य की पताका फिर फहरायगो । गरुड्ध्वज वंक्षु के 
शेतीले मैदान में अपनी स्वशु-प्रभा का विस्तार करेगा । 


अनन्त०-परन्तु तुमकेा क्‍या? निर्वीय्यं, निरीह बालक ! 
तुम्हें भी इसकी प्रसन्नता है? लज्जा के गत्ते में डूब ही जाते। 
और भी छाती फुलाकर इसका आनन्द मनाते है। ! 

विजया--अहा ! यदि आज राजाधिराज ' कहकर युवराज 
धुरगुप्त का अमिनन्द्न कर सकती ! 

भठाक--यदि में जीता रहा ते वह भी कर दिखाऊँगा! 


( दौवारिक का प्रवेश ) 
दौवारिक--जय दे। ! एक चर आया है। 
भटठाक-ले आओ। 
( दोवारिक जाकर चर को लिवा लाता है ) 

चर--युवराज की जय हे ! 

भटाक-तुम कहाँ से आये हो ? 

चर--नगरहार के हण-स्कंधावार से । 

भटाक--क्या संदेश है ? 

चर--सेनापति खिन्लिल ने पूछा है. कि मेगध की गुप्तपरिषद्‌ 
क्या कर रही है ९ उसने प्रचुर अर्थ लेकर भी मुझे ठीक समय 
पर घोखा दिया है । परन्तु स्मरण रहे कि अबको हमारा अभियान 
सीधे कुसुमपुर पर होगा; स्कंदगुप्त का साम्राज्य-ध्वंस पीछे होगा । 
पहले कुसुमपुरी का मणि-रत्न-भांडार छटा जायगा। भ्रतिष्ठान 

९७ 


स्कंद्गुप्त 


ओर चरणाद्वि तथा गोपाद्रि के दुर्गपतियों के जे! धन विद्रोह 
करने के लिये परिषद्‌ की आज्ञा से सेजा गया था; उसका क्‍या 
फल हआ ? अन्तर्वंद के विषयपाति की कुटिल दृष्टि ने उस रहस्य 
का उदघाटन करके वह घन भी आत्मसात्‌ कर लिया और 
सहायता के वदले हमलोग ग्रवंचित हुए; जिससे हणों का सिन्धु 
का भी तट छोड़ देना पड़ा । 

भठाक--ओह ! शव्वनाग ने वढ़ी सावधानी से काम लिया । 
आचास्य प्रपंचबुद्धि का निधन होने से यह सब दु्घेटना हुई है। 


दूत | हुर॒ुराज से कहना कि पुरशुप्त का सम्राट बनाते में तुम्ह 
अवश्य सहायता करनी पड़ेगी । 


चर--परन्तु उन्हें विश्वास केसे है। ९ 
भटाके--मैं प्रसाणपत्र दूँगा | हूणों के। एक बार ही भारतीय 
सीमा से दूर करने के लिये स्कद्शुप्त ने समस्त सामन्तों के 
आसन्त्रण द्यि है। सगध की रक्षक सेना भी उसमें सम्मिलित 
होगी, भोर से ही उसका परिचालन करूँगा | वहीं इसका प्रत्यक्ष 
प्रमाण मिलेगा । ओर यह लो प्रमाणपत्र । ( पत्र देता है ) 
पुरगुप्तू--ठहरे । 
अनंत०--चुप रहे! 
दूत-ते यह उपहार भो सम्राज्ञी के लिये अस्तुत है । 
( रत्नों से भरी हुई मंजूपा देता है 3 


सटाक--ओर उत्तरापथ के समस्त धम्ससंघों के लिये क्‍या! 
किया है ९ 


दूृत--आस्य महाश्रमण के पास में हे 
५९८ 


तृतोय अंक 

सद्धम्मे के अनुयायो और संघ, स्कदगुप्त के विरुद्ध हैं| याज्षिक 
क्रियाओं की प्रचुरता से उनका हृदय धम्मनाश के भय से घबरा 
उठा है। सब विद्रोह करने के लिये उत्सुक हें । 

भटाक-अच्छा, जाओ । नगरहार के गिरित्रज का युद्ध 
इसका निबटारा करेगा। हूणराज से कहना कि सावधान रहे । 
शीघ्र वहीं मिलूंगा। 

( दूत प्रणाम करके जाता है ) 
पुरगुप्त--यह क्या हो रहा है ९ 
अनन्त०--मुम्हारे सिंहासन पर बैठने की शस्तावना है ! 


( सेनिक का प्रवेश ) 

सैनिक--महादेवी की जय हो ! 

भटाक--क्या है ९ 

सेनिक--छुसुमपुर की सेना जालन्धर से भी आगे बढ़ चुकी 
है। साम्राज्य के स्कंधावार में शीघ्र ही उसके पहुँच जाने की 
संभावना है। 

पुरगुप्त--विजया ! बहुत विलम्ब हुआ । एक पात्र 

( अनन्तदेवी संकेत करती है, विजया उसे पिलाती है ) 

भटाक-मेरे अश्वों की व्यवस्था ठीक है न ? में उसके पहले 
पहुँचूगा । 

सेनिक--परन्तु महाबलाधिकृत ! 

भूटाक--क्‍्या ९ कहो ! री मओ 

सेनिक-यह राष्ट्रका आपत्ति-काल है, युद्ध की आयोज- 
नाओं के बदले हम कछुसुमपुर में आपानकों का समारोह देख: 
रहे है। राजधानी विलासिता का केंद्र बन रही है। यहाँ के, 


५९५ 


स्कंदगुप्त 
मनुष्यों के लिये विल्लास के उपकरण बिखरे रहने पर भो 
अपय्याप्त है ! नये-तये साधन और नवीन कल्पताओ से भो इस 
विलासिता-रक्षसी का पेट नहीं भर रहा है ! भला सगध के 
विलासी सैनिक क्या करेंगे ? 

भटाके--अबोध ! जो विलासी न होगा वह भी क्‍या वीर 
है। सकता है ? जिस जाति में जीवन न होगा वह विलास क्‍या 
करेगी ? जाग्रत राष्ट्र में ही विलास और कलाओं का आदर 
होता है। वीर एक कान से तलवारों की और दूसरे से नूपुरों 
की मनकार सुनते हैं । 

विजया--बात ते यही है । 

सैनिक--आप सहाबलाधिकृत हैं, इसलिये में कुछ नहीं 
कहूँगा । ५ 

भटठाक--नहीं तो ९ 


सेनिक--यदि दूसरा कोई ऐसा कहता, तो मैं यही उससे 
कहता कि तुम देश के शत्रु हे ! 

भटाक--( क्रोध से ) हैं... ! 

सेनिक--हाँ, यवनों से उधार ली हुई सभ्यता नाम की 
विलासिता के पीछे आयेजाति उसी तरह पड़ी है, जैसे कुलनबधू 
को छोड़कर कोई नागरिक वेश्या के चरणों में । देश पर बबेर 
हणों की चढ़ाई ओर तिसपर भी यह निज आमाद ! जातीय 
जीवन के निवोणोन्मुख प्रदीप का यह दृश्य है। आह ! जिस 
संगध देश की सेना सदैव नासीर में रहती थी, आर्य्य चन्द्रगुप्त 
को वही विजयिली सेना सबके पीछे निमंत्रण पाने पर. साम्राज्य- 


१०५० 


तृतीय अंक 


सेना में जाय ! महाबलाधिकृत ) मेरी, ते इच्छा होती है कि में 
आत्म-हत्या कर लूँ ! मैं उस सेना का नायक हूँ, जिसपर गरुड्ध्वज 
की रक्षा का भार रहता था| आय्य समुद्रगुप्त की श्रतिष्ठित उस 
सेना का ऐसा अपमान ! 

सठाके--( अपने क्रोध के मनोभाव दवाकर ) अच्छा, तुम यहीं 
मगध की रक्ता करना, में जाता हूँ। 

सेनिक--हैँ, अच्छा तो यह खज्न' लीजिये, में आज से मगघ 
की सेना का नायक नहीं। ( खन्ड देता है ) 

पुरशुप्त--( मद्यप की-छी चेष्टा बनाकर ) यह अच्छा किया, 
आओ मित्र | हम-तुस कादम्ब पियें। जाने दो इन्हें। इन्हें 
लड़ने दो । 

अन॑तदेवी--( भठाकी को संकेत करती हुई ले जाती है, ओर विजया 
से कहती हे ) विजया ! युवराज का सन बहलाओ ! 

[ सैनिक तिरस्कार को दृष्टि से देखते हुए जाता है। भंदाक और 
अनंतदेवी एक ओर, विजया और पुरभुप्त दूसरी ओर जाते हैं । | 


[ उपबन ॥ 
( जयमाला ओर देवसेना ) 

जयमाला-तू उदास है कि असन्न, कुछ समम में नहीं आता ! 
जब तू गाती है।तब तेरे भीतर को रागिनी रोती है, और जब 
हँसती है तब जैसे विषाद को ग्रस्तावना होतो है ! 

/ ७ 

१-सखी--सम्राट युद्ध-यात्रा में गये हैं ओर...... 

२-सखी--तो क्‍या १ 

देवसेना--तुस सब भी साभी के साथ मिल गई हो। क्‍यों 
भाभी ! गाऊं वह गीत ९ 


जयमाला-मसेरी प्यारी ! तू गाती है | अहा ! बड़ी-बड़ी. 
आँखें तो बरसाती ताल-सी लहरा रही हैं । तू दुखी होती है । ले, 
में जाती हैँ । अरी ! तुम सब इसे हँसाओ । ( जाती है ) 
कर देवसेना--क्या महारथी हारकर भगे ९ अब तुम सब छुद्र 
नेकों की पारी है ? अच्छा तो आओ। 

१--सखी-_-नहीं, राजकुमारी ! में पूछती है कि सम्राट ने. 
तुमसे कभी ग्राथना की थी ९ 

२--सखी--हाँ, तभो तो ग्रेम का सुख है ! 

३--सखी--ो क्या मेरी राजकुमारी स्वयं प्रार्थिनी होंगी ९ 
हू ! 

देवसेना--आर्थना किसने को है, यह रहस्य की बात है । 

कर कि ७5 €< बिक प ७ 

क्‍यों १ कहूँ ९ प्राथना हुई है मालब की ओर से ; लोग कहेगेः 
कि सालव देकर देवसेना का व्याह्‌ किया जा रहा है । 

१०२ 


तृतीय अंक 
* १--सखी--च कहो, तब फिर क्‍्या--हरी-हरी कोॉंपलों की 

ट्टी में फूल खिल रहा है--और क्‍या ! 

देवसेना--पेरा मंह काला, और क्या ? निदूय होकर आघात 
सत कर, मम्मे बड़ा कोमल है। कोई दूसरी हँसी तुझे नहीं आती १ 

( मुँह फेर लेती है ) 

२--सखो--लक्ष्यभेद ठीक हुआ-सा देखती हूँ । 

देवसेना--क्यों घाव पर नमक छिंड्कती है? मेंने कभी 
उनसे प्रेस की चचो करके उनका अपमान नहीं होने दिया है। 
नीरव जीवन ओर एकांत व्याकुलता, कचोदने का सुख मिलता 
है। जब हृदय में रुदन का स्वर उठता है, तभी संगीत की वीणा 
मिला लेती हे । उसीमे सब छिप जांता है । 

(श्राँखों से आँसू बहता है ) 

१--सखी-हे-हैं, क्‍या तुम रोती हो ? मेरा अपराध 
क्षमा करो ! 

देवसेना--( सिप्तकतो हुई ) नहीं प्यारी सखी ! आज ही में 
अस के नाम पर जी खोलकर रोती हू; बस, फिर नहीं। यह एक 
चरण का रुदन अनन्त स्वर्ग का रुजन करेगा | 

२--सखी--तुम्हें इतना ठुःख है, में यह कल्पना भी न 
कर सकी थी। 

देवसेना--( सम्हलकर ) यही तू भूलती है। मुझे तो इसी 
में सुख मित्रता है ; मेरा हृदय मुझसे अनुरोध करता है, सचलता 
है, रूठता है, मे उसे मनाती हाँ। आंखें श्रणयन्कलह उत्पन्न 
कराती हैं, चित्त उत्तेजित करता है, बुद्धि मिंड़कती है, कान कुछ 


१०३ 


स्कंदरुप्त 
सुनते हो नहीं | में सबको सममाती हूँ, विवाद मिटाती हू । 
सखी ! फिर भी में इसी मगड़ाल छुट्ुम्ब॒ में ग्रहस्थी सम्हालकर, 
स्वध्थ होकर, वैठती हूँ । 
३-सखी--आश्चय्य ! राजकुमारी ! तुम्हारे हृदय में एक, 
वरसाती नदी वेग से भरी है ! 
देवसेना--कूलो मे उफनकर वहनेवाली नदी, तुमुल तरच्न; 
प्रचंड पंचन और भयानक वो ! परन्तु उसमें भी नाव चलानी 
ही होगी। 
१--सखी-- 
( गान ) 
मारी ! साहस हे से लोगे 
जजेर तरी भरी पथिकों से-- 
रूड़ में क्‍या खोलोगे 
अलस नील घन की छाया में--- 
जलजालों की छुल-प्राया में--- 
अपना चल तोलोगे 
अनजाने तट की मदमाती--- 
लहर, च्षित्िज चूमती आतों 
ये ऋटके फ्रेलोगे ? माकी-- 
( भीमवर्म्मा का प्रवेश ) 


भोम०--वहिन | शकनमंडल से व्रिजय का समाचार 
आया हे | 


देवसेना--भगवान की दया है । 
२०४ 


तृतीय अंक: 


भीम०--परन्तु, महाराजपुत्र गाविन्दगुप्त वीरगवति को प्राप्त 
हुए, यह बड़ा '* ***** **] 

देवसेना-वे धन्य हैं ! 

भीस०--बीर-शय्या पर सोते-सोते उन्होंने अनुरोध किया, 
कि महाराज बन्धुवम्मों गुप्तसाम्राज्य के महाबलाधिकृत बनाये 
जायें, इसलिये अभी वे रक्रंधावार में ठहरंगे। उनका आना अभो 
नहीं हो सकता। और भी कुछ सुना देवसेना ? 

देवसेना--क्या 

भीसम०--सम्राट्‌ ने तुम्हें बचाने के पुरस्कार-स्वरूपः 
मातृशुप्त को काश्मीर का शासक बना दिया है । गान्धारवंशी 
राजा अब वहाँ नहीं है। काश्मीर अब साम्राज्य के अन्तगत हो 
गया है ! 

देवसेना--सम्राद्‌ की महानुभावता है। भाई ! मेरे शणों 
का इतना मूल्य ९ 

भीस०--आर्य्य-साम्राज्य का उद्धार हुआ है। बहिन ! सिधु 
के प्रदेश से म्लेच्छ-राज ध्वंस हो गया है.। प्रवीर सम्राद्‌ स्कंदगुप् 
ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की है । गौ, ब्राह्मण और 
देवताओं की ओर कोई भी आततायी आँख उठाकर नहीं देखता। 
लौहित्य से सिघु तक, हिमालय की कन्द्राओ में भी, स्वच्छुन्द्ता- 
पूबक्‌ सामगान होने लगा । धन्य हैं हम लोग जो इस दृश्य को 
देखने के लिये जीत्रित है ! 

देवसेना--मज्ञलमय भगवान सब मद्भल करेंगे। भाई, साहसः 
चाहिये, कोई वस्तु असम्भव नहीं । 

2१०५ 


स्कंदरुप्त 
भी०--उत्तरापय के सुशासन की व्यवस्था करके परम 
भद्टारक शीघ्र आवेंगे। मुझे असी स्नान करना है, जाता हूँ । 
देवसेना-भाई ! तुम अपने शरीर के लिये बड़े ही निश्िन्त 
रहते हो । ओर कामों के लिये तो...... 
( भीम दँसता हुआ जाता है ) 


( मुद्गल का प्रवेश ) 
मुदूगल--जो है सो काणाम करके यह तो अपने से नहीं हो 
सकता । जहूँ, जब कोई न मिला तो फूटी ढोल की तरह मेरे 
गले पड़ी ! 
देवसेना--क्या है मुदूगल ९ 


मुदूगल--वही-वही, सीता की सखी, मन्दोदरी को नानी 
आ्रिजटा । कहाँ है साठगुप्त ज्योतिषी की दुम ! अपने को कवि भी 
लगाता था ! सेरी कुडली मिलाई या कि मुझे मिट्टी में मिलाया । 
शाप दूँगा। एक शाप ! दाँत पीसकर, हाथ उठाकर, शिखा खोलते 
हुए चाणक्य का लकड़दादा बन जाऊँगा | मुझे इस मसंम्ट सें 
फँसा दिया । उसने क्‍यों मेरा व्याह कराया . . .. . . ! 

देवसेना-तो क्या बुरा किया ९ 

मुद्गल--कख मारा, जो है सो काणास करके । 

देवसेचा--अरे व्याह भी तुम्हारा होता २ 


5, 


तो से इसपर भी अस्तुत हैँ कि कोई इसको फेर ले। परंतु यह 
इत्या कोन अपने पल्ले बॉघेगा ! 


मुदूगल- न होता तो क्या इससे भरी घुरा रहता ? बाबा, अब 


“२०६ 


तृतीय अंक 


देवसेना--आज कोन-सी तिथि है ? एकादशो तो नहीं है ९ 

मुद्गल-:हाँ, यजमसान के घर एकादशी और भेरे पारण की 
डादशी ; क्‍योंकि ठीक मध्याह में एकादशी के ऊपर हादशी 
चढ़ बैठती है, उसका गला दबा देती है; पेट पचकने लगता है ! 

देवसेना--अच्छा, आज तुम्हारा निमंत्रण है--तुम्हारी स्री 
के साथ । 

मुदूगल--जो है से। देवता प्रसन्न हों, आपका कल्याण हो ! 
फिर शीघ्रता होनी चाहिये | पुण्यकाल बीत न जाय'*'**'चलिये । 
में उसे बुला लेता हैँ । ( जाता है ) 


[ सबका प्रस्थान | 


[ गान्धार की घाटी--रणक्षेत्र 
(तुरही बजती है, स्कंदगुप्त ओर बंधुवर्ममा के साथ सेनिकों का प्रवेश 


वंधु०--वचीरो ! तुन्हारी विश्वविंजयिनी वीर-गाथा सुरू 
सुद्रियों की वीणा के साथ सन्द्‌ ध्वनि से नंदन में गज उठेगी 
असम साहसी आय्य-सेनिक ! तुम्हारे शस््र ने वबर हूणों को बता 
दिया है. कि रणु-विद्या केवल नृशंसता नहीं है । जिनके आतंक से 
आज विश्वविख्यात रूम-साम्राज्य पादाक्रांत है, उन्हें तुम्हारा लोहा 
मानना होगा और तुम्हारे पेरों के नीचे दबे हुए कंठ से उन्हें स्वी- 
कार करना होगा कि भारतीय दुर्जेय बीर हैं। समझ लो--आज के 
यद्भ में प्रत्यावत्तंन नहीं है। जिसे लौटना हो, अभी से लोट जाय। 

सनिक--आयन्सनिकों का अपसान करने का अधिकार महा- 
वलाधिकृत को भी नहीं है! हम सब प्राण देने आये हें, 
खेलने नहीं ! 

, स्कंद०-खाधु ! ठुम्त यथार्थ ही जननी जन्म-भूमि की 

संतान हो । 

सेनिक--राजाधिराज श्री स्कंद्गुप्त विक्रमादित्य की जय ! 

( चर का प्रवेश ) 

चर--परम भट्टारक की जय हो ! 

स्कंदू०--क्या समाचार है ९ 

चर-देव ! हूश शीघत्ष ही नदी के पार होकर आक्रमण 
का भर्ताज्षा कर रहें हैं | परतु, यदि आक्रमण न हुआ तो वे स्वयं 
आक्रमण करेंगे | 

वंधु०--और छुभा के रणणक्षेत्र का क्या समाचार है ९ 
५०८ 


तततीय अंक 

चर--मगध को सेना पर विश्वास करने के लिये में न कहूँगा। 
भटाक की दृष्टि में पिशाच की मंत्रणा चल रही है। खिड्डिल के 
दूत भी आ रहे हैं । चक्रपालित उस कूट-चक्र के तोड़ सकेंगे कि 
नहीं, इसमें सन्देह है । 

स्कंद०--बंधुवम्मों ! तुम कुमा के रणतक्षेत्र की आर जाओ, 
में यहाँ देख लगा । 

बंघु०--राजाधिराज !|सगध की सेना पर अधिकार रखना 
मेरे सामथ्य के बाहर होगा, और मालव की सेना आज नासीर 
में है। आज इस नदी की तीद्ण घारा के लाल करके बहा देने 
की मेरी प्रतिज्ञा है। आज मालव का एक भी सेनिक नासीर-सेना 
से न हटेगा । 

स्कद०--बंधु ! यह यश मुमसे मत छीन लो । 

बंधु०-- परन्तु सबके गण देने के स्थान भिन्न है । यहाँ मालव 
की सेना मरेगी; दूसरे के यहाँ सरकर अधिकार जमाने का 
अधिकार नहीं । और बंधुबमों मरने-सारने में जितना पदु है, 
उतना षड्यंत्र तोड़ने में नहीं । आपके रहने,से सौ बंधुवर्मों उसन्न 
होंगे । आप शीघ्रता कीजिये । 

स्कंद०--बंघुवर्मा ! तुम बड़े कठोर हे। ! 

बंधु०-शीघ्रता कीजिये। यहाँ हूणों के रोकना मेरा ही 
कत्तेव्य है, उसे में ही करूँगा । महाबलाधिकृत का अधिकार 
न छोडेगा । चक्रपालित वीर है, परन्तु अभी वह नवजुवक हे; 
आपका वहाँ पहुँचना आवश्यक है।भटाक पर विश्वास न 
कीजिये । 

१०९ 


ह्कंदगुप्त 

स्कंद०-सेंने समझा कि हूणों के सम्मुख वह विश्वासधात 
न करेगा । 

वंधु०-ओह्‌ । जिस दिन ऐसा हे। जायगा, उस दिन केाई 
भरी इधर आंख उठाकर न देखेगा । सम्राट ! शीघ्रता कोजिये ! 

स्कंद०--( आलिझ्नन करता है ) मालवेश की जय ! 

वंघुए--राजाधिराज श्री स्कंदशुप्त विक्रमादित्य को जय ! 
( चर के साथ स्कंदगुप्त जाते हैं ) 

( नेपथ्य में रणवाद्य | शत्रु-लेना आती है। हणों की सेना से विकद 
युद्ध । हणों का मरना, घायल होकर भागना | चंधुवर्मों की अ्रन्तिम 
अवस्था; गरुडध्वन ठेककर उसे चूमना । ) 

बंघु०--( दम तोडते हुए ) विजय ! तुम्हारी ... विजय ! ..- 
आय्य-साम्राज्य को जय ! 

सवब--आय्य-साम्राज्य की जय ! 

वंचु०--भाई | स्कंदगुप्त से कहना कि सालव-वीर ने अपती 
प्रतिज्ञा पूरी की; भीम ओर देवसेना उत्तकी शरण हैं । 

संनिक--सहाराज ! आप क्या कहते हैं. | ( सब शोक करते हैं 

वंधु०--वंघुगण ! यह रोने का नहीं, आनंद का समय है। 


कोन वीर इसी तरह जन्म-भूमि की रक्षा मे आ्राण देता है, यही में 
ऊपर से देखने जाता हैँ। 


सेनिक--महाराज वंधुवमों की जय ! 


( गल्ड़ध्वज की छावा में बंघुवर्मा की ख्त्यु ) 


[ दुर्ग के सम्मुख कुमा का रणत्तेत्र; चक्रपालित और स्कंदगुप्त ] 


चक्र०--सम्राद्‌ | प्रतारणा को पराकाष्ठा ! दो दिन से जान- 
चूमकर शत्रु को उस ऊँची पहाड़ी पर जमने का अवकाश दिया 
जा रहा है। आक्रमण करने से में रोका जा रहा हैँ । समस्त 
मगध की सेना उसके संकेत पर चल रही है । 


स्कद०--चक्र ! कुभा में जल बहुत कम है, आज ही उत्त- 
रना होगा। तुम्हें दुर्ग में रहना चाहिये। में भटाक पर विश्वास 
तो करता ही नहीं, परन्तु उसपर प्रकट रूप से अविश्वास 
का भी समय नहीं रहा | 


चक्र०--नहीं सम्राट ! उसे बंदी कीजिये। वह देखिये-- 
आ रहा है । 

भटाक--( प्रवेश करके ) राजाधिराज की जय हो ! 

स्कंद०--क्यो सेनापति ! यह क्‍या हो रहा है ? 

भटाक--आक्रमण की प्रतीक्षा सम्रादू ! 

स्कंद०--या समय की ९ 

मटाक-सम्राट्‌ का मुमपर विश्वास नहीं है, यह .......-- 

चक्र०--विश्वास तो कहीं से क्रय नहीं किया जाता ! 

भटाक--तुम अभी बालक हो । 


चक्र०--छुराचारी कृतन्न! अभी में तेरा कलेजा फाड़ 
खाता ; ठेरा ...... ॥ 


१११ 


स्कंद्गुप् 
भठाके -सावधान ! अब में सहन नहीं कर सकता ! 
( तलवार पर हाथ रखता है ) 
स्कंद०--भटाक ! बह बालक है । कूटमंत्रणा, वाक्‌चातुरी 
नहीं जानता । चुप रहो चक्र ! 
( चक्रपालित ओर भटाकी सिर नीचा कर लेते ह ) 
स्कंद०--भठाक ! प्रवश्चन्ा का समय नहीं है। स्मरण 
रखना--कृतन्न और नीचों की श्रेणी में तुम्हारा नाम पहले 
रहेगा ! 
( भटाके चुप रह जाता है ) 
स्कंद०--युद्ध के लिये भस्तुत हो ९ 
भठाक--मेरा खड॒ग साम्राज्य की सेवा करेगा । 
स्कद०--अच्छा तो अपनी सेना लेकर तुम गिरिसंकट पर 
पीछे से आक्रमण करो और सामने से में आता हूँ । चक्र ! तुस 
दुर्ग की रक्षा करो। 
भटाके--जैसी आज्ञा । नगरहार के स्कंधावार को भी सहा- 
यता के लिये कहला दिया जाय तो अच्छा हो । 
स्कद7--चर्‌ गया है। तुम शीघ्र जाओ। देखो--सामने 
शत्रु दीख पड़ते हैं 


( भ्ाकें का प्रस्थान ) 
चक्र०--तो में बैठा रहूँ ९ 
स्कंद०--भविष्य अच्छा नहीं है चक्र ! नगरहार से समय पर 
लहायता पहुँचती नहीं दिखाई देती। परंतु, यदि आवश्यकता 
तो शीघ्र नगरहार की ओर प्रत्यावत्तेन करना। में वही 
तुमसे मिलंगा । 


११२ 


तृतोय अंक. 
( चर का प्रवेश ) 


स्कद०--गान्धार-युद्ध का क्या समाचार है ९ 
चर--विजय । उस रणुक्षेन्न में हुण नहीं रह गये । परंतु 
सम्राद ! वंधुवस्मों नहीं हैं 
स्कंद०--आह बंधु | तुम चले गये ? धन्य हो धीर-हृदय ! 
( शोक-मुद्रा से बेठ जाता है ) 
चक्र०--इसका समय नहीं है सम्राट्‌ ! उठिये, सेना आ रही 
है; इस समय यह' समाचार नहीं प्रचारित करना है । 
सस्‍्कद्‌०--( उठते हुए ) ठीक कहा। 
( भठके के साथ सेना का प्रवेश ) 
स्कंद०--देखो, कुभा के उस बंध से सावधान रहना ! 
आक्रमण में यदि असफलता हो, और शज्नु की दूसरी सेना कुभा 
को पार करना चाहे, तो उसे काठ देना । देखो भठाक ! तुम्हारे 
विश्वास का यही प्रमाण है। 
भटाक--जैसी आपकी आज्ञा । 
( कुछ सेनिकों के साथ जाता है ) 
स्कंद०--चक्र ! टुग-रक्तक सेनिकों को लेकर तुम प्रतीक्षा 
करता । हम इसो छोटी-सी सेना से आक्रमण करेंगे । तुम 


सावधान ! 
( नेपथ्य से रणवाद्य ) 


देखो--वह हण आ रहे हैं ! उन्हें वहीं रोकना होगा। 
तुम ढुग॑ में जाओ। 
चक्र ०--जैसी आज्ञा । ( जाता है ) 
११३ 


स्कंद्रुप्त 

स्कंद०--वौर मगघ-सेनिको ! आज स्कंदगुप्त तुम्हारी 
परिचालना कर रहा है, यह ध्यान रहे, गरुड्ध्वज का मान रहे; 
भले ही प्राण जायें ! 

सगध-सेना--राजाधिराज श्री स्कंदशुप्त विक्रमादित्य की जय ! 
( सेना बढ़ती है, ऊपर से अजवर्षा होती है, घोर युद्ध के वाद हण भागते 
हैं। साम्राज्य-सेना का, जयनाद करते हुए, शिखर पर श्रधिकार करना 2 

नायक--( ऊपर देखता हुआ ) सम्राट | आश्चय्य है; भागी 
हुई हृण-सेना कुभा के उस पार उतर जाना चाहती है ! 

स्कद-क्या कहा ! 

नायक-कुछ सगध-सेना सी वहाँ है, परंतु वह तो जैसे 
उन्तका स्वागत कर रही है ! | शो 

स्कंद०- विश्वासघात ! प्रतारणा ! नीच भटाक ! * 

नायक--फिर क्या आज्ञा है ९ 

स्कंद०-हुगे की रक्षा होनी चाहिये। उस पार की हण- 
सेना यदि आ गई तो क्ृतन्न मटाक उन्हें. मागे बतावेगा । वीरो ! 
शीघ्र उन्हे उसी पार रोकना होगा। अभी छुभा पार होने कीः 
संभावना है । 

( नायक तुरही वजाता है, सेनिक इकट्ठ होते हैं । ) 
स्कंदू०-- (घदराइट से देखते हुए ) शीघ्रता करों । 
त्ायक-क्या १ ( ., 
स्कंद०--नचीच भटठाक ने वंध तोड़ दिया है, कुभा में जल! 

बड़े वेग से वढ़ रहा है ! चलो शीघ्र-- 
( सब उतना चाहते है, कुभा में भ्रकस्माद जल बढ़ जाता है ; 
छब बहते हुए दिखाई देते हैं । ) 
[ अंधकार | 


चत॒थ अक 
[ प्रकेष्ठ 
( विजयां ओर अनन्तदेवी ) 


अनन्त०--कक्‍्या कहा ? 

विजया--मै आज ही पासा पलढ सकती हूँ । जो भूला ऊपर 
उठ रहा है, उसे एक ही मठके में प्रथ्वी चूमने के लिये विवश 
कर सकती हूँ । 

अननन्‍्त०--कक्‍्यों ? इतनी उत्तेजना क्यें है ? सुन भी ते । 

विजया-सममक जाओ | 

अननन्‍्त०--नहीं, स्पष्ट कहो । 

विजया--भदठाक मेरा है ! 

अनन्त०--तो ? 

विजया--उस राह से दूसरों को हटना होगा । 

अननन्‍्त०-कौन छीन रहा है ? 

विजया--एक पाप-पह्कु में फँसी हुई निलेज नारी। क्या 
उसका नाम भो बताना होगा ? समझो, नहीं तो साम्राज्य का 


स्वप्न गज्ञा दबाकर भंग कर दिया जायगा | 


अनन्त०--( दँसती हुई ) मूर्ख रमणी ! तेरा भठाक केवल 


मेरे काय्ये-साधन का अंख्र है, ओर कुछ नहीं। वह परण॒प्त के 
डे सिंहासन की सीढ़ी है; समझो ९ 
१९५ 


सकंद्शुप्त 


विजया--सममी ; ओर तुम भो जान लो कि तुम्हारा नाश 
समीप है। 
अननन्‍्त०--( बनाती हुईं ) कया तुम पुरगुप्त के साथ सिद्दासन 
पर नहीं बैठना चाहती हो १ क्‍यों--वह भी तो कुमारणुप्त का 
पुत्र है ? 
विजया-हाँ, वह कुमारशुप्त का पुत्र है, परन्तु वह तुम्हारे 
गर्भ से उत्पन्न है ! तुमसे उत्पन्न हुईं सन्‍्तान--छिः ! 
अनन्त०-कया कहा ? सममककर कहना । 
विजया--कहती हूँ, और फिर कहूँगी । प्रलोभन से, धमकी 
से, भय से, कोई भी मुमकों भटाक से नहीं वश्चित कर सकता। 
; जिया खिनों मर यह के रोड शो -वड्चिता खियाँ अपनी राह के रोड़े--विज्ो--को_ दूर करने_ 
| क लिये वद्ञ से भी दृढ़ होतो है| हृदय को छीन लेनेवाली खी 
के प्रति हृतसबस्वा रमणी पहाड़ी नदियों से भयानक, ज्वालामुखी 
के विस्फोट से भी वीभत्स, और प्रलय की अनत्-शिखा से भी 
लहरदार होती है। मुझे; तुम्हारा सिहासन नहीं चाहिये। मुझे 
छुद्र पुरगुप्त के विल्ास-जजेर मन और यौवन में ही जीणे शरोर 
का अवलस्व वांछनीय नहीं । कहे देती हूँ, हुट जाओ; नहीं ते 
सुम्हारी समस्त कुमंत्रणाओं को एक फुक में उड़ा दूँगी ! 
अनन्त०--क्या ९ इतना साहस ! तुच्छ सत्री ! तू जानती है कि 
किसके साथ वात कर रही है ९ में वही हँ--जो अश्वमेध-पराक्रम 
छुमारगुप्त से, वालों को सुगन्धित करने के लिये गंधचूरं जलवाती 
थी. जिसकी एक ठीखी कोर से गुपत-साम्राज्य डॉवाडोल द्दो रहा 
'दे। उस तुस......एक सामान्य स्त्री ! जा-जा, ले अपने भटाके को ; 
११६ 






चतुर्थ अंक 
मुझे ऐसे कौट-पतज्ञों को आवश्यकता नहीं । परन्तु स्मरण रखना, 
में हूँ अनल्तदेवी ! तेरी कूटनोति के कंटकित कानन की दावाग्नि-- 
तेरे गव-शेलश्द्धा का वदत्र | में वह आग लगाऊँगी, जो प्रलय के 
समुद्र से भी न बुझे ! 


( जाती है ) 


विजया--में कहीं को न रही ! इधर भयानक पिशाचों की 
लीला-भूमि, उधर गम्भीर समुद्र ! दुबल र्मणी-हृदय ! थोड़ी 
आँच में गरम, ओर शीतल हाथ फेरते ही ठंढा ! क्रोध से अपने 
आत्मीय जनों पर विप उगल देना ! जिनके क्षमा की आवश्यकता 
है--जिन्‍्हें स्नेह के पुरस्कार की वांछा है, उनकी भूल पर कठोर 
तिरस्कार और जो पराये हैं, उनके साथ दोड़ती हुईं सहालुभूति ! 
यह मन का विष, यह बदलनेवाले हृदय की छझुद्गता है। ओह ! 
जब हम अनजान लोगों की भूल और ठुःखों पर क्षमा या 
सहानुभूति प्रकट करते हैं, ते भूल जाते हैं कि यहाँ मेरा स्वार्थ 
नहीं है। क्षमा ओर उदारता वही सच्ची है, जहा स्वांध की 
भी बलि हे । अपना अतुल धन और हृदय दूसरों के हाथ 
में देकर चल्े--कहाँ १९ किघर--( उन्मत्त भाव से प्रस्थान करना 
चाहती है) 


( पदच्युत नायक का प्रवेश ) 
नायक--शांत हो । 
विजया--कोन ९ 
नायक--एक सेनिक । 
११७ 


स्कंदशुप्त 
विजया--दूर हो, मुझे सेनिकों से घृणा है । 
नायक--क्यों सुन्दरी ९ 


विजया--ऋर ! केवल अपने भूठे मान के लिये, वनावटी 
बड़प्पन के लिये, अपना दस्भ दिखलाने के लिये, एक अनियंत्रित 
हृदय का लोहों से खेल विडस्वना है । किसकी रक्षा, फिस दीन 
की सहायता के लिये तुम्हारे अञ्न हैं 

नायक--साम्राज्य की रक्षा के लिये । 


विजया--मूठ । तुम सब के जंगली हिंस पशु होकर जन्म 
लेना था। डाकू ! थोड़े-से ठोकरों के लिये अमूल्य मानव-जीवन 
का नाश करनेवाले भयानक भेड़िये ! 


नायक--( ख्वगत ) पागल हे गई है क्‍या ९ 


विजया--स्नेहमयी देवसेना का शह्ल्ा से तिरस्कार किया; 
मिलते हुए स्वग का घसंड से ठुच्छ.खसझा, देव-तुल्य स्कंद्शुप् 
से विद्रोह किया, किस लिये ? केवल अपना रूप, धन, योवन 
दूसरे के दान करके उन्हें नोचा दिखाने के लिये ? स्वाथपूरो 


मनुष्यों की प्रतारणा सें पढ़कर खो दिया--इस लोक का सुख, 
उस लोक को शान्ति । आह ! 


हि 
टी 

डी 

रर 


नायक--शांत हे ! 


_विजया--शांति कहाँ ९ अपनों के दंड देने के लिये में स्वयं 
उनसे अलग हुई ; उन्हे दिखाने के लिये-- मैं भो कुछ हूँ! 
अपनी भूल थी, उसे अभिमान से उनके सिर दोष के रूप में मढ़ 


श्श्ट 


चतुर्थ अंक 
गक्‍्खा था । उनपर भूठा अभियोग लगाकर नीच-ह॒दय को नित्य 
त्तेज् ७ 
उत्तेजित कर रही थी । अब उसका फल मिल्रा ! 


नायक--रमणी ! भूला हुआ लोट आता है, खोया हुआ 
मिल जाता है; परन्तु जो जान-बूककर भूलभुलइयाँ तोड़ने के 
अभिमान से उसमें घुसता है, वह उसी चक्रव्यूह्‌ में स्वयं मरता है, 
दूसरों को भी मारता है । शांति का--कल्याण का--मार्ग उन्मुक्त 
है। द्रोह को छोड़ दो, स्वार्थ को विस्म्तत करो, सब तुम्हारा है । 

विजया--( घछिसकती हुई ) में अनाथ निःसहाय हूँ ! 

नायक--( वनावटी रूप उतारता है ) में शवनाग हूँ । में सम्राट 
का अनुचर हूँ। सगध की परिस्थिति देखकर अपने विषय 
अन्तवँद को लोट रहा हूँ। 


विजया--क्या अन्तर्वेद के विषयपति शवनाग ? 
शववे०--हाँ; परंतु देश पर एक भीषण आतंक है । भटाके 
की पिशाच-लीला सफल होना चाहती है । विजया ! चलो, देश 
के प्रत्येक बच्चे, बूढ़े और युवक को उसकी भल्नाई में लगाना 
होगा ; कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना होगा । आओ, यदि हम 
शराजसिंहासन न भ्रस्तुत कर सके तो हमें अधीर न होना चाहिये ; 
हम देश की प्रत्येक गली को माड्‌ ..देकर ही इतना, स्वच्छ कर 
दे कि उसपर चलनेवाले राजमार्ग का सुख पायें ! 
_विजया-[ छुछ सोचकर ) तुमने सच कहा । सबको कल्याण 
के शुभागमन के लिये कटिबद्ध होना चाहिये । चलो-- 


[ दोनों का प्रस्थान | 


[ भद्क का शिविर | 


( नत्तंकी गाती हे ) 
भाव-निधि में लहरियाँ उठतीं तभी 
भूलकर भी जब स्मरण होता कभी 
मधुर मुरली फूँक दी तुमने भला 
नींद मुझको आ चली थी व अभी 
सब रगणों में फिर रही हैं विजलियाँ 
नील नीरद ! कया न बससोगे कमी 
एक झोंका ओर मलयानिल श्रह्म 
चुद कलिका हे खिली जाती अभी 
कौन मर-मरकर जियेगा इस तरह 
यह समस्या हल न होगी कया कमी 
( कमला ओर देवकी का प्रवेश ) 
देवकी--भटाक ! कहों है मेरा सबस्व ? बता दे-मेरे आनन्द 
का उत्सव, सेरी आशा का सहारा, कहाँ है ९ 
भटाके--कोन ! 
... कमला--छतन्न ! नहीं देखता है, यह वह्दी देवी हैं--जिन्‍्होंने 
तेरे कर अपराध का क्षमा किया था-जिन्होने तुमसे 
घिनोने कीड़े को भी मरने से बचाया था। वही, वही, देव-प्रतिमा 
महादेवी देवकी । 
भटाक-( पहचानकर ) कौन ? सेरी सो ! 
कमला--तू कह सकता है। परन्तु मुझे तुमको पुत्र कहने 
सड्भीच होता है, लज्जा से गड़ी जा रही हूँ | जिस जननी की 
१५२० 


वि 


सर 


चतुर्थ अंक 

संतान--जिसका |अभागा पुत्र--ऐसा देशद्रोही हो, उसको क्‍या 
मेँह दिखाना चाहिये ? आह भठाक ! 

भटाक--राजमाता ओर मेरी माता ! 

देवकी--बता भटाक ! वह आय्योवतति का रत्न कहाँ है ९ 
देश का बिना दाम का सेवक, वह जन-साधारण के हृदय का 
स्वामी, कहाँ है ? उससे शजन्रुता करते हुए तुझे ***** 

कसला--बोल दे भटाकत ! 

भटाक--क्‍्या कहूँ, कुमा की छुब्घ लहरों से पूछो, हिमवान 
की गल जानेवाले बफ़ों से पूछो कि वह कहो है। में नहीं *' *** 

देवकी--आह ! गया मेरा स्कद !! मेरा प्राण !!! 

( गिरती हे, झत्यु ! ) 


कमला--( उसे सम्हालती हुईं ) देख पिशाच ! एक बार 
अपनी विजय पर ग्रसन्नता से खिलखिला ले । नीच ! पुण्य-प्रतिमा 
को, स्लियों की गरिमा को; धूल में लेटता हुआ देखकर, एक 
बार हृदय खोलकर हँस ले । हा देवी ! 

भटाक--क्‍्या ! £ भयभीत द्वोकर देखता है ) 

कमला--इस यंत्रणा और प्रतारणा से भरे हुए संसार की 
पिशाच-भूमि को छोड़कर अक्षय लोक को गई, और तू जीता 
रहा--सुखी घरों में आग लगाने, हाहाकार मचाने ओर देश 
को अनाथ बनाकर उसकी दुदंशा कराने के लिये--नरक के 
कीड़े ) तू जीता रहा !! 

भटार्क--मा, अधिक न कहो। साम्राज्य के विरुद्ध कोई 

१२१ 


ऑकंदंगुप्त 
अपराध झरने का मरा उहंश नहां रहीं था; केवल पुरगप्त को सिंद्ाः बल पुरशप्त क्र 55. 


सन पर विठावे की-मतिदा-से-ऑरित-होकरः-सेंने “यह-किया +- 
स्कदशुप्त न सही, पुरशुप्त सम्राट होगा । 


कसला--अरे सूर्खे ! अपनी तुच्छ बुद्धि को सत्व मानकर, 
उसके दप सें भूलकर, मनुष्य कितना वड़ा अपराध कर सकता 
| पामर ! तू सम्राटों का नियामक वन गया ? सेच भूल का; 
सूतिका-गृह में ही तेरा गला घोंदकर क्‍यों न सार डाला  आत्म- 
हत्या के अतिरिक्त अब ओर कोई प्रायश्चित्त नहीं । 


/॥ ८| 


भटाक--मा, क्षमा करों । आज से मेने शल्र-त्याथ किया। 


में इस संघर्ष से अलग हूँ, अब अपनी दुचंद्धि से तुन्हें कष्ट न 
पहुँचाऊँगा | ( तलवार डाल देता है ) 


कमला--तूने विल्स्व किया भटाक ! महादेवी'”*एक 
दिन जिसके नाम पर ॒गुप्र-साम्राज्य नतसस्तक होता था; आज 
उसकी अन्‍्त्येप्टि-क्रिया के लिये कोई उपाय नहीं !*****“'हा छुदेंव ! 

भठाक--( ताली वजाता है, सेनिक आते हैं) महादेदी की 
अन्त्येष्टि-क्रिया राजसम्मान से होनी चाहिये। चलो, शीघ्रता 
करो ! 


दि । 


“७ है] है 


5 4 
प्र 


व को एक ऊँचे स्थान पर दाने मिलकर रखते 


/॥ 


) 


श्ं 


कमला ह व ऊ 
कसला--भटाक | इस पुण्यचरण के स्प॒श से, संभ 


तेरा 
पाप छूठ जाय | 


»| 
(॥ 


| भटक और कमला पर तीब्र आलोक ] 


[ काश्मीर ] 
( न्यायाधिकरण में मातृगुप्त ) 
( एक स्री ओर दंढनायक ) 


मातृशुप्त--नन्दीग्रास के दंडतायक देवनंद | यह क्या है ९ 

देवन॑द--कुमारामात्य की जय हो ! बहुत परिश्रम करने पर 
भी में इस रसणी के अपहृत धन का पता न लगा सका। 
इसमें मेरा अपराध अधिक नहीं है। 


साठूगुप्त--फिर किसका है ? तुस गुप्तसाम्राज्य का विधान 
भूल गये | प्रजा की रक्षा के लिये 'कर” लिया जाता है | यदि तुम 
उसकी रक्षा न कर सके, तो वह अथ तुम्हारी श्रुति से कटकर 
इस रसणी को सिलेगा । 

देवनंद--परंतु वह इतना अधिक है कि मेरे जीवन-भर की 
भूति से भी उसका भरना असम्भव है | 

माठ्सुप्त-तब राज-कोष उसे देगा, और तुम 'उसका फल 
भोगोगे । 

देवनंद--परंतु में पहले ही निवेदन कर चुका हूँ, इसमें मेरा 
अपराध अधिक नहीं है । यह श्रीनगर की सबसे अधिक समृद्धि- 
शालिनी वेश्या है। यह अपने अंतरंग लोगों का परिचय भी 
नहीं बताती; फिर में कैसे पता लगाऊँ ? गुप्तचर भी थक गये । 

माठ्युप्त-हाँ, इसका नाम सैं भूल गया। 

देवनंद---मालिनी । 

१६३ 


स्कंदगुप्त 

मातृगुप्त--क्या ! मालिनी ? (छुछ सोचता हुआ ) अच्छा; 
जाओ, कोषाध्यक्ष को भेज दो । 

( देवनद का प्रस्थान ) 

माद्शुप्त-मालिनी ! अवगुंठन हटाओ, सिर ऊँचा करो ; मैं 
अपना अम-निवारण करना चाहता हूँ । 

( अवगुंठन हठाकर मालिनो माद्गुप्त की ओर देखती है, माढ्गुप्त 
चकित होकर उक्षकों देखता है। ) 

मात्शुप्त तुम कौन दो--मालिनी ? छलना ! नहीं-नहीं, 
अम है ! 

सालिनी--नहीं साठ्गुप्त, में ही हूँ! अवशगुंठन केवल इसो 
लिये था कि में तुम्हें मुख नहीं दिखला सकती थी। मादठ्गुप्त ! 
में वही हैँ। 

साठ्गुप्त--तुम ? नहीं सेरी मालिनी ! मेरे हृदय को आराध्य 
देवता--वेश्या ! असम्भव । परंतु नहीं, वही है मुख ! यद्यपि 
विलास ने उसपर अपनी सल्िन छाया डाल दी है--उसपर 
अपने अभिशाप को छाप लगा दी है; पर तुम वही हो । हा दुर्देव ! 

सालिनो--दुर्देव ! 

साठ्युप्त-मै आज तक तुन्हें पूजता था । तुम्हारों पवित्र 
स्मृति के कंगाल की निधि की भाँति छिपाये रहा । सूख में... 
आह सालिनी ! मेरे शून्य भाग्याकाश के संदिर का द्वार खोल 
कर तुम्हीं ने उनीदी उषा के सद्श माँका था, और मेरे भिखारी 
हक स्वण बिखेर दिया था। तुम्हीं मालिनी ! तुमने सोने 
के लिये नंदून का अम्लान कुसुम बेंच डाला। जाओ मालिनी ! 
राज-कोष से अपना धन ले लो । 


५२४ 


चतुथ अंक 
सालिनी--( माद्सुप्त के पैरों पर गिरती हुई) एक बार क्षमा 
कर दो माह्युप्त ! 
माट्गुप्त-में इतना दृढ़ नहीं हूँ मालिनी ! कि तुम्हें इस 
अपराध के कारण भूल जाऊँ। पर वह स्मृति दूसरे प्रकार की 
होगी । उसमें ज्वाला न होगी। धुँआ उठेगा और तुम्हारी मूत्ति 
धुथली होकर सामने आवेगी ! जाओ ! 
( मालिनी का प्रस्थान, चर का प्रवेश ) 


चर--कुमारामात्य की जय हो ! 

साट्युप्त--क्या समाचार है ? सम्राद्‌ का पता लगा 

चर--नही । पंचनद हणों के अधिकार में है, ओर वे 
काश्मीर पर भी आक्रमण किया चाहते है । 

मातृ०--जाओं ! 

( चर का प्रस्थान ) 

मातू०--तो सब गया ! मेरी, कल्पना के सुंदर स्॒प्मां का 
प्रभात हो। रहा है । नाचती हुईं नीहार-कणिकाओं पर तीखी 
किरणों के भाले ! आह ! साचा था कि देवता जायेंगे, एक बार 
आयावत्त में मोर का सूथ्ये चमकेगा, और पुण्यकर्मों से समस्त 
पाप-पह्ु था जायेंगे; हिमालय से निकली हुईं सप्तसिधु तथा गंगा- 
यमुना की घाटियों, किसी आये सदूगृहस्थ के स्वच्छ ओर . 
पवित्र ऑगन-सी, भूखी जाति के निवोसित आशियें को अन्नदान 
देकर संतुष्ट करेंगी ; और आय्यजाति अपने दृढ़ सबल हाथो में , 
शख्नन्य्द्ण करके पुएय का पुरस्कार ओर पाप का तिरस्कार 
करतो हुईं, अचल हिमाचल की भांति सिर ऊँचा किये, विश्व को 


५१२५ 


४ ५ डनेंब्य न 2्कमररिलन 


जल 3-० 
आग आ ५ $ अत जनता 


जन 


स्कद्युप्त 

सदाचरण के लिये सावधान करती रहेगी; आलस्थ-सिंधु में 
शेप-पय्येक-शायी सुपुप्तिनाथ जागेंगे; सिंघु में हलचल होगी, 
रल्लाकर से रह्नराजियों आय्यावचे की वेला-भूमि पर निछावर 
होंगी । उद्वोधन के गीत गाये, हृदय के उद्गार सुनाये, परन्तु 
पासा पल्टकर भो न पत्रठा ! ग्रवीर उदार-हृदय स्कंदगुप्त, कहाँ 
हैं ? तब, काश्मीर ! तुमसे विदा ! 


[ प्रस्थान | 


[ नगर-प्रांत में पथ ] 
€ घातुसेन ओर प्रख्यातकीर्सि ) 


प्रस्यात०--प्रिय वयस्य ! आज तुम्हें आये तीन दिन हुए, 
क्या सिहल का राज्य तुम्हे भारत-पय्यटन के सामने तुच्छ प्रतीत 


होता है ? 


धातुसेन--भारत समग्र विश्व का है, और सम्पूर्ण 
वसुन्धरा इसके ग्रम-पाश मे आबद्ध है। अनादि-काल से ज्ञान 
की, सानवता की, ज्योति यह विकीण कर रहा है । वसुन्धरा का 
हृदय--भारत--किस सूख को प्यारा नहीं है ? तुम देखते नहीं 
कि विश्व का सबसे ऊँचा झूंग इसके सिरहाने, ओर सबसे 
गम्भीर तथा विशाल समुद्र इसके चरणों के नीचे है ? एक-से- 
एक सदर दृश्य प्रकृति ने अपने इस घर में चित्रित कर रक्खा 
है। भारत के कल्याण के लिये मेरा सवस्व अर्पित है। किन्तु 
देखता हूँ, बौद्ध जनता और संघ भी सांम्राज्य के विरुद्ध हैं । 
महाबोधि-विहार के संघ-महास्थविर ने निवोण-लाभ किया है, 
उस पद के उपयुक्त मारत-भर में केवल प्रख्यातकीत्ति है । तुमसे 
संघ को मलिनता बहुत-कुछ घुल जायगी। 

प्र्यात०-राजमित्र ! मुझे क्षमा कीजिये। में धम्म-लाभ 
करने के लिये भिक्षु हुआ हूँ, महास्थविर बनने के लिये नहीं । 

धातुसेन--मित्र ! में मातृगुप्त से मिलना चाहता हूँ । 

प्रस्यात०--वह तो विरक्त होकर घूम रहा है ! 

धातुसेन--तुमको मेरे साथ काश्मीर चलना होगा । 

१२७ 


स्कंद्गुप्त 
प्रस्यात7-पर अभी तो कुछ दिन ठहरोगे ९ 
घातुसेन--जहाँ तक संभव हो; शोध चलों । 
( एक भिक्तु का प्रवेश ) 
सिश्लु--आचास्य ! सहान अनर्थ ! 
प्रद्यात०--क््या है; कुछ कहो भी ? 
भिक्षु-विदह्दार के समीप जो चतुष्पथ का चैत्य है, वहाँ 


कुछ त्राह्मण वलि किया चाहते हैं ! इधर भिक्षु और बौद्ध जनता 
उत्तेजित है । 


धातु०--चलो, हम लोग भी चलें--उन उच्ेजित लोगों को 
शान्त करने का प्रयत्न करें । 


[ सब जाते हैं | 


' [ बिहार के समीप चतुष्पथ । एक ओर बाह्यण लोग बलि का उप- 
करण लिए, दूसरी ओर भित्षु ओर बोद्ध जनता उत्तेजित । दंढनायक 
का प्रवेश ] 


दंडनायक्र--नागरिकगण ! यह समय अन्तर्विद्रोह का नहीं 
है । देखते नहीं हो कि साम्राज्य बिना कर्णधार का पोत 
होकर डगगगा रहा है, और तुम लोग श्षुद्र बातों के लिये परस्पर 
भंगड़ते हो ! 


त्राह्मण--इन्‍्हीं बौद्धों ने शुघ्त शत्रु का काम किया है। कई 
बार के विताड़ित हुण इन्हीं लोगों की सहायता से पुनः आये हैं। 
इन गुप्त शत्रुओं को क्तन्नता का उचित दंड मिलना चाहिये । 


श्रमण--ठोक है। गंगा, यमुना और सरयू के तट पर गड़े 
हुए यज्ञयूप सद्धम्मियों की छाती में ठुकी हुईं कोलों की तरह अब 
भी खटकते हैं। हम लोग निस्लहाय थे, क्या करते ? विधर्म्सी 
विदेशी की शरण मे भी यदि प्राण बच जायेँ और धम्म की रक्षा 
हो । राष्ट्र आर समाज मनुष्यों के ढारा बनते है--उन्हीं के सुख 
के लिये। जिस राष्ट्र और समाज से हमारी सुख-शान्ति में बाघा 
पड़ती हो, उसका हमें तिरस्कार करना ही होगा। इन संस्थाओं, 
का उद्देश है--सानवों की सेवा । यदि वे हमीं से अवैध सेवा 
लेना चाहें और हमारे कष्टठों को न हटावें, तो हमे उसकी सीमा 
के बाहर जाना ही पड़ेगा । 

ब्राह्मए--आह्मणां को इतनी हीन अवस्था में बहुत दिनों तक 
विश्वनियंता नहीं देख सकते | जो जाति विश्व के मस्तिष्क का 
शासन करने का अधिकार लिए उत्पन्न हुई है, वह कभी चरणों के 


१२९ 


स्कंदरुप्त 

६2 होगी 5 लक 
नीचे न बैठेगी । आज यहाँ बलि होगी--हमारे धम्मोचरण में 
स्वयं विधाता भी बाधा नहीं डाल सकते | 


श्रमणु--निरीह प्राणियों के वध में कौन-सा घम्म है जाह्मण ९ 
तुम्हारी इसी हिंसा-नीति और अहंकारमूलक आत्मवाद का 
खंडन तथागत ने किया था। उस समय तुम्दारा ज्ञान-गोौरव कहाँ 
था ? क्‍यों नतमस्तक होकर समग्र जस्वूद्वीप ने उस ज्षान- 
रणमूमि के अधान मछ के समक्ष हार स्वीकार की ? तुम हमारे 
धर्म पर अत्याचार किया चाहते हो, यह नहीं हो सकेगा । इन 
पशुओं के बदले हमारी बलि होगी । रक्त-पिपासु ढुद्दोन्‍्त ब्राह्मण- 
2 हो । तुम्हारी पिपासा हम अपने रुधिर से शांत करेंगे । 


८८” घातुसेल--( मवेश करके > अहंकारमूलक आत्मवाद का 
खंडन करके गौतम ने विश्वात्मवाद को नष्ट नहीं किया। यदि वैसा 
करते तो इतनी करुणा की क्या आवश्यकता थीं ? उपनिषदों के. 
नेति-नेति से ही गौतम का अनात्मवाद पूर्ण है। यह प्राचीन 

महषियों का कथित सिद्धान्त, सध्यसा-प्तिपदा के नाम से, ससार; 
में प्रचारित हुआ ; व्यक्तिरूप मे आत्मा के सदृश कुछ नहीं है। 
वह एक सुधार था, उसके लिये रक्तपात क्‍यों ९ 


दंडनायक--देखो, यदि ये हठी लोग कुछ तुम्हारे समम्माने 
से मान जायें; अन्यथा यहाँ बलि न होने दूँगा। 


त्राह्मण--क्यों न होने दोगे ? अधार्मिक शासक | क्‍यों न 
पी 5७ इन 
होने दोगे ? आज गुप्त कुचक्रों से गुप्तसाम्राज्य शिथिल है। कोई 
क्षत्रिय राजा नहीं, जो ब्राह्मण के धम्म की रक्षा कर सके--जों' 

१३० 


चतुरथ अंक 
धम्मोचरण के लिये अपने राजकुमारों को तपस्वियों की रक्षा में 
नियुक्त करें ! आह धम्मदेव ! तुम कहाँ है| ? 
धातुसेन--सप्रसिंघु-प्रदेश नशंस हसणों से पादाक्रांत है । 
जाति भीत और त्रस्त है, और उसका धम्स असहाय अवस्था में 
पेरों से कुचला जा रहा है। ज्ञन्निय राजा, धम्मे का पालन कराने 
वाला राजा; पृथ्वी पर क्‍यों नहीं रह गया ९ आपने इसे विचारा 
है ? क्‍यों ब्राह्मण टुकड़ों के लिये अन्य लोगों की उपजीविका 
छीन रहे हैं? क्यों एक वर्ण के लोग दूसरों की अथंकरी 
वृत्तियाँ ग्रहण करने लगे है ? लोभ ने तुम्हारे घम्म॑ का व्यवसाय 
चला दिया । दक्षिणाओं की योग्यता से--स्वगं, पुत्र, धन, यश, 
विजय और मोक्ष तुम बेचने लगे। कामना से अंधी जनता के 
विलासी-समुदाय के ढोंग के लिये तुम्हारा धम्म आवरण हो 
गया है । जिस धस्स के आचरण के लिये पुष्कल स्वर्ण 
चाहिये, वह धम्म जन-साधारण को सम्पत्ति नहीं ! धम्सें- 
वक्त के चारों आर खण के काँटेदार जाल फेलाये गये है, 
और व्यवसाय की ज्वाला से वह दग्ध हो रहा है । जिन घनवानों 
के लिये तुमने धम्म को सुरक्षित रक्खा, उन्होंने समझा कि धस्म 
धन से खरीदा जा सकता है ; इसलिये धनोपाजन मुख्य हुआ 
और धम्मे गोण । जो पारस्य-देश की मूल्यवान सद्रि रात के 
पी सकता है, वह धार्मिक बने रहने के लिये प्रभात में एक 
गो-निष्क्रमय भी कर सकता हे । धस्म के बचाने के लिये तुम्हे 
राजशक्ति की आवश्यकता हुईं। धर्म इतना निबल है कि वह 
पाशव बल के द्वारा सुरक्षित होगा ९ 


ब्राह्यण--तुसम कौन हो ? सूख उपदेशक ! हट जाओ। 
१३१ 


'स्कंदगुप्र 


तुम नास्तिक प्रच्छत्न बौद्ध तुमको अधिकार क्या है कि हमारे 
'धर्म्स की व्याख्या करो ? 


धातुसेल--ज्राह्मण क्‍यों महान हैं. ? इसीलिये कि वें 
त्याग और क्षमा की मूर्ति हैं। इसीके वल पर बढ़े-बढ़े सम्राट 
उनके आश्रमों के निकट निरख होकर जाते थे, और वे तपस्वी 
ऋत और अमृत बृत्ति से जीवन-निबरोह करते हुए साउयं-प्रातः 
अप्निशाला में भगवान से प्राथना करते थे-- 


सर्वेदपि सुखिनः सनन्‍्तु सर्वे सन्तु निरामयाः 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्रिदुदुःखमाप्नुयाद 


--आप लोग उन्हीं ब्राह्मणों की संतान हें, जिन्होंने अनेक 
0७ ३ पु 4 
चज्ञों को एक वार ही बंद कर दिया था। उनका धम्म समया- 


नुकूल प्रत्येक परिवर्तन को स्वीकार करता है ; क्योंकि सानव- 


बुद्धि ज्ञान का--जों वेदों के हारा हमें मिला है--प्रस्तार 
करेगी, उसके विकास के साथ बढ़ेगी; और यही धर्म्म की 
श्रे्ठता है । 


प्रत्यातकीत्ति--धर्म के अंधभक्तो ! मनुष्य अपूर्ण है । 
इसलिये सत्य का विकास जो उसके द्वारा होता है, अपूर्ण होता 
है। यही विकास का रहस्य है। यदि ऐसा न हो तो ज्ञान की 
चूद्धि असंभव हो जाय | प्रत्येक प्रचारक को कुछ-न-कुछ प्राचीन 
असत्य-परम्पराओं का आश्रय इसीसे अरहदण करना पड़ता है । 
सभी धस्सं, समय ओर देश की स्थिति के अनुसार 


े हक. रे गों ; विद्वत 
हो रहे हैं और होंगे। हम लोगों को हृठधर्म्मी से उन्त आगंतुक- 
११२ 


चतुर्थ अंक 
क्रमिक पूणता प्राप्त करनेवाले ज्ञानों से मुँह न फेरना चाहिये। 
हम लोग एक ही मूल धस्म की दो शाखाएँ हैं। आओ, हम 
दोनों अपने उदार विचार के फूलों से दुःख-दग्ध मानवों का 
कठोर पथ कोमल करें । 


बहुत-से लोग--ठीक तो है, ठीक तो है। हम लोग व्यर्थ 
आपस मे ही मगढ़ते हैं और आततायियों को देखकर घर में 
घुस जाते है | हूणों के सामने तलवारें लेकर इसी तरह क्‍यों 
नहीं अड़ जाते ९ 


दंडनायक--यही तो बात है नागरिक ! 


प्रख्यातकीत्ति--मैं इस विहार का आचाय्य हूँ, और मेरी 
सम्मति धार्मिक मंगड़ों में बोद्"ों को माननी चाहिये। में जानता 
हूँ कि भगवान ने प्राणिसात्र को बराबर बनाया है, और जीव-रक्षा 
इसी लिये धम्मे है। किन्तु जब तुम लोग स्वयं इसके लिये युद्ध 
करोगे, तो हत्या की संख्या बढ़ेगी ही । अतः यदि तुममें कोई सच्चा 
धार्मिक हो तो वह आगे आवबे, और ब्राह्मणों से पूछे 
कि आप मेरी बलि देकर इतने जीवों के छोड़ सकते हैं । क्योंकि 
इन पशुओं से मनुष्यों का मूल्य ब्राह्मणों को दृष्टि में भी विशेष 
हागा। आइये, कोन आता है, किसे बोधिसत्व होने की इच्छा है ? 


( बोढों में ले कोई नहीं ह्िलता ) 


प्रख्यात०--( हँसकर ) यही आपका धम्मोन्माद था ९ एक 

युद्ध करनेवाली मनोवृत्ति की प्रेरणा से उत्तेजित हवाेकर अधम्स 

करना और धम्मोचरण की दुन्दुभी बजाना-यही आपको 
११३ 


स्कद्गुप्त 


फरुणा की सीमा है ? जाइये, घर लौट जाइये । (त्राह्मण से > 
आओ रक्त-पिपासु धार्म्मिक ! ले, मेरा उपहार देकर अपने देवतः? 
के संतुष्ट करो ! ( सिर झुका लेता है ) 


ब्राह्मण-( तलवार फेंक्कर ) धन्य हे। महाश्रसण ! में नहीं: 


जानता था कि तुम्हाए-ऐसे धामिक सी इसी संघ में है | मे बलि 
नही करूँगा। 


[ जनता में जयजयकार; सब धोरे-धीरे जाते हैं | 


[ पथ में विजया श्र माढगुप्त ] 
विजया--नहीं कविवर ! ऐसा नहीं । 
साठगुप्त--कौन, विजया ९ - 


विजया--आश्चय्य और शोक का समय नहीं है। सुकवि- 
'शिरोमणे ! गा चुके मिलन-पंगोत, गा चुके कोमल कल्पनाओ के 
लचीले गान, रो चुके प्रेम के पचड़े ? एक बार बह उद्बोधन-१ 
गोत गा दो कि भारतीय अपनी ,नृश्वरता, पर विश्वास करके४ 
अमर भारत की सेवा.के लिये सन्नद्ध है|. जाये ! 

माट्गुप्त-देवी ! तुम देवी . . . . .« 

विजया--हाँ माठ्गुप्त ! एक ग्राण बचाने के लिये जिसने 
तुम्हारे हाथ मे काश्मीर-मंडल दे दिया था, आज तुम उसी 
सम्राट्‌ के खेजते हे! । एक नहीं, ऐसे सहख््र स्कन्दशुप्त, ऐसे 
सहस्रों देव-तुल्य उदार युवक, इस जन्म-मूमि पर उत्सगे हे। 
जायेँ | सुना दो वह संगीत--जिससे पहाड़ हिल जाय और 
समुद्र कॉपकर रह जाय ; अँगड़ाइयों लेकर मुचकुन्द की मेह- 
निद्रा से भारतवासी जग पड़ें। हम-तुम गली-गली कोने-कोने 
पय्येटन करेंगे, पेर पड़ेंगे, लोगो के जगावेंगे | 

मातुगुप्त-वीरबाले ! तुम धन्य है।। आज से में यही 
करूँगा। ( देखकर ) वह लो--चक्रपालित आ रहा दे ! 

( चक्रपादित का प्रवेश ) 


चक्र०--लक्ष्मी की लीला, कमल के पत्तों पर जल-बिन्हु, 
आकाश के मेघ-समारोह--अरे इनसे भी क्षुद्र नीहाए-कशिकाओं 


१३५ 


स्कदशुप्त 
की प्रभात-लीला | मनुष्य को अदृष्ट-लिपि वैसी हो है जेसी 
अग्नि-रेखाओं से कृष्ण सेघ में बिजली की वरणुसाला-- 
एक क्षण मे प्रज्वलित, दूसरे क्षण में विलोच होनेवाली। भवि- 
ध्यत्‌ का अजुचर तुच्छ मनुष्य केवल अतीत का स्वामी है ! 

सात्युप्त--बन्धु चक्रपालित ! 

--कौन, माठ्गुप्त 
भीस०--( सहसा प्रवेश करके ) कहाँ है मेरा भाई, मेरे हृदयः 


का बल, झ्जुजाओं का तेज, वसुन्धरा का झंगार, वीरता काः 
वरणीय बंधु, मालव-मुकुट आय बंघुवस्मा 


( अख्यातकोति और अ्रसर का प्रवेश ) 


प्रस्यात+--सब पागल, छुट गये-से, अनाथ और आश्रय- 
हीन--यही तो हैँ! आय्येराष्ट्र के कुचले हुए अंकुर, भग्न 
साम्राज्य-पोत के टूटे हुए पटरे ओर पतवार, ऐसे वीर हृदय !' 
ऐसे उदार !! 

साठ्गुप्त--तुम कोन हो ९ 

प्रस्यात०--सम्भवतः तुम्दीं माठगुप्त हो ! 

साठगुप्त ( शंका से देखता हुआ ) क्‍यों अहेरी छुत्तों के 
समान सृूघते हुए यहां भी ! परंत तुम . .. . . 


अख्यात०--संदह सत करो सादठ्गुप्त ! शशव-सहचर कुसार 


धातुसेन की आज्ञा से में तुम लोगों को खोज रहा हूँ। यह लो 
प्रमाण-पत्र | 





साह्गुप्त--( पढ़कर ) घन्य सिंहल के युवराज श्रमण ! 
१३६ 


इक 
है 


बम स्खलन #| हे... ४५ 
क+ 


पक 


का ली. हक ैस्‍नोओ 
कक क 


४२ 


के झ चार फ्त कं, रूछ 
कर 
रब 
रू 


च आ 


[ कमला की कुदी | 
(विचित्र अवस्था में स्कंदगुप्त का प्रवेश ) 


स्कंद०--बौद्धों का निवोण, योगियों को समाधि और 
पागलों की-लो सम्पूरण विस्थृति मुके एक साथ चाहिये। चेतना 
'कहती है. कि तू राजा है, और उत्तर में जैसे कोई कहता है कि तू 
(खिलौना है--उसी खिलवाड़ी बटपत्रशायी बालक के हाथों का 
- खिलौना है । तेरा मुकुट श्रम्नजीबी. की.टोक़री, से सी तुच्छ है ! 


करुणा-सहचर ! कया जिसपर कृपा होती है, उसीकों दुःख 
का असोध दान देते हो ? न्ञाथ ! मुझे ठुःखों से भय नहीं, संसार 
के संकोच-पूरा संकेतों की लज्जा नहीं । वेभव की जितनी कड़ियाँ 
टूटती हैं, उतना ही मनुष्य बंधनों से छूठटता है, और तुम्हारी ओर 
अग्रसर होता है ! परन्तु'**““'यह ठीकरा इसी सिर पर फूठने के 
था ! आय्य-साम्राज्य का लाश इन्हीं आँखो को देखना था! 
हृदय कॉँप उठता है, देशाभिमान गरजने लगता है! मेरा स्वत्व 
न हो, मुझे अधिकार की आवश्यकता नहीं। यह नीति और 
सदाचारों का महान आश्रय-वक्ष-शुप्तसाम्राज्य--हरा-भरा रहे, 
और कोई भी इसका उपयुक्त रक्षक हो। ओह ! जाने दे।, गया, 
सब कुछ गया ! सन बहलाने को केाई वस्तु न रही । कत्तेब्य-- 
विस्तृत; भ्रविष्य--अंधकार-पूणे, लक्ष्यदीन दौड़ और अनंत 
सागर का संतरण है ! 
बजा दो वेशु मनमोहन ! बजा दो 
हमारे सुप्त जीवन को जगा दो 
१३८ 


चतुर्थ अंक 
विमल स्वातंत्य का बस मंत्र फूँको 
हमे सच भीति-बंधन से छुड़ा दो 
सहारा उन अगुलियों का मिले हाँ 
रसीले राग में मन को मिला दो 
तुम्हीं सतत हो इसीकी चेतना हो 
इसे आनन्‍्दसय जीवन बना दो 


( प्रार्थना में झुकता है; उन्‍्मत्त भाव से शवनाग का प्रवेश ) 


शव ०--छीन लिया, गोद से छीन लिया; सोने के लोभ से 
मेरे लालों को शूल पर के माँस की तरह सेंकने लगे ! जिनपर 
विश्व-भर का भांडार लुटाने के में प्रस्तुत था, उन्हीं गुदड़ी के 
लालों को राक्षसों ने--हूणां ने--छुटेरों ने--छट लिया ! किसने 
आहों के सुना (भगवान ने ? नहीं, उस निष्ठुर ने नहीं 
सुना | देखते हुए भी न देखा। आते थे कभी एक पुकार पर, 
दौड़ते थे कभी आधी आह पर, अवतार लेते थे कभी आर्य्यों 
की दुदंशा से दुखी होकर; अब नहीं । देश के हरे कानन चिता 
बन रहे हैं। धधकती हुई नाश की प्रचंड ज्वाला दिग्दाह कर 
रही है। अपने ज्वालामुखियों को बफ की मोटी चादर से 
छिपाये हिमालय मौन है, पिघलकर क्यों नहीं समुद्र से जा 
मिलता ? अरे जड़, मूक, बधिर, प्रकृति के टीले ! 


( 5न्म्त्त भाव से प्रस्थान 2) 
स्कंद०--कौन है ? यह शवनाग है क्या ? क्‍या अन्तर्वेद भी 
हणों से पादाक्रांत हुआ ? अरे आय्योवत्त के ढुंढंव बिजली के 


१३५ 
१० 


( 


हु 


स्कद्गुप्त 
अक्षरों से क्‍या भविष्यत्त्‌ लिख रहा है? भगवन ! यह अरधधोन्मत्त 
शव | आय्यसाम्राज्य की हत्या का केसा भयानक दृश्य है ९ 
कितना वीभत्स है ! सिंहों की विहारस्थली सें खगाल-बन्द सड़ी 
लोथ नोच रहे हैं ! 
( पगली रामा का प्रवेश; स्कद के देखकर ) 

रामा-छुटेरा है तू भी ! क्‍या लेगा, मेरी सूखी हड्डियाँ ९ 
तेरे दाँतों से दूटेंगी ? देख तो--( हाथ बढ़ाती है ) 

स्कंदु०--कोन ९ रामा ! 


रामा-( आश्चर्य से ) में रामा हूँ | हाँ, जिसकी संतान को 
हूणों ने पीस डाला ! ( ठहस्कर ) मेरी ? मेरी संतान ! इन 
अभागों कीन्‍सी वे नहीं थीं । वेते तलवार की वारीक 
धार पर पैर फैलाकर सोना जानती थी | धधकती हुई ज्वाला में 
हँसते हुए कूद पड़ती थी | तुम ( देखती हुई ) छ॒टेरे भी नहीं , उहूँ, 
कायर भी नहीं; अकम्मण्य बातो में सुलानेवाले तुम कौन हे ? 
देखा था एक दिन ! वही ता है. जिसने अपनी प्रचंड हुझ्कार से 
दत्युओ को केपा दिया था, ठोकर सारकर सोई हुईं अकम्मश्य 
जनता के जगा दिया था, जिसके नास से रोएँ खड़े हो जाते थे, 


_ झुजाएँ फड़कने लगती थीं। वहीं स्कंद-रमणियों का रक्षक, 


(शत अल तन +्ीाया5 आर बच्चों) ञ> ५ ०५ _:5 
वालका का विश्वास, वृचत्ता/ का आश्रय, ओर आदसय्योवन्ते की 
छत्रच्छाया। नहीं, श्रम हुआ ! तुम निष्प्रस, निस्तेज, उसीके 
मलिन-चित्र-से तुम कौन हो ? ( प्रस्थान ) 

स्कंदू०--( बैठकर ) आह ! में वही स्कंद्‌ हँ--अकेला:. 
तिस्सहाय_। जा 


१४० 


चतुर्थ अंक 
( कमला कुटी खोलकर बाहर निकलती है ) 


कमला--कौन कहता है तुम अकेले हो ? समग्र संसार तुम्हारे 
साथ है । स्वानुभूति को जागृत करो | यदि भविष्यत्‌ से डरते 
हो कि तुम्हारा पतन ही समीप है, तो तुम उस अनिवाय्य स्रोत से 
लड़ जाओआ। तुम्हारे प्रचंड और विश्वासपूर्ण पदाघात से विध्य 
के समान कोई शैल उठ खड़ा होगा, जो उस विन्न-स्रोव को लौटा 
देगा । राम ओर कृष्ण के समान क्या तुस भी अवतार नहीं हो 
सकते ? समझ लो, जो अपने कर्मों को इंश्वर का कम्मे सममझ- 
कर करता है, वही ईश्वर का अवतार है। उठो स्कंद ! आसुरी 
वृत्तियों का नाश करो, सोनेवालों को जगाओ, और रोने- 
वालो को हँसाओआ। आय्यांवत्त तुम्हारे साथ होगा और उस 
आय्य-पताका के नीचे समग्र विश्व होगा । वीर ! 


स्कंद०--कौन तुम ? भटाक की जननी ! 
( नेपथ्य से क्रदन-- बचाओ बचाओ ! का शब्द ) 
स्कंद०--कोन ? देवसेना का-सा शब्द ! मेरा खड़ग कहाँ 
है? (जाता है) 
( देवसेना का पीछा करते हुए हुण का अवेश ) 
देवसेना-भीस ! भाई ! मुझे इस अत्याचारी से बचाओ, 
कहाँ गये ९ 


हुणु--कौन तुझे बचाता हे | € पकड़ना चाहता हे, देवसेवा 
छुरी निकालकर आत्म-हत्या किया चाहती है । पर्णदतत सहतता एक ओरू 
१४१ 


स्कंद्गुप्त 
से आकर एक हाथ से हण की गर्दन, दूसरे हाथ से देवसेना की छुरी 
पकड़ता है । ) 

हूशु-क्षसा हो ! 

पणदत्त-अत्याचारी ! जा, तुमे छोड़ देता हैँ । आ बेटी, 
हम लोग चलें सहारेवी की समाधि पर | 

कसला--कहों, वहीं--कनिष्क के स्तूप के पास ? 

देवसेना--होँ, कौन--कमला देवी ९ 

कसला--वही अभ।गिनी । 

देवसेना--अच्छा, जाती हूँ; फिर मिलूंगी । 

( परदत्त के साथ देवसेना का प्रस्थान ) 
( स्कंद का अवेश ) 

.. स्कंद०--कोई नहीं मिला। कहाँसखे वह पुकार आई थी ९ 
भरा हृदय व्याकुल हो उठा है। सच्चे मित्र बंधुवर्म्मा की 


धरोहर ! ओह ! 


कमला--वह सुरक्षित है, घवराइये नहीं। कनिष्क के स्तूप के 
पास आपको साता की समाधि है, वहीं पर पहुँचा दी गई है । 
स्कृंद०--मा ! मेरी जननी ! तू भी ले रही ! हा! 
€ मृच्छित होता है; कमला उसे छुटी में उठा ले जाती है । ) 


| पटाक्षेप 


५० के 
पचम अंक 
[ पथ में मुद्गल | 
मुदूगल--राजा से रंक और ऊपर से नीचे; कभो टुद्गंत् 


दानव, कभी स्नेह-संवलित मानव ; कहीं वीणा की कनकार, कहीं 
दीनता का तिरस्कार | ( घिरपर हाथ रखकर बेठ जाता है ) ६ 


साग्यचक्र ! तेरी चलिहायी ! जयमाला यह सुनकर कि 
वंघुवम्भों वीरगति को श्राप्त हुए, सती हो गई, और देवसेना 
को लेकर बूढ़ा परणंदत्त देवकुलिक का-सा महादेवी को समाधि पर 
जीवन व्यतीत कर रहा है। चक्रपालित, भीसवम्सों ओर मातृ- 
गुप्त राजाधिराज को खोज रहे है। सब विज्षिप्त ! सुना है कि 
विजया का मन कुछ फिरा है, चह भो इन्हों लोगो के साथ मिली 
है; परंतु उसपर विश्वास करने का मन नहीं करता । अनंतदेवी 
ने पुरगुप्त के साथ हणो से संवि कर ली हैं; मगध में महादेवी 
ओर परम भरद्टारक बनने का अभिनय हो रहा है ! सम्राद को 
उपाधि है “ प्रकाशादित्य ?; परन्तु अकाश के स्थान पर अंधेरा 
है | आदित्य में गर्मी नहीं। सिहासन के सिंह सोने के है ! समस्त 
भारत हणों के चरणों में लोट रहा है, और भटाक मूखे की बुद्धि 
के समान अपने कम्मों पर पश्चात्ताप कर रहा है। ( सामने 
देखकर ) वह विजया आ रही है ! तो हट चल्ध । 

( उठकर जाना चाहता है ) 


१४३ 


स्कंद्गुप्त ह 
विजया--अरे झुदूगल ! जैसे पहचानता हो न है । सच है; 
समय बदलने पर लोगों की ओंखें भी बदल जाती हैं । 


सुदूगल--तुम कोन है। जी १ मुझे वेजान-पहचान को छेड़छाड़ 
अच्छी नहीं लगतो और तिसपर में हूँ ज्योतिषी । जहाँ देखो 
वहीं यह प्रश्न होता है; सुके उन बातों के सुनने में भी संकोच 
होता है--“ मुझसे रूठे हुए है ? किसो दूसरे पर उनका स्नेह है ? 
वह सुन्दरो कप मिलेगी ? मिलेगी या नहीं ? ?--इस देश के 
छबीले छेल और रसीली छोकरियों ने यही प्रभु गुरुजी से पाठ 
पढ़ा है। अभिचार के लिये, जुआ खेलने के लिये, प्रेम के 
(लिये, और भी, अभिसार के लिये, मुहत्ते पूछे जाते हैं 
विजया--क्या मुदूगल ! मुझे पहचान लेने का भी तुम्हें 
अवकाश नहीं है ९ 
मुदूगल--अवकाश हो या नहीं, मुझे आवश्यकता नहीं । 
विजया--क््या आवश्यकता न होने से मनुष्य, मनुष्य से 
बात न कर ? सच है, आवश्यकता ही संसार के व्यवहारों को 
दलाल है ! परन्तु मनुष्यता भी कोई वस्तु है मुदगल ! 
मुदूगल--उसका नाम न लो । जिस हृदय मे अखंड वेग है, 
तीत्र ठृष्णा से जो पूर्ण है, जे। ऋृतन्नता ओर क्ररताओं का 
भांडार है, जो अपने सुख--अपनी तृप्ति के लिये संसार में सब 
कुछ करने को प्रस्तुत है, उसे सनुष्यता से क्या सम्बन्ध ? 
विजया--न सही, परन्तु इतना तो बता सकेगे, सम्राट 
स्कद॒गुप्त से कहाँ भेंट होगी ? क्‍योंकि यह पता चला है कि वे 
जीवित हैं। 


१४४ 


पंचम अंक 
मुद्गल--क्या तुम महाराज से सेंट करोगी, किस मह से ९ 
अचन्ती में एक दिन यह बात सब जानते थे कि विजया 
महादेवी होगी ! 
विजया--उसी एक दिन के बदले मुदूगल ! आज में फिर 
कुछ कहना चाहती हूँ | वही एक दिन का अतीत आज तक का 
भविष्य छिपाये था । 
मुद्गल--तुम्हारा साहस तो कम नहीं है । 
विजया--मुदगल ! बता दोगे ९ 
मुद्गल -छतुम विश्वास के योग्य नहीं। अच्छा अब और 
तुम क्‍या कर लोगी। देवसेना के साथ जहाँ पणुद्त्त रहते हैं, 
आज कमलादेवी के कुटीर से सम्राद वहीं अपनी जननी को 


समाधि पर जानेवाले हैं, उसी कनिष्क-स्तूप के पास । अच्छा, में 
जाता हूँ | देखो विजया ! मेंने बता तो दिया, पर सावधान ! 


(जाता है ) 


विजया--उसने ठीक कहा। सुझे स्वयं अपने पर विश्वास 
नहीं। स्वार्थ मे ठोकर लगते ही में परमार्थ की ओर दोड़ पड़ी । 
परन्तु क्या यह सच्चा परिवत्तेन है ? क्या में अपने को भूलकर 
देशसेवा कर सकेगी ? क्‍या देवसेना “'“'ओह ! फिर मेरे 
सामने वही समस्या । आज तो स्कन्दरुप्त सम्राद नहीं है; श्रति- 
हिंसे, सो जा। कया कहा ९ नहीं, देवसेना ने एक बार मूल्य 
देकर खरीदा था, परन्तु विजया भी एक बार वही करेगी। द्वेश 
सेवा तो होगी ही, यदि मैं अपनी ओी-का्मन्स-पूरी-करू-खकत्ती-! 
मेरा रत्गृह अभी बचा है, उसे सेना-संकलन करने के लिये. 


१४५ 


स्कंद्गुप्त 


सम्राट को ढूँगी; और एक बार बनूंगी महादेवी । क्या नहीं 
होगा ? अवश्य होगा । अदृष्ट ने इसीलिये उस रक्षित रत्नमृह 
को बचाया है. । उससे एक साम्राज्य ले सकती हूँ। तो आज 
वही करूँगी, और इसमें दोनों होगा-स्वा्थ और परमाथ। 

( प्रस्थान ) 


( भठाक॑ का प्रवेश ) 


भटाके--अपने कुकर्मों का फल चखने में कड़वा, परन्तु परि- 
णाम में मधुर होता है। ऐसा वीर, ऐसा उपयुक्त और ऐसा परोप- 
कारी स्नाद्‌। परन्तु गया-मेरी ही भूल से सब गया ! आज भी 
वे शब्द सामने आ जाते हैं, जो उस बूढ़े अम्ात्य ने कहा था-- 
#सटाके, सावधान ! जिस कालअझुजंगी राष्ट्रनीति को लेकर तुम खेल 
रहें हो; प्राण देकर भी उसकी रक्षा करना |”? हाय | न हम उसे 
वश सें कर सके और न तो उससे अलग हो सके | मेरी उच्च 
आकांक्षा; वीरता का दम्भ, पाखंड की सीमा-वक पहुँच गया-।. 
अनन्तदेवी--एक छ्षुद्र नारी--उसके कुचक्र में, आशा के प्रलोभन 
में, मेंने सब विगाड़ दिया । सुना है कि कहीं यहीं स्कन्द्गुप्त भी 
हैं; चलें उस महत्‌ का दश्शन तो कर लूँ । 


[ कनिष्क-स्तूप के पास महादेवी की समाधि ] 
( अक्रेला पर्णुंदत, वहलते हुए ) 

परद्त--सूखी रोटियाँ बचाकर रखनी पड़ती हैं। जिन्हें 
कुत्तों को देते हुए संकोच होता था, उन्हीं कुत्सित अज्नों का 
सथ्वय ! अक्षय निधि के समान उनपर पहरा देता हूँ। में रोझूँगा 
नहीं ; परंतु यह रक्षा क्या केवल जीवन का बोक वहन करने के 
लिये है ? नहीं, पर ! रोना मत | एक बूँँद भी आँसू आँखो में न 
दिखाई पढ़े । तुम जीते रहो, तुम्हारा उद्देश सफल होगा । भगवान 
थदि होंगे तो कहेंगे कि मेरी सृष्टि में एक सच्चा हृदय था। 
सनन्‍्तोष कर उछलते हुए हृदय ! संतोष कर, तू रोटियो के लिये 
नहीं जीता है; तू उसकी भूल दिखाता है, जिसने तुझे उत्पन्न किया 
है। परंतु जिस काम को कभी नहीं किया, उसे करते नही बनता, 
स्वांग भरते नहीं बनता ; देश के वहुत-से दुदंशा-ग्रस्त वीर-हृदयों 
की सेवा के लिये करना पड़ेगा। में क्षत्रिय हूँ, मेरा यह पाप ही 
आपडदम्म होगा; साक्षी रहना भगवन ! 

( एक नागरिक का प्रवेश ) 

परु०--बाबा ! कुछ दे दो । 

सागरिक--और वह तुम्हारी कहाँ गई चह...... ( संकेत 
करता है ) 

पणु०--मेरी बेटी स्नान करने गई है। बाबा ! कुछ दे दो । 

नागरिक--मुझे उसका गान बड़ां प्यारा लंगतां है, अगर 
वह गाती, तो तुम्हे कुंछ अवश्य मिल जाता। अच्छा, फिर. 
आऊँगा। ( जाता है ) 

श्ष्ट७ 


स्कंदगुप्त 


परणु०--( दाँद पीसकर )--नीच, टुरात्मा; विलास का नार- 
कीय कीड़ा! वालों को सँवारकर, अच्छे कपड़े पहनकर, अब 
भी घमंड से तना हुआ निकलता है ९ कुलवधुओं का अपमान 
सामने देखते हुए भी अकड़्कर चल रहा है; अब तक विलास 
ओर नीच वासना नहीं गई | जिस देश के युवक ऐसे हों, उसे 
अवश्य दूसरों के अधिकार में जाना चाहिये। देश पर यह 
विपत्ति, फिर भी यह निराली धज ! 


देवसेना--( प्रवेश करके ) क्‍या है. वावा ! क्‍यों चिढ़ रहे 
हो ? जाने दो; जिसने नहीं दिया--उसने अपना ; कुछ तम्हारा 
तो नहीं ले गया । 

परु०--अपना ! देवसेना ! अन्न पर स्वत्व है.भूखों का.और _ 
घन पर स्वत्व. है. देशवासियों- का .। प्रकृति ने उन्हें हमारे 
लिये-हमे भूखों के लिये रख छोड़ा है। वह थाती है; उसे 
लौटाने में इतनी कुटिलता ! वित्वास के लिये उन्तके पास पुष्कल 
धन है, ओर दरिद्रों के लिये नहीं ? अन्याय का समर्थन करते 
हुए तुम्हें भूल न जाना चाहिये कि ****** 

देवसेना--वावा ! क्षमा करो । आते दो, कीई तो देगा । 

पु से के हर ७ वि 

पणं०--हसारे ऊपर सेकड़ों अनाथ वीरों के वालकों का भार 
है [ बेटी ! वे युद्ध में मरना जानते हैं, परंतु भूख से तड़पते हुए 
उन्हें देखकर आँखों से रक्त गिर पड़ता है । 

देवसेना--वावा ! सहादेवी की समाधि स्वच्छ करती हुई 
आ रही हूँ। कई दिन से सोम नहीं आया, माह्शुप्त भी नहीं; 
सव कहां हैं ९ 


१४८ 


पंचम अंक 
पर॒०--आवेंगे बेटी ! तुम्र बैठों, मैं अभी आता हैँ । 


( प्रस्थान ) 

हा >संगीत-सभा की अन्तिम लहरदार और आश्रय- 
हीन तान; घूपदान की एक क्षीण गंघ-धूम-रेखा, कुचले हुए फूलों 
का म्लान सौरभ, और उत्सव के पीछे का अवसाद, इन सबों 
की प्रतिक्ृृति मेरा छुद्र नारी-जीवन ! मेरे प्रिय गान ! अब क्‍यों 
गाऊं और क्या सुनाऊँ ? इस बार-बार के गाये हुए गातों में 
क्या आकर्षण है--क्या बल है जे| खींचता है ९ केवल सुनने 
की ही नहीं, प्रत्युत्‌ जिसके साथ अनन्त काल तक कंठ मिला 
रखने की इच्छा जग जाती है । 

(गातो है ) 


शून्य गगन में खेजता जेसे चन्द्र निशश 
शका में रमणीय यह किसका मधुर प्रकाश 
हृदय ! तु खोजता किसको छिपा हैं कोन-सा तुभमें 
मचलता है बता क्या दूँ छिपा तुझसे न कुछ मुझमें 
रस-निधि में जीवन रहा, मिटी न किए भी प्यास 
मुँह खोले सुक्तामयी सीपी स्वाती आस 
हृदय ! तू है बना जलनिधि, लहरियाँ खेलतीं तुझमे 
मिला श्रव कौन-सा नवश्त्न जो पहले न था तुझमें 
(प्रस्थान ) 


( वेश बदले हुए स्कन्दगप्त का प्रवेश ) 
स्कद०--जननी ! तुम्हारी पवित्र स्मृति को श्रणाम | 
( समाधि के समीप घुटने टेककर फूल चढ़ाता है ) 
१४५ 


स्कंद्गुप्त 
माँ] अन्तिम बार आशीवोद नहीं मिला, इसीसे यह कष्ट; 
यह अपमान ) माँ ! तुम्हारी गोद में पलकर भी तुम्हारी सेवा 
न कर सका--यह अपराध क्षमा करो | 
( देवसेना का प्रवेश ) 
देवसेना--(पहचानती हुई) कौन ९ अरे ! सम्राट्‌ की जय हो । 
स्कंद०--देवसेना ! 
0० शििि ७ भ/ | 
दवसेना--हों राजाधिराज ! धन्य भाग्य, आज दशंन हुए । 
स्कंद०--देवसेना ! बड़ी-बड़ी कामनाएँ थीं । 
देवसेना--सम्राद्‌ ! 
स्कंद०--क्या तुमने यहाँ कोई छुटी बना ली है ९ 
देवसेना-हाँ, यही गाकर भीख मॉगती हूँ, और आर्य्य 
किट कर एः ० कप कप 
पणुदत्त के साथ रहती हुईं महादेवी को समाधि परिष्क्ृत 
करता हूँ। 
स्कंद०--मालवेश-कुमारी देवसेना ! तुम और यह कर्म्स ! 
समय जो चाहे करा ले | कभी हमने भी तुझे अपने काम का 
बनाया था। 
देवसेना ! यह सब मेरा प्रायश्चित्त है। आज मैं बंधुव्मो 
को आत्मा को क्या उत्तर दूँगा ? जिसने निःस्वार्थ भाव से सब 
कुछ मेरे चरणों मे अधित कर दिया था, उससे केसे उऋण 
होऊंगा ! में यह सब देखता हूँ और जीता हैँ । 
देवसेना--मै अपने लिये ही नहीं माँगती देव ! आय्य पणु- 
दंत न साम्राज्य के!बिखरे हुए सब रत्न एकत्र किये हैं, वे सब निर- 
१५० 


पंचम अंक 

चलम्ब हैं । किसीके पास टूटी हुईं तलवार ही बची है, 
किसीके जीण वल्ध>खंड । उन सबकी सेवा इसो आश्रम से 
होती है । 

स्कंद०- वृद्ध पर्णेदत्त, तात पणोेदत्त ! तुम्हारी यह 
दशा ? जिसके लोहे से आग बरसती थी, वह जंगल की 
लकड़्यों बटोरकर आग सुलगावा है! देवसेना ! अब इसका 
कोई काम नहीं; चलो महादेवी की समाधि के सामने प्रतिश्रत 
हों, हम तुम अब अलग न होंगे । साम्राज्य तो नहीं है, 
बचा हूँ; वह अपना ससत्व तुम्हें अर्पित करके उऋण होडझँगा, 
ओर एकांतवास करूँगा । 

देवसेना-सो न होगा सम्राट ! में दासी हैँ। मालव ने 


जो देश के लिये उत्सग किया है, उसका ग्रतिदान लेकर मत 
आत्मा का अपसान न करूंगी । सम्राद | देखो, यहीं पर सदी 
जयमाला की भी छोटी-सीं समाधि है, उसके गोरव की भी रक्षा 
होनी चाहिये । 
द्‌०--देवसेना ! बंधु बंधुवम्मो की भी तो यही इच्छा थी । 

देवसेना-परंतु क्षमा हो सम्राट्‌ |! उस समय आप विजया 
का स्वप्न देखते थे; अब अतिदान लेकर में उस महत्त्व को कलंकित 
न करूँगी | मे आजीवन दासी बची रहेंगी; परंतु आपके प्राप्य 
मे भाग न लूंगी । 

स्कंद०--देवसेना ! एकांत मे, किसी कानन के कोने में; 
तुम्हे देखता हुआ, जीवन व्यतीत करूँगा। साम्राज्य की इच्छा 
नहीं--एक बार कह दो । 


१५१ 


स्कंदगुप्त 


देवसेना--तव तो ओर भो नहीं । सालव का महत्त्व--तो 
रहेगा ही, परन्तु उसका उद्देश्य सी सफल होना चाहिये. । आप- 
को अकम्मंण्य वनाने के लिये देवसंना जीवित न रहेंगी। सम्राट, 
क्षुमा हो | इस हृदय से ,... .. आह ! कहना हो पड़ा, स्केद्सुप्त 
को छोड़कर न तो कोई दूसरा आया और न वह जायगा । 
अभिमानी भक्त के समान निष्काम होकर मुझे उसीकी उपासना 
करने दीजिये; उसे कामना के सँवर में फेंसाकर कलछुषित 
न कीजिये। नाथ ! में आपकी ही हूँ, मेंने अपने को दे दिया है, 
अब उसके बदले कुछ लिया नहीं चाहती । 
( पेर पर गिरती है ) 


स्कंद०--( आँसू पेंछता हुआ ) उठो देवसेना ! तुम्हारी विजय 


हुई । आज से सें प्रतिज्ञा करता हूँ कि, मे कमार-जीवन ही व्यतीत 


करूँगा । मेरी जननी की समाधि इसमें साक्षी हे । 

देवसना-हैं, है, यह क्‍या किया ! 

स्कंद०--कल्याण का श्रीगणेश । यदि साम्राज्य का उद्धार 
कर सका तो उसे पुरगुप्त के लिये निष्क॑ंटक छोड़ जा सकेंगा । 


देवसेना--( निःश्थसत॒ छेकर ) देवत्रत ! तुम्हारी जय हो। जाऊँ 
आय्यं पशुदत्त को लिया लाऊ। ( प्रस्थान ) 


( विजया का प्रवेश ) 


विजया--इतना रक्तपात और इतनी समता, इतना सोह-- 
सरस्वती के शॉंणित जल में इन्दीवर का विकास । इसी' 
रण अब स सी मरता हूं । मेरे स्कढ ! मेरे ग्राणाधार ! 

श्ण्य्‌ 


2 


पंचम अंक 

स्कंदू०--(बूमकर)--यह कौन, इन्द्रजाल मंत्र ? अरे व्रिजया ! 

विजया--हों, में ही हूँ । 

स्कंद०-तुम कैसे 

विजया--तुम्हारे लिये मेरे अन्तस्तत की आशा 
जीवित है ! 

स्कंद०--नहीं विजया ! उस खेल को खेलने की इच्छा नहीं ; 
यदि दूसरी बात हो तो कहो । उन बातो को रहने दो । 

विजया--नही, मुझे कहने दो । ( सिसकती हुईं ) में अब 


स्कंद०--चुप रहो विजया ! यह मेरी आराधना की--तपस्या 
की भूमि है, इसे प्रवभ्वना से कछुषित न करो । तुमसे यदि स्व 
भी मिले, तो मे उससे दूर ही रहना चाहता हूँ । 

विजया-मेरे पास अभी दो रह्न-गृह छिपे हैं, जिनसे सेना 
एकत्र करके तुम सहज ही इन हूणो के परास्त कर सकते है। । 


स्कंद०--परन्तु, साम्राज्य के. लिये. मे अपने-को-नही-बेंच- 
सकता. विज्ञय्ना.न्चली जाओ ; इस निलेज्ज प्रतोभन की आव*- 
श्यकता नही । यह प्रसद्ध यही तक । 


विजया--मेंने देशवासियों को सन्नद्ध करने का संकल्प किया 
है, और भटाक का संसग छोड़ दिया है। तम्हारी सेवा के उप- 
युक्त बनने का उद्योग कर रही हूँ। में मालव और सोराष्ट्र को 
तुम्हारे लिये स्वतंत्र करा देगी; अथ-लेाभी हूण-दस्युओं स उसे 
छुड्टा लेना मेरा काम है । केवल तुम स्वीकार कर लो । 


4५३ 


स्कंद्युप्त 


स्कंद०--विजया । तुमने मुझे इतना लोभी समम्त लिया 
है? में सम्राट बनकर सिंहासन पर बैठने के लिये नहीं हूँ। 
शख्र-बल से शरीर देकर भी यदि हो सका तो जन्म-भूमि का 
उद्धार कर लूँगा | सुख के लोभ से, मनुष्य के भय से, में उत्कोच 
देकर ऋोत साम्राज्य नहीं चाहता । 


विजया-क्या जीवन के प्रत्यक्ष सुखो से तुम्हें वितृष्णा हो 
गई है ? आओ, हमारे साथ वचे हुए जीवन का आनंद लो । 

स्कंद०--ओर असहाय दीतों को, राक्ष्सों के हाथ, उनके भाग्य 
पर छोड़ दूँ ९ 

विजया--कोई दुःख भोगने के लिये है, कोई सुख | फिर 
सबका बोझ अपने सिर पर लादकर क्यो व्यस्त होते हो ? 


स्कद०-परतु इस संसार का कोई उद्दश है। इसी प्रथ्वी 
को स्वर होना है, इसीपर देवताओं का निवास होगा; विश्व- 
नियन्ता का ऐसा ही उद्देश मुझे विदित होता है। फिर उसकी 
इच्छा क्‍या न पूणु करू १ विजया ! में कुछ नहीं हूँ, उसका अम्ा 
अल्वायारिया बे प 2 पल है. ५ सकें उसके संकेत पर केवल 
क्योकि मेरी निज को हो जा देश आदी अल के 
या संरी निज को कोई इच्छा--चहीं। देशत््यापी हलचल के 
जला कर कल सी दै कोई शक्ति काय्य 


मा 
रक्षा करन के लिये स्वयं “4में उस्ती-बह्यचक्र का एक 
विजया-रहने दो यह थोथा ज्ञान । प्रियवम | यह भरा 


हुआ यांवत्र आर प्रसी हृदय विलास के उपकरणा के साथ प्रस्तुत 
है। उन्मुक्त आकाश के नील-नीरद-मंडल सें दो विजलियों के 
५१५७ 


पंचम अंक 
समान क्रीड़ा करते-करते हम लोग तिरोहित हो जायें। और उस 
क्रीड़ा में तीत्र आलोक हो, जो हम लोगों के विलीन हो जाने पर 
भी जगत्‌ की आँखों को थोड़े काल के लिये बन्द कर रक्‍खे । 
ख्वग की कलिपत अप्सराएँ और इस लोक के अनंत पुणय के भागी 
जीव भी जिस्त सुख को देखकर आश्चय्यं-चकित हों, वही मादक 
सुख, घोर आनन्द, विराट विनोद, हम लोगों का आलिज्ञन 
करके:घनन्‍्य हो जाय |-- 
अगरु-धूप्त की श्याम लहरियों उलको हों इन श्र्षकों से 
मादकता-लाली के डोरे इधर फँसे हे। पलकों से 
व्याकुल बिजली -छी तुम मचल्लो झआादे-हृद्रय-चनमाला से 
ऑसू बरुनी से उलके हों, अथर प्रेम के प्याला से 
इस उदास सन की अभिलाषा ऑठकी रहे प्रलोभन से 
व्याकुलता सौ-छो बल खाकर उलरू रही हो जीवन से 
छुबि-प्रकाश-किरणें उलक्तो हों जीवन के भविष्य तम से 
ये लायेंगी रद्ऋ'ः सुलालित होने दो कम्पन सम से 
इस आकुल जीवन की घड़ियाँ इन निष्ठुर आपातों से 
बजा करे अ्रगणित यन्‍्त्रों से सुख-दुख के अनुपातों से 
उखड़ी साँसें उलक रही हों धड़कन से कुछ परिमित हो 
अनुनय उलभ रहा हो तीखे तिरस्कार से लांछित हो 
यह दुर्बेल दीनता रहे डलभी फिर चाहे ठुकशओ 
निर्दयता के इन चरणों से, जिसमें तुम भी छुख पाओ 


( सूकनन्‍्द के पेरों को पकड़ती है ) 
श्णण 


११ 


स्कंदरशुप्त " 

स्कंद०--(पेर छुड़कर) विजया ! पिशाची | हट जा; नहीं 
जानती, मेंने आजीवन कोमार-ब्रत को प्रतिज्ञा की हैं । 

विजया--तो क्‍या में फिर हारी ? 

( भद्यक का प्रवेश ) 

भटाक--निललेज हारकर भी नहीं हारता, मरकर भी 
नहीं सरता । 

विजया--कौन, भटाक 

भठाक-हों, तेरा पति भटाके। दुश्चरित्रे | सुना था कि 
तुमे देश-सेवा करके पवित्र होने का अवसर मिला है; परन्तु हिस्र 
पशु कभी एकादशी का ब्रत्त करेगा--ऋभी पिशाची शांति-पाठ 
पढ़ेंगी ! 

विजया--( प्विर नीचा करके ) अपराध हुआ । 


भठाक--फिर भी किसके साथ ? जिसके ऊपर अत्याचार 


करके मे भी लज्जित हूँ, जिससे क्षमा-याचना करने मे आ रहा 
था । नीच स्त्री 


विजया--घार अपमान, तो वस''' 
( छुरी निकालकर आत्म-हत्या करती है ) 
स्कंद०--भटाक ! इसके शव का संस्कार करो | 
भटाक-देव ! मेरी भी लीला समाप्त है । 
( छुरी निकालकर अपने को मारना चाहता है, स्क॑ंद हाथ पकड़ लेता है » 
स्कद०--तुम वीर हो, इस समय देश को बीरो की आवश्य- 
१७०६ 


पंचम अंक 

कता है । तुम्हारा यह प्रायश्रित्त नहीं। रणभूमि में शरण देकर 
जननो जन्भूमि का उपकार करो । भटठाक | यदि कोई साथी न 
मिला ते साम्राज्य के लिये नहीं-जन्मभूमि के उद्धार के लिये मैं 
अकेला युद्ध करूँगा और तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी, पुरणशुप्त के 
सिंहासन देकर में वानप्रस्थ-आश्रम ग्रहण करूँगा । आत्म-हत्या 
के लिये जो अख्र तुमने भह॒ण किया है, उसे शत्रु के लिये सुर- 
ज्षित रक्‍्खो । 

सटाक--( स्कन्द के सामने घुटने टेककर ) “ श्री स्कन्द्शुप्त 
विक्रमादित्य की जय हो |” जा आज्ञा होगी, वही करूँगा। 

स्कन्द०--पहिले इस शव का प्रबंध होना चाहिये । (प्रस्थान) 

भदाक--( स्वत ) इस घृरित शव का अग्ति-संस्कार करना 
ठीक नहीं, लाओ इसे यहीं गाड़ दू ! 

(भूमि खोदते समय एक भयानक शब्द के साथ रत्नग्ृद्द का प्रकठ होना 
ओर भटाके का प्रसत्र होकर पुकारना; स्कन्दगुप्त का आकर रत्नगृह देखना) 

स्कन्द०--भटाक ! यह तुम्हारा है । 

भटाक--हाँ सम्राट्‌ ! यह हमारा है, इसीलिये देश का है । 
आज से में सेना-संकलन में लगूगा। 

स्कन्द०--बह दूर पर बड़ी भीड़ हो रही है स्तूप के पास । 

भटाक--नागरिकों का उत्सव है। ( सलण॒ह बन्द करके ) 
चलिये, देखूँ । 


५०७ 


स्कंद्गुप्त 
( स्तृप का एक भाग--नागरिकों का आना। उन्हीं में वेश बदले हुए 
माद्गुप्त, भीमवर्म्मा, चक्रपालित, शर्वनाग, कमला, यामा इत्यादि | दूसरो 
ओर से छद्ध पर्णदत्त का हाथ पकड़े हुए देवसेना का प्रवेश ) 
१--तागरिक--अरे वह छोकरी आ गई, इससे कुछ सुना 
जाय । 
२--नागरिक- हाँ रे छोकरी ! कुछ गा तो । 
पर्ण०--भीख दो बाबा ! देश के बच्चे भूखे है, नंगे है, अस- 
हाय है ; कुछ दो बाबा ! 
१--अरे गाने भी दे बूढ़े ! 
पणु०--हाय रे अभागे देश ! 
( देवसेना गाती है ) 
देश की दुदंशा निहारोगे 
डूवते को कभी घउवारोगे 
हारते ही रहे, न हे कुछ अब 
दाँव पर आपको न हारोगे 
कुछ करोगे कि वघ्त सदा रोकर 
दीन हो देव को पुकारोगे 
से रहे तुम, न भाग्य सेता हैं 
आप बिगडी तुम्हीं सँवारोगे 
दीन जीवन विता रहे अब तक 
क्या हुए जा रहे, विचारोगे 
पण०--नहीं बेटी, ये निलेज्ज कभी विचार नहीं करेंगे । 
श्ष्ट 


पंचम अंक 
श्र (६ (६ हर 
चक्रपालिव और भीमवम्मो--आय्य परणुदत्त की जय ! 


पणें०--सुके जय नहीं चाहिये--भोख चाहिये । जो दे 
सकता हो अपने प्राण, जे जन्मभूमि के लिये उत्सगे कर सकता 


0०५ # 


हो जीवन, बेसे वीर चाहिये ; कोई देगा भीख में ? 
स्कंद्‌०--( भोड़ में से निकलकर ) मे प्रस्तुत हैँ तात ! 
भटाक--श्री स्कदशुप्त विक्रमादित्य को जय हो ! 

( नागरिकों में से बहुत-से युवक निकल पढ़ते हैं ) 
सब--हम हैं, हम आपकी सेवा के लिये प्रस्तुत हैं । 
स्कंद०-आय्य परणोदत्त ! 
पर्णश०--आओ वत्स ! सम्राद ! ( आलिश्नन करता है ) 


[ उत्साह से जनता पूजा के फूल बरसाती है । चक्रपालित, भीमदवर्म्मा 
मात्गुप्त, शर्वनाग, कमला, रामा, सबका प्रकद होना--नयनाद ! | 


[ महावोधि-विहार | 
( अनन्तदेवी, पुरग॒प्त, प्र्यातकीत्ति , हुण-सेनापति ) 
अनन्त०--इसका उत्तर महाश्रमण देंगे। 
हण-सेनापति--पुमे उत्तर चाहिये, चाहे कोई दें। 
प्रस्यात०--सेनापति | मुकसे सुनों। समस्त उत्तरापथ का 
बौद्ध संघ जो तुम्हारे उत्कोच के प्रलोसन में भूल गया था; बह 
अब से होगा | 
हणु-सेला०--तभी बौद्ध जनता से जो सहायता हूण-सेनिकों 
को मिलती थो, वन्द हो गई ; ओर उल्टा तिरस्कार ! 
प्रद्यात+--बह श्रम था। बौद्धों को विश्वास था कि हूण 
लोग सद्धस्से के उत्थान करने में सहायक होंगे, परन्तु ऐसे हिंसक 
लोगा को सद्धम्स कोई आश्रय नही देगा। ( पुरगुप्त की ओर देख 
कर ) यद्यपि संघ ऐसे अकस्मेण्य युवक को आय्यसाम्राज्य के 
सिहासन पर नहीं देखा चाहता, तो भी वोझछू धम्मोचरण करंगे, 
राजनीति में भाग न लेंगे । 
अतनन्‍्त०--सभिल्षु ! क्या कह रहे हो ९? समझकर कहना । 
हूण-सेना०--गोपाद्रि से समाचार सिला है, स्कंदगुप्त फिर 


जी उठा है, और सिधु के इस पार के हण उसके घेरे में है ; 


संभवततः शीघ्र ही अन्तिम युद्ध होगा । तव त्तक के लिये संघ को 
प्रतिज्ञा भंग न करनी चाहिये । 
पुरगुप्त-क्‍्या युद्ध ! तुम लोगो को कोई दूसरी बात नहीं . . 
अनन्त०--चुप रहो | 
१६० 


पंचम अंक 
पुरगुप्र -तब फिर एक पात्र । ( सेतक देता है ) 
प्रस्यात०--अनाय्य ! विहार में मय्यपान ! निकलो यहाँ से । 
अनंत०--सिक्ष ! समझकर बोलो ; नहीं तो मुंडित मस्तक 
भूमि पर लोटने लगेगा ! 
हूृण-सेना०--इसीकी सब प्रवच्वना है; इसका तो सें अवश्य 
ही वध करूँगा। 
प्रद्यात०--क्षशिक और अनात्मभव में किसका कोन वध 
करेगा मूर्ख ! बा | 
हण-सेना०--पाखंड ! मरने के लिये प्रस्तुत हे। ! 
प्र्यात०--सिंहल के युवराज की प्रेरणा से हम लोग इस 
सत्पथ' पर अग्रसर हुए है ; वहाँ से नहीं लौट सकते । 
( हण-सेनापति मारना चाहता है ) 
कुमार धातुसेन--( सहता प्रवेश करके ) “ सम्रादू स्कन्द्शुप्त 
की जय ] 95 
( सैनिक सबके वन्‍दी कर लेते हैं ) 
धातु०--कछुचक्रियों ! अपने फल भोगने के लिये प्रस्तुत हो 
जाओ | भारत के भोतर की वची हुईं समस्त हृण-सेना के 
रुधिर से यह उन्हीं की लगाई हुई ज्वाला शांत होगी । 
अनंत०--धातुसेन ! यह क्या, तुम हो ९ 
धातु०--हॉँ महादेवी ! एक दिन मेंने समझाया था, तब सेरी 
अवहेला की गई ; यह उसीका परिणाम है। ( सेनिक्रें ते ) सबके 


शीघ्र साम्राज्य-स्कन्धावार में ले चलो । 
[ सबका प्रस्थान ] 


[ स्खक्षेत्र 
( सम्राद स्कंदगुप्त, भदाके, चक्रपालित, पर्णंदत्त, माठ्युप्त, भोम- 
वर्ग्मा इत्यादि सेना के साथ परिश्रमण करते है । ) 
साठ्गुप्त--वीरे |--( गाव )-- 
हिमालय के ऑगन में उस्ते प्रथम किस्णेों का दे उपहार 
उ्पा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीश्क-हार 
जऊगे हम, लगे जगाने, विश्व लोक में फेला फिर आलोक 
व्योम-तम-पुञ्न हुआ तव नष्ठ, अखिल संसछति हो डठी अशोक 
विमल वाणों ने वोणा ली कमल-क्रोमल-कर में सम्रीत 
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तव मधुर साम-छंगीत 
वचाकर वोज-रूप से छछ्टि, नाव पर मेल प्रलय का शीत 
अरुण-केतन लेकर निभ हाथ वरुण पथ में हम बढ़े अभीत 
सुना हे दधीचि का वह त्याग हपारो जातीयता विकास 
पुरन्दर ने पवि से है लिखा अस्थि-युग का मेरे इतिहास 
सिंबु-छा विस्दृत ओर अथाह एक निर्वासित का उत्साह 
दे रही अभी दिखाई भग्न मग्र रत्नाकर में वह रांह 
धम्म का ले लेकर जे। नाम हुआ करतो बलि, कर दो बंद 
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनन्द 
विजय केवल लेहे की नहीं, धम्म की रही घरा पर घृम 
भिक्तु होकर रहते सम्राद दया दिखलाते घर-घर घुम 
यवन के दिया दया का दान, चीन का मिली सम की दृष्टि 
मिला था स््॒ण-भूति के रत्न, शील की सिंहल को मो छष्टि 
किसीका हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं 
हमारी जन्मभूमि थो यही, कहीं घे हम आये थे नहीं 
श्द्र्‌ 


पंचम अंक 
जातियों का उत्थान-पतन आरषियों, भड़ी, प्रचंड समीर 
खड़े देखा, केज्ना हँसते, प्रलय में पत्ले हुए हम चीर 
चरित थे पूृत, भुजा में शक्ति, नम्नता रही सदा सम्पन्न 
हृदय के गौरव में था गे, किसीकों देख न सके विपन्न 
हमारे सन्रय में था दान, श्रतिथि थे सदा हमारे देव 
बचन में सत्य, हृदय में तेन, प्रतिज्ञा में रहती थी देव 
वही है रक्त, वही हे देश, वही साइप है, वैधा ज्ञान 
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य श्राय्य॑-संत्तान 
जियें ते सदा उसी के लिये, यही अ्रभिमान रहे, यह हर्ष 
निछावर कर दें हम सर्वस्ब, हमारा प्यारा भारतवर्ष 


सब--( पमवेत स्वर से ) जय ! राजाधिराज स्कन्दगुप्र को 


जय !! 
( हण-सेना के साथ लिज्लिल का आगपन ) 
खिब्धिल--बच गया था भाग्य से, फिर सिंह के सुख में 
आना चाहता है। भीषण परशु के प्रहारों से तुम्हें अपनी भूल 
स्मरण हे। जायगी । 
स्कन्द्‌०--यह बात करने का स्थल नहीं । 
(घोर युद्ध, खिद्धिज घायल होकर बंदी होता है। सम्राद्‌ को बचाने 


० 


में रद्ध पर्णंदत्त की खझत्यु; गरुड़ष्वजन की छाया में वह लिठाया 
जाता है। ) 
स्कन्द०-धन्य वीर आय्य परणदत्त ! 
सब--आय्य परणेदत्त की जय ! आय्य-साम्राज्य की जय !! 
( बन्दो-वेश में पुरगुप्त ओर अनन्‍तदेवी के साथ धातुसेन का प्रवेश ) 
स्कंद०--मेरी सौतेली माता ! इस विजय से आप सुखी होंगी । 
१६३ 


आकंदगुप्त 

अनंत०--क्यों लज्जित करते हो स्कंद ! तुम भो तो मेरे 
पुत्र हो ९ 

स्कंद०--आह ! यही यदि होता मेरों विमाता। तो देश 
की इतनी दुदशा न होती । 


अनंत०-मुझे क्षमा करो सम्राद ! 


स्कंद०--साता का हृदय सदैव क्षुम्य है। तुम जिस भलाभन 
से इस दुष्कम में प्रवृत्त हुई हे, वहीं तो केकेयी ने किया था। 
तुम्हारा इसमे दोप नहीं । जब तुमने आज मुझे पुत्र कहा; ते 
ओ तुम्हे माता ही समम्ूँगा। परंतु कुमारगुप्त के इस अग्नितेज 
के तुमने अपने कुत्सित कर्मों की राख से ढक दिया। पुरणुप्त ! 

पुरगुप्त-देव ! अपराध हुआ । ( पेर पकड़ता हे ) 

स्कंद०--भठाक ! मैने तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरो की | ले, आज 
इस रणमूमि में में पुरगुप्त को युवराज बनाता हूँ। देखना, मेरे 
बाद जन्मभूमि को दुदेशा न हो। (रक्त का दीका पुरणुप्त को 
लगाता है ) 

भठाके-देवब्रत ! अभी आपकी छुत्नछाया में हम लोगों 
के बहुत-सी विजय प्राप्त करनी है; यह आप क्या कहते हें ९ 

स्कन्द०--क्षत-जजेर शरीर अब बहुत दिन नहीं चलेगा; 
इसीसे मैने भावी साम्राज्य-तीति की घोषणा कर दी है। इस 
हण के छोड़ दो, और कह दे कि सिघु के इस पार के पवित्र 
देश में कभी आने का साहस न करे। 

खिज्जिल--आय्यसम्राद्‌ ! आपकी आज्ञा शिरोधाय्य है। 


[ जाता है ] 


[ उद्यान का एक भाग ] 


देवसेना--हृद्य की कोमल कल्पना ! सा जा। जीवन में 
जिसकी संभावना नहीं, जिसे द्वार पर आये हुए लौढा दिया था, 
उसके लिये पुकार मचाना क्या तेरे लिये कोई अच्छी बात है ? 
आज जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा-सबसे में बिदा 
लेती हैँ ! 
आह | वेदना मिली विदाई 
मैने श्रम-वश जीवन-सब्न्चित 
मथुकरियों की भीख लुठाई 


छुलछुल थे संध्या के श्रमकण 
ऑँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण 
मेरी यात्रा पर लेती थीं-- 
नीख्ता. अनन्त. अगड़ाई 


० 


श्रप्तित स्वप्न की मधुमाया में 
गहन-विपिन की तरू-छाया में 
पथिद्य घनीदी श्रुति में किसने-- 
यह बिहाग की तान डठाई 


लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी 
रही बचाये फिश्ती कबकी 
मेरी आशा आह ! चावली 
तूने खो दी सकल कमाई 


१६५ 


स्कद्रुप्र 
चढ़कर मेरे जीवन-सथ पर 
प्रलयथ चल रहा अपने पथ पर 
मेंने निल दुर्बल पद-बल पर 
टससे.. हांरी-होड़ लगाई 
लोवा लो यह अपनी थाती 
मेरी करुणा हा-हा खाती 
विश्व ! न सँमलेगी यह मुकूसे 
इसने मन की लाज गेँवाई 
( स्कंदगुप्त का प्रवेश ) 
स्कंद०-देवसेना ! 
देव०--जय हो देव | श्रोचरणों में मेरी भी कुछ प्रार्थना है । 
स्कंद०--मालवेश-कुमारी ! कया आज्ञा है ? आज पव॑घुवमो 
इस आनन्द को देखने के लिये नहों हैं! जननी जन्मभूमि के 
उद्धार करने की जिस वीर को दृढ़ प्रतिज्ञा थी, जिसका ऋण 
कभी प्रतिशोध नहीं किया जा सकता, उसी वीर बंघुवम्मों की 
भगिनी मालवेश-कुमारी देवसेना की क्‍या आज्ञा है ९ 
देवसेना -में म्रत भाई के स्थान पर यथाशक्ति सेवा करतो 
रही ; अब मुझे छट्टी मिले ! 
स्कंद०-देवी ! यह न कहो | जोवन के शेष दिन, कम्स के 
अवसाद सें बचे हुए हम दुखी लोग, एक दूसरे का सह देखकर 
काट लेंगे । हमने अन्तर को प्रेरणा से शत्र द्वारा जो निष्ठुरता 
का थीं; वह इसी प्रथ्वी को स््रग वनाने के लिये। परन्त इस 
लंदन की वसनन्‍्त-श्री, इस अमरावती की शचों; इस स्व की लक्ष्मी; 
६५ 


4८. 


पंचस अंक 
सुम चली जाओआ--ऐसा में किस मुँह से कहूँ ९ ( कुछ ठहरकर 
सेचते हुए ) और किस चज्र-कठार हृदय से तुम्हें रोके ! 
देवसेना ! देवसेना !! तुम जाओ । हतभाग्य स्कंदगुप्त, 
अकेला स्कद, आह !! 


देवसेना--कष्ट हृदय की कसौटी है, तपस्या अग्नि है। 
सम्राद ! यदि इतना भी न कर सके ते क्या ! सब क्षणिक सुखों, 
का अंत है ) जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिये सुख करना ' 
ही न चाहिये। भेरे इस जीवन के देवता ! ओर उस जीवन 
के प्राप्य | क्षमा ! 


( घुन्‍्ने टेकती है ; स्कनद उत्तके सिर पर हाथ रखता है । 2 


[ यवनिका ] 


स्वर-लिपि के संकेत-चिन्हों का ब्योरा 


हि “जिन खरों के नीचे बिन्दु हा, वे मंद्र सप्तक के ; जिनमें 

कोई बिन्दु न हो, वे मध्य सप्तक के; तथा जिनके ऊपर बिन्दु हो, 
वे तार सप्तक के हैं। जैसे--स, स, सं । 

२--जिन ख्वरों के नीचे लकोर हे, वे कामल हैं। जैसे-- 
रे , ग॒, ध, नि । जिनमें कोई चिन्ह न हो, वे शुद्ध हैं । जैसे--रे, 

4. ८ [। 

ग, घ, नि। तीत्र मध्यस के ऊपर खड़ी पाई रहती है--म॑ । 

३--आलंकारिक स्वर ( गमक ) प्रधान स्वर के ऊपर दिया 
थ से 
पमस्रप 

४-.जिस खबर के आगे बेड़ी पाई हा “--? उप्ते उतनी मात्रा 
तक दीघ करना जितनी पाइयों हों। जैसे, स-, रे “५ ग--- । 

५--जिस अक्षर के आगे जितने अवग्नह “5? हों, उसे उतनी 
मात्रा तक दीघ करना। जेैसे--रा 5 सम, सखी 55, आ 555 ज । 

६--_2 इस चिन्ह में जितने स्व॒र या बोल रहें, वे एक मात्रा- 
काल में गाये या बजाये जायेंगे । जसे--सरे, गम । 

७--जिस स्वर के ऊपर से किसी दूसरे स्वर तक चन्द्राकार 
लकीर जाय, वहाँ से वहाँ तक मींड समझता चाहिये । जैसे-- 
५०४23 77 कै आल 
स- -म, रे - -प, इत्यादि | 


है; यथा-- 


१७१ 


स्कंदगुप 

८-सम का चिन्ह »<, ताल के लिये अंक और खाली 
छा द्योतक ० है। इसका विभाजन खड़ी लम्बी रेखाओं से 
दिखाया गया है । 


९-- ४४१ यह विश्रान्ति कां चिन्ह है । ऐसे जितने चिन्ह हों, 
उतने माजन्ना-काल तक विश्रान्ति जानना चाहिये । 


७5, 


( पए्४्ट १५ ) 
बिहाग-- तीन ताल 
स्थायी 

] । 

से गगनस गे स्ग 
5 उ सञ्ाय।| ती5डतस्प 
थघप मूप।|गमगस 
& बी 5 न | ताइड रको 
मे ग--स गण सम 

गिनी 5 त | डु प छ डे 

घप र्मप | गमग स 

5 सी उडपु का 5 र को 


स्व॒र-लपि 


सर 
। 
हू 4 
ष्र्‌ 
सम प--प 
तिसे 5 खि 
नि स- स 
$ किल , क 
मप+--प 
5 गीडखसु 
न सूचक: 


श्छ्रे . 


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(८ जी «0७ पा थौ० ५ डि 
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ह ५ छु १4 


सखर-ज़िपि 


( पृष्ठ १८) 
इमन--तीन ताल 
स्थायी 

२ ० झ्‌ 

ध्‌ निरेग | स+>संन्‍-- | नि रेग रे 

सं 5 सुति | के 5 वे 5 |सु5 द र 
२५ | 
गगगग। रेग म्प मंप | २-- ग रे | नि रेगरे 
तमच्ुशणशण यों555ही5५ | भू5 लन हीं 5 5जा 5 


सनकी 
स---- -- | ध्‌ नि रेग | स-स स | नि रेस रे 
व 5 | क्छड5 छूल | ता &5थीऊ5 
च् 


गगग-- | रेग मंप् प॒ | रे रेग्र हे | नि रेग रे 
यही. पिया, 

हा पनी 5 कह 5क र२ | म न मत | ब हला | 
सा. पिदाकरी 

६ ० 

ना55 5, 


२४५ 


स्कंदर्गृप्त 


श्जद्‌ 


- अंतरा 


य॒ूप धघ प। सं-- से-+-- 


माडइ दक | ताडइ सी5ड 


धुनिरेग। स-+- स-- 
मे 5 रे 5 | पि5श्वाड 
रेगमपर्मप | रे रे ग॒ रे 
'+>कनगी.. अपकनगी 
अड घर चू (&इम ने 5 
सिसकककाीं. )पससकाररी 


निरेगंरे 
तरल हाँ 


नि रे 


ण़रराे 


तीडइलह 


नि रे 


से 5 


२८ 
श्‌ -- गे गस 
20 
आउ र, 55 
साई, 
ग-- गग 


भाद २, उ 


स्सरेग 
क्ू हर डऊ 


गन ग 
साई र, 


( पृष्ठ ३९ ) 
मिकफोटी--तीन ताल 
स्थायी 

२ 6 

रे स निधु |पधृसस 
ता 5 से $ | गे 5 अ ब 
रेग सरे निधप | धू-- स स॒ 
री जी अर 

ताइड5 रोडड | गे इं अ ब 
सिपयकााी'. पद. रिकाकरी 

रेस मि ध्‌ू | ग- म रे 
ताडइ रो 5, | बाई रवा 
से नि व ये | ले से साल 
क्खाड था 5 | लूंडगा 5 


स्वरलिपि 


2१७७ 


&कंदगुप्त 


ग 


प्प 


गमपतधचध 
इस भऊ5ड 


प्र 
थ पे? 
न्श् 

वध 


थे 

| 
ध्व 
32. 


स्त्स रेग 
5 नज़ि 


ब्रनन्ग 
स्तादड र, 


१३८ 


चअन्तरा 
२ ० 
रेस नि घ, | सस गम 
ताईइ से 5, | 5 म ढ़ र 
तेल प र | दष्ख का 5 
८ का तओऋ >> गतज-मरे 
3 5535 वाइ ड़ च्‌ 
2 3 0 को 0 
ह्लाउ कर ताड 


का 


डे 
प--++ 
हा 


प्‌ 


है 5 


गरे 
रा 


पम 
पाउ 


गस रेग 
ले 5$लिदहा 


रे गम 
है 5 वि$ 


हर 
रेस गे “+- 
ने 5 में ६ 


पृ घधघपम 
याद क्राड 


स्वरर्जलफि 


( पृष्ठ ४५ ) 
लावनी धुन बनजारा--कहरवा 
स्थायी 
। र्‌ 
सर से >> से 55 
- भे॑ [रा ने 5 
२ ८ 
ग गस । रे++ रे प | प+- प प 
मन भें5 | रू६घइ प,कि | सी5ड छुलति 
ग शगशग | सन से 
ध्प्र लरूभ | बनू 5 प, 


१७५९ 


श्कंद्शुप्त 


है 
समसमस 
ज्ञलबअथलछ् 


घ-- धघ +- 
छाई या 5 


म--> मे म॑ 
खोड ज खो 


रस->-+ स स 
पा5ड गलत 


१८० 


अन्तरा 
२ 4 
८ अब ही अल आओ! 
मा 5 5 रुत | व्यो5 $इ म 
िरमकणी 
घ-- प्‌ स प्‌ृ--- «+ +-- 
है $ सब | ओऔड $ 5 
“मं संस | सप च-- प 
िसका८ी 
5 ज कर | खोड 55 ग 
सकनीी 
सतत स प्‌ ग-+->गश म 
परें5 मवचि भोड र, भा 
ग--गश स रे >न्ज रेप 
गरेयग स--स 


( पृष्ठ ५७ ) 
माँड--दादरा 
स्थायी 
है २ >८ २ 
पमग | सरेग | सन » | क को के 
प्रेंड्म |त रुत ले 5 5, [5 5 5 
पपप्» धघिचघनी>5| प पप | धघधरं 
+िसफमारी सकी 
भवआ5 तपसे 5 तापित | ओऔरज 


(८ 
ममसम 
बेठदाँ 


>. 
ले5 5, 


स्वर-लिपि 


श्थ 
करा थ 
था ह॥ 


-मसम 
5 हलो 


१८१ 


स्केंद्गप्त 


घंतरा 
रे 
भ्रम 
छाया 
८९ २ ५ र्‌ है श 


भसम « प्‌ »प | पधरि+«-- प्प « घिनर सं ण०- 
सनी 

हेवि 5 |श्वाउ5स |की555 | श्रद्धा सरिताड | कू 5 5 
जी जन 


« “से | धधघधघ | घच-ने 
5 5ल, |सिचीओं | सुझओोंड 


स्नन्‍न्न्प गूरगारा 


घप 
53% | दुडल5ड | होपरा 
जिककानी 


अं बय 


पफ़रेग | स-- -- सब पथ 


पममग | सरेग 
ड्गम धूड$ ड5 | ः 
ध्गमय[ छू 5 5ल, यहाँ5 |की5न जोड्छ 


लक 


हें ++ ०० 
ल्ते5 ड़, | 


१८२ 


स्वेर-लिपि 


( प्रष्ठ ६७ ) 
मालकोस--तीन ताल 
( यह गान नेपथ्य से गाया जायगा ) 


स्थायी 


#४। 
८४ 

नी? #् 
श्त 

श्धि 

॥350 


समनि | गसमग धघसम निग |य ग 
52% 0: 


च्-ः शक ध 


नाश 


8 
श्र 
श्र 
न 
£2॥| 
| 


दिया 
पा5 (55 लड़ नाई 55, | व 
पिसाी. भिरकाकी.... वध... सिकाकररी, 


१८३ 


स्कद्शप्त 


१८४ 


० | 

गस धम ध सनि | सं> सं- 
छू. |. /” “5 | 

शीड इए तल | हो 5ज्वा 5 
पिससामााती.. दा 

रा स स््॒ «* निसधनि 
कू हर रा 5 | के 5 घन 


हि जी के 


पप-+-प 
चलीडइमि 


सपयणस 


निइश्वल 


( पृष्ठ ८८ ) 
भीमपलासी-तीन ताल 
स्थायी 

रे 
ठड 
र्‌ 9, 
बट ० रेल मि 
गं तले 
गो5 5$ बेड 5६ आरा 5 ज, तु 
गुम पति पम | गे रे स॒ रे 
3. अब ध्त्ड 
५; तल 
अअुइञच छोड र्‌, हि 
गे प्रिय मय | रस हि 
5 ।तत, दे 
रे5 55 ४ तिठ कू5ल, दे 
मपगस |गरेखस 


स्वर-लिपि 


१८५ 


अन्तरा 


स्कद्युप्र 


# ४१ 


ा ब> 


(8 


७० हा 














5 


श्र 


वश >नविमलदीकी नी 





१८६ 


स्वर-लिपि 


( प्रृष्ठ ९४ ) 
धुन बरवा--तीन ताल 
स्थायी 
२ ० ३ 
पपषप प्‌ज- प प पृ थमप गसूगकसऊ 
सब जीद ब न | बी & ता ६ | जाष्ता $ 
है 
पू------- | सम ग॒ | शऐ९:_ेग सप | गु>रे स 
है $इ $ 5 | धू 5 पछां | 5६ के 5 | खे5ड ल ख 


स्स््ग स प्‌-- प प पथ मप ग->-ग सर 
न श, स ब जी5ड वन न 5 ता 5 जाई ता5 


प-+-+>ना | गुऋयगुरे | -: 


है &$ 5 5 | धू 5 पछाँ | 5 


स॒प्‌ | ग>रेस 
के $ | खेड छ स॒ 


#। [4 


१८७ 


स्कद्गुप्त 





पट तुंट छा फ्र्प ग्रिड 
ंटफ् | ० ४ ०७ एड 6» 6 
बू तंए.. एफ 7 (0 0 ४ | ७ 
॥य तप कर... देशी 0... छए # ४रडढि. फरि 
88 8202 कक कप कट 5 58 8 कर पक पक पर 
| 2] छ ५ पे. ०! ए. एः ० 
तट है... 704. ० 7 ते ध् 
णट र 9. ए | ० | ० | ॥0 
० | 0 | ५? फ्ःेः फ़्थट 6४ ४॥ 
विल मन शीमिर जम किम कल मिड लिन का जल मलकातं अल आ 
हट हर... ददावह.. | 8. 47 30५ 
[| |. हूश के | ० (ए। ७ ४ ४0 
छा ्तंटी ' एा व ऋ | ५ | हा 
७ फे कि. वीक... 0७ ४ (४! हि फ़ा 
री सिर कक मिल आल बरस ये हवा 
हे ७ हि | प्ठे | 2] 
छ हि. | ७५ ८ ४ /5 | ० 
(ह ऑ्टडट) "पड | ७. |## ४ 
८ हह हा. # कै. हि ४ पादी०... हरि ४ 


श्ट्ट 


( पृष्ठ १०४ ) 
देस मलार--तीन ताल 
स्थायी 


6 


सगे रेन-- 


लोडगेड, 


गरेगस 
री5पथि 


त्ति घपन-- 
लोइडगेड5 


भय रे न्न््टन 


लो 5 गे5 


स्वर-लिपि 


मंग सरे मप्‌ 


जी 
मां5 55 की 5 
अह0#त0धट॑. "सरकनरी 
मग परे स प 
न 


माँ5 55 री 5, 
तट. पिपयककनी 


रे नि स-+- 


9७] 


का 5 से 5 
मप निर्स रे 
पिसकाकाीी.. याद 


माँड 55 मी $ 
बट. पका, 


१८५ 


स्कदगुप्त 


अन्तरा 
८ २ ० 
हे हे है रे ( ++ गे रेग में | गं रे गत 


रे रेस-ा | म-प ध | निनिनि-- 

जलजा 5 | जले 5 की 5 | छुल सा 5 

सप निसे।| ररनिसंरस निधप-- 
न सी 

“ले प्‌ ना ५5 | बलतो5 55 | छो 5 मे 5 
कार. कार. 


१९० 


या5 से 5 


घपधचप 
या 5 में 5 


माँ ५ मी ५ 


स्वरजलिपिः 


(पृष्ठ १२० ) 
देस--पश्तो ताल 
स्थांयी 
ऊ्‌ र्‌ डर ५ र्‌ इ््‌ 
स रे रे/मम क्‍ -- |निनिनि|सं-- |निध 
भा 5 व निधि [में 5 ल ह रियो 5।| ४3४ दढठ 


के ध॑ मभ | मभें हे गं से रे रे मम पन-+- 
तींड ले | भी 5 | 5 $ [ भूऊ जे. के हू भी $ 


मनिनिनि से से निधन पध सम [| ग रे गस 
सम 5 5 [२ ण |होी 5 [ता5क भी $ | $ ६, 


रे -- रे | म मे [प ८ 
भा 5 व | निधि |में 5 | (इत्यादि) 


१९१ 


|. 


स्कद्रुप्त 











४. छि | ५) ५284) 

#* रस... [70 ७ हि 7 

प्र ४) (०५ | 7 ६४) 

४१] ॥४4/ ब्् 

४ (६) पर) के कर # 3 

भूंट्र छः ४9. [७* 5 

| ७ |[|०७ फ#% 

२५ फक छह. # [6 

| [4] | | (४ 

# तट छ. | ०८७ < 6 फू 

हि शक .।ह छ «५ ४ 

४ कफ मे? # हि. ' ष्ठ 
30 5 आय व टन ८ 2 कर 

४ छ ग्रे (ंष #ए 

# ४? | ०७ |“? 

2५ फ छ तट 47 22 कि 


१९२ 


भीमपलासी--कहरवा (हकानी) 


( पृष्ठ १३८ ) 


( नेपथ्य से गाया जायगा ) 


स्वर-लिपि, 


रे नि सगस 


स्थायी 

ब 
२ #श 
पथ पगशण ।| सन» 
मन सी 5 |हन 5व 
नि सग्‌ मे | प“-““: १ 
मा 53 रे 5 | सु5& 5 घप्च 
रेग स +-+ | ४ “7४ 
गा दो 5 | &$& 5 $, 


जा 5दोड 
रेग्स 
जाडऊ$दोड़ 


प्‌ 
जी 


७ ४्थ 


प 
चने 


१९३ 


स्कंदशुप्त - 


अन्तरा 


। 
| 
| 
0 6 





/ 

जम  ॥ रा हट पलि ३. 
5 5 5, ह | से 5 स व्‌ | भी 5 5ति 
जी, आल अत हो. । २: हो खंडवा 52० न के वन 
स॒उ3छप्छु | डा5 दो 5 | 5 5 5 


१९४ 


2५ 
स-+ रे रे 


शूद्दन्यग 


निसं रे से -- 
*िजानी 


ज्ैे5 5 से 5 


*वसकन्‍रीं 


रे->रे “८ 


रा $ का 5 


रे रेस -- 
किस का 5 


( पृष्ठ १४९ ) 
सेोारठ-कहरवा 
अस्थायी 

२ 4 

ममप-- | नि+निसं 
श्न में 5 खो इडइजणजता 
निधपध मस मशणग रे रे 
च5डनन्‍नद्रनि|रा5इ5श 
रे--+ गम गन-+ रेग 
में $इ र॒म | णीउडयय 
मम॒पध।निधपप 
भ धुरपफ्र का 5 उच्च 


स्वर-लिएि 


२ 


555७5 
5553<&5 


सन नताताा 


ह 553७5 


सानाकभाकका. माया, करनूाकमममकरे०.. समामाकानीकििटि 


5 559७9: 


१९५ 


सकैंर्दगुप्त - 


अन्तरा--पश्तो ताल में 
२ २ 4 २ इ्‌ 
से | प्‌ -- | नि“ | नि--नि। मनि-- सं के 
ह | द य | दूं 5उ खो 5ज।| ता 5 किस 
हश 
से --रे| से रें | सं नि |धप ध|ससमप घधनि| ध म 
अजब... अर, 
को 5 छि | पा 5 | है 5 कौ 5 न सा5 55 | 5 
गरे म।| ग रे | स+- | रे +> म | प्‌ +- नि 
में 5, म | च ल | ता 5 (है 5 ब | ता 5 [क्याड 
से -रं| से २रें | सं नि [धघपध।| म घ। सम मसग 
दूं 5छि | पा 5 |छु कम |से 5 न | कू छ मु मर 


६ *भ? 
9? | 


१९६ 


स्वर्लिपि 


( पृष्ठ १५० ) 
सिन्ध भेरवी--कहरवा धीमा 
स्थायो 
२ ५ २ 
घ॒नि घनि मप गरे 


पचुनिस | धनिधप | सपना रे 
ता 5 ला 5 | ली5 के $ डो 5 रे 5 
सरेग रेग स रे | सन“: 


१२९७ 


00%: ६8 

| १८] द्ठ | 0) 

आठ 7 | ५ 

४ प्र पड ० 4१2] 

प्र ५४७ (0 

नूठ 9... [पा हि 

| ७ "72 ७ 

हर >८ का # वध € 

| ७... पट के 

दंहाफी हि हे 

ी , 

४ फ्री... हु ७ 

8 तट ॥8 

कक कि. 0:78 
। ही 

4 4 ५ | ५? 

| >< क्र हि. वा # 





( इसके आगे का भाग ऊपर के अनुसार ) 


५९८ 


( प्रष्ठ १५८ ) 
घुन इमन--कहरवा हकानी 
स्थायी 

। 

| पं 

। दे 
दे 2 
के हो शो ॥, को 2८८4 मनलल के 
दशा 5 नि | हाडइ 5 5 
--+प्‌ प-+- | म॑प संग 
६ बलेड को ६ & 5 

मं 

रेग पनचते | अ+िन-+ +ै+ 
रो बेड 5 & 


स्वर-लिपि 


२ 
5्शकीड 


सं 


है ! 
रंग पनज॑-- 
रोड भेड़ 


रेग --रे 
के भी 5 5 


१९५ 


अन्तर 














॥07 "57 
छः | ५), 
र्ध५ र्क्षिः दर फ्ि घर 
7. [659 कष्ट प्र 
| ५) 7 ४५४) 
| (//। जड़ “४2 | ट्री 
| ७० ४ ४7 |4 0० 
2५ क्र दीाए.. कि | ४० 
ए 7 १ | ५० 
| ५) का 7 नह 9 रे 
तट ० प्रा 7 ० 
४! [7 ४ ४4 3 
(पाल अर मत कक, कर टी लक इक नल 
| ० ० छः | ० 
कर 9 
| ०७ । 0 ् 
| | [० 
८ भू पड | का (६८ छ 


स्वरलिपि 





(पृष्ठ १६२) 
५ 
भूपाली माचिंग व्यून-कहरवा ( दुतलय ) 
स्थायी 
रे 
सर धुू-- स “< 
हि | माइलय 
८ २ २५ 
मा मी जया नि गपधधचध 
के $ ञआआऑं 5 | गन में 5 उसेडभ्र थ मकिर 


ग-- प-+- | थे “पता स॑-- से 


२०१ 


हकदंगुप्त 


शाउयाऊ 


२०२ 


अन्तरा 
से 
दे 
२ ८ 
घर सेध प | गगन - रे 
ने $दन। किया 5 ओ 
प्‌ --गरे। सन्‍-+>-स 
ही 5 र क्‌ | हाउ र,; 





२ 
सं->रे 
पाइउने 5 


ब्--रीं प्‌ जे 
5र पटष्टि 


स्वर-लिपि 


(प्रष्ठ १६५ ) 
मिश्र कालिंगड़ा-तीन ताल 
स्थायी 

२ ० इ्‌ 

धु-प घ्‌ | सपग्म॒ | गरेसरे 

झा ड ह वे | $ दना 5 मिली इडबि 
हर 
गज-+स्‌न-- | गर>सन--+ | ग रेस स॒| निस रे गम गे 


5 
दाइडई 5, मे 5 ने 5 अत्रम वश जीड 55 व द 
साकार. पका. 


रे-- स निस गम | पथ निखं घ॒संचिध 
संद चित | म छु करि यों की 5 भी5 खलु 
प्‌ मसदशणथकस 
टा 5 ई 5, 


२०३ 
4४ 


स्कंदगुप्त 


अन्तर 

र ० इ 

ग॒स पप | ध>ध-- | सें>संनः 

छल छल | थे 5 सं 5 | घ्याड के $' 
हर बिक 
संर॑बिखे | सेरेना | ग>मम | पनीर 
श्रम कुछ, | आँड सू 5 | खेंड गिर | ते 5थ 5 
से रे संर्स| धज+पन-- | मर ूगनन- | भनगसम 
प्रति क्षण, | में 5रो 5 | या उन्ना 5 | प र ले 5 
गरे स-- | निस गस | प छनिसे | ४लसंदियल 
तीड थी 5, | नी 5 रब | ताइ अने | 5$तञ थद 
पूसयगमस 
बॉ कं 800: 


२०४ 


पारोशेष्ट 


सगध का गुप्त राजवंश 
मालवन्राजवंश  ... 
विक्रमादित्य 

कालिदास 


मंगप का सुप्ठ-राजदंश 
(१) श्रोगुप्त--( इं० २७५-३०० ) 
| 


(२ ) घटोत्कच शुप्त--( ईं० ३००-४२० ) 

(३ ) चंद्रगुप्त--( ३२ ३२०-३३० ) 

(४) मससुद्रगुप्---( इ० ३३५-३८५ ) 

(०) बा विक्रमादित्य ( इं० ३१८५-४१३ ) 
(६) इमारशुपत महेंद्रादित्य ( इ० ४१३-४५५ ) 


(१) कोई इसका नाम केवल * गुप्त लिखते हैं, “श्री ” सम्मान* 
सूचक है । 

( ३२) इस नाम के साथ “युप्त ! शब्द नहीं मिलता । 

(३ ) यही पहला स्वतंत्र गुप्ततंशी राजा हुआ बेशाली के लिच्छि- 
वियों के यहाँ इसका ब्याह हुआ । 

(४ ) गुप्तवंश का परम प्रतापी, भारत-विजेता सम्राद्‌ ! राजसूय 
ओर अश्वमेघ यज्ञ किया । 

(५) पाटलीपुत्र का विक्रमादित्य, जिसे लोग चब्द्रगुप्त द्वितीय 
विक्रमादित्य कहते है । 

(६ ) मालव-विजेता, आख्यायिकाओं के विक्रम्ादित्य का पिता 
महेंद्रादित्य । 

१ 


स्कंदशुप् 
“कक चर भा आ55 कर लक दर 
(७) सुकंदगुप्त विक्रमादित्य. (८) पुरणुप्त श्रकाशादित्य 
( इं० ४५०-४६७ ) ( ३० ४६७-४६५ ) 


वाज-्पपापप्पभपपण 


(९) घरलिंहगुप्त वालादित्य ( ३० ४३६९-४७३ ) 


(१०) ( गम ) कुमारगुप्त ऋ्रमादित्य ? (३० ४७३-४७७) 


(७ ) उज्जयिनी का द्वितीय विक्रमादित्य । महान वीर । 


इसके चाँदी के सिक्कों पर परम भारत श्रो विक्रमादित्य स्कदगुप्तः / 
अंकित है । 


(८ ) इसके लेने के छिक्कों पर ' श्री विक्रमः ” भी मिलता है। परतु 
प्रकाशादित्य नाम वाले छक्के भी इसो के है, भिन्‍्हें उज्जयित्रों सें स्कृदगुप्त 
के शासन-काल में मगव में इसने स्वतत्र रूप से दचवाये, फिर स्क्रेगुप्त के 
सरने पर उप्तकी उपाधि ९ श्री विक्रम भी ग्रहण कर लो हो । 


(६ ) यह प्रथम वालादित्य है, जिले 
विक्रमादित्य का भाई लिखा है। ओर वह 
नहीं था । 


शनत्तरंगिणोकार ने श्रम से 
यशोधषम्मे का भी सम्रकालीन 


(१०) कई विद्वान छुपारगृप्त को स्कंदगुप्त का उत्तराधिकारी मानते 
हैं। परन्तु यह ठोक नहीं । भिदारो के सील से यह स्पष्ट हे जाता है कि 
कुमाराप्त द्वितीय पुरगुप्त का पुत्र था। सारनाथ वाले शिलालेख का कुमार- 
गुप्त ओर भिारी के सील का कुमार, दोनें एक ही व्यक्ति हैं, जिसका उत्तरा- 
घिकारी चुधगुप्त था--जिछके राज्यकाल में मालबव पर हुणों का अधिकार 

२ 


मगध का गुप्त-राजवंश 
(११) बुधगुप्त परादित्य ? ( ई० ४७७-४९४ ) 


| 
(१२) तथागतगुप्त परसादित्य ९ ( ईं० ४९४-५१० ) 
(१३) भाजुगुप्त वालादित्य ( इं० ५१०-५३४ ) 


(१४) अंक प्रकटादित्य ( इ० ५३४-५४० ९ ) 
हुआ । मंदक्तोर के शिलालेख में जिस कुमारगुप्त का उल्लेख है, उस काल 
( ४६३ वि० ) में बन्युवर्म्या का राज्य मालव पर था, उक्त ४३६ ई० में 
कुमारगुप्त प्रथम का राज्य था। ओर उसी शिलालेख मे जो ५२६ बि० 
का उल्लेख है, वह उप्त मंदिर के जोर्णीद्वार का है-- संस्कारितिमिदभूयः 

अेण्या भानुमतो गहं '--से यह स्पष्ट हे। 

(११ ) इसके समय में मगधन्पाम्राज्य के घड़ेन्बड़े प्रदेश अलग हुए। 
इसका राज्य केवल मगध, भर्टः ओर काशी तक ही रह गया था । 

(१२ ) णोन एलन के मतानुसार यहाँ घटोत्कव का नाम होना 
चाहिये । परन्तु हेन्त्सांग ने लिखा है कि यशोधम्म॑ के साथ मिहरकुल को 
हरानेवाले बालादित्य के पिता का नाम तथागतगुप्त था। इससे हम 
भानुगुप्त के पिता का नाम तथागतगुप्त ही मानने को बाध्य हेते हैं । 

(१३ ) जब हणों से मालव का उद्धार ग्रशोधर्म्मदेव ने किया उसी 
समय मगध को इसी वालादित्य ने बचाया । इसीकी ओर से एरिकिण 
में गोपराज ने युद्ध किया । साशनाथ में इसीका लेख मिला है--- तहूंश सम्भ- 

वोन्‍्यो चालादित्ये! नृपः प्रीत्य प्रकददित्ये ।/ 3९० 79, 7?9/6 > $ [॥0, 

( १४ ) प्रकणदित्य वज्ञगुप्त की उपाधि है। इसी चज्ञगुप्त के समय में 
मालव के शीलादित्य ने मगध छीन लिया, तब से गुप्तवंश का आवधान्य 


लुप्त हुआ । 


स्कंदशु प्र 
मालवं-राजवंश 
( समुद्रगुप्त का समकालीन ) सिहवस्मों 
| 
हि अर 
(पुष्करणराज) चन्द्रवरमा नरवस्मा (मालवराज) 
(0थधा24॥9' के शिलालेख में वर्णित स्वतंत्र 
नरेश) विश्ववम्मों (,, ४ ) 
( गुप्त-साम्राज्य के अधीन हुआ ) बंधुवम्मा (,, ») 


बन्धुवस्मों का भाई--भीमवम्मा (संभवत: 
कौशाम्बी का सामंत राजा, स्कंदगुप्त का समसामयिक ) 


विऋमादित्य 


जिसके नाम से विक्रमों संबत्‌ का प्रचार है, भारत के 
आबाल-चबृद्ध-परिचित उस प्रसिद्ध विक्रमादित्य का ऐतिहासिक 
अस्तित्व कुछ विद्वान लोग स्वीकार नहीं करते । इसके कहे कारण 
है। उसका कोई शिलालेख नहीं मिलता । विक्रमी संवत्त का उल्धेख 
ग्राचीन अ्रंथो में नहीं है। स्वयं मालव में अति प्राचीन काल से 
एक मालव-संवत्‌ का प्रचार था, जैसे-- मालवानांगणास्थित्या 
याते शतचतुष्टये '--इत्यादि । इसलिये कुछ विद्वानों का मत है कि 
गुप्तवंशी प्रतापी छ्वितीय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ही असली विक्रमा- 
द्त्य था, उसीने सोराष्ट्र के शकों को पराजित किया और प्रच- 
लित मालव-संचत्‌ के साथ अपनी “ विक्रम “उपाधि जोड़कर 
विक्रमी संवत्‌ का प्रचार किया । 


परन्तु यह मत निस्सार है; क्योंकि चद्रगुप्त छ्वितीय का 
नाम तो चंद्रगुप्त था, पर उपाधि विक्रमादित्य थी; उसने सौराष्ट्र 
के शक्ो को पराजित किया | इससे यह तात्पय निकलता हे कि 
शकारि होना विक्रमादित्य होने के लिये आवश्यक था। चंद्रगुप्त 
ह्वितोय के शकारि होने का हम आगे चलकर विवेचन करंगे | पर 
चंद्रगुप्त उज्यिनी-नाथ न होकर पाठटलीपुत्र के थे । उनके शिला- 
लेखों में गुप्त-संवत्‌ व्यवहृत है; तब वह दो संवतो के अकले 
प्रचारक नहीं हो सकते । विक्रमादित्य उनकी उपाधि थीं, नाम 
नहीं था । इन्हीं के लिए * कथासरित्सागर ? में लिखा है--“ विक्र- 
मादित्य इत्यासीद्राजापाटलिपुत्रके ” । सिकन्दरसानी और 
आलमभगीरसानी के उदाहरण पर मानना होगा कि जिसकी ऐसी 


७ 


स्कदगुप्त 


उपावि होती है उसके पहले उस नाम का कोई व्यक्ति भी होता 
है। चंद्रगुप्त का राज्यकाल ३८५-४१३ इ० तक माना जाता हैं। 
तब यह भी मानना पड़ेगा कि ३८० के पहले कोई विक्रमादित्य 
हो गया है, जिसका अनुकरण करने पर उक्त गुप्तवंशी सम्राद 
चंद्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि से अपने को विभूषित 
किया । तख्तेवाही के शिलालेख का, जो गोंडोफोरस का है, काल 
१०३१ है । तत्कालीन इसाई कथाओ के आधार पर जो समय 
उसका निधोरित होता है. उससे वह विक्रमी संत्रतू हो ठहरता है | 
तब यह भी स्थिर हो जाता है कि उस प्राचीन काल में शक-संवत्‌ 
के अतिरिक्त एक संबत्‌ का प्रचार था और वह विक्रमी था। मालव 
लोग उसके ठयवहार में * मालब ” शब्द का प्रयोग करते थे। 
है चन्द्रगुप्त का शक-विजय 
कहा जाता है, गुप्रवंशी सम्राद चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने मालव 
. और सोराष्ट्र के पश्चिमी क्षत्रपों को पराजित किया, जो शक थे; इस 
-लिये यही चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य था। सौराष्टर में रुद्रसिंह दृतीय 
के वाद किसीके सिक्के नहीं सिलते । इसलिये यह माना जाता है 
कि इसी चन्द्रगुप्त ने रुद्रसिंह को पराजित करके शको को निमेल 
किया । पर, बात कुछ दूसरी है। चन्द्रगुप्त के पिता समुद्रगुप्त ने 
ही भारत की विजय-यात्रा को थी | हरिपेण को प्रशस्ति से ज्ञात 
होता है कि आयोवत्त के विजित राजाओ सें एक नाम रुद्रदेव भी 
है। संभवत: यहो रुद्रदेव स्वामी रुद्रसेव था, जो सौराष्ट्र का शक्क 
पत्रप था। तब यह विजय समुद्रगुप्त को थी, फिर चन्द्रगुप्त ने 
किन शकों को निर्मेल किया ? चन्द्रगुण्त का शिलालेख वेतवा और 


६ 


विक्रमादित्य 


यमुना के पश्चिमी तट पर नहीं मिला । समुद्रगुप्त के शिलालेख से 
प्रकट होता है कि उसी ने विजयन-यात्रा में राजाओं को भारतीय . 
पद्धति के अनुसार पराजित किया । तात्पय, कुछ लोगो से उपहार , 
लिया, कुछ लोगों को उनके सिहासनों पर बिठला दिया; कुछ ' 
लोगों से नियमित 'कर' लिया, इत्यादि । चन्द्रगुप्त के पहले ही यह 
सब हो चुका था । बस्तुतः ये सब शासन में स्व॒तन्त्र थे । तब कैसे 
मान लिया जाय कि सोौराष्ट्र और मालब में शकों को चन्द्रगुप्त 
ने निमू ल किया, जिसका उल्लेख स्वयं चन्द्रशुप्त के किसी भी 
शिलालेख में नहीं मिलता। गुप्तवंशियों को राष्ट्रतीति सफल 
हुई, वे सारत के प्रधान सम्राद माने जाने लगे । पर स्वयं चन्द्र- 
श॒प्त का समकालीन नरवमो.( (७724॥%/" के शिलालेख में) 
ओर वह भरी मालव का स्वतन्त्र नरेश साना जाता है । फिर मालव- 
चक्रवती उज्जयिनीनाथ विक्रमादित्य ओर सम्राद चन्द्रगुप्त, जो| 
मगध ओर कुसुमपुर के थे, केसे एक माने जा सकते है ? चन्द्र- 
गुप्त का समय ४१३ इ० तक है । इधर मन्दसोर वाले ४२४ ३० के 
शिलालेख में विश्ववमों और उसके पिता नर॒वसों स्वतन्त्र मालवेश 
हैं। यदि मालव गुप्तों के अधीन होता तो अवश्य किसी गुप्त- 
राजाधिराज का उसमें उल्लेख होता, जैसा कि पिछले शिलालेख 
में ( जो ४३७ ई० का है ) कुमारगुप्त का उल्लेख है--““वनान्त- 
वान्तस्फुटपुष्पहा सिनी, कुमारगुप्ते परथिवी श्रशासति ।?” इससे यह 
सिद्ध हो जाता है कि चन्द्रशुप्त का सस्पू्ण अधिकार मालव पर 
नहीं था, वह उज्जयिनी-नाथ नहीं थे। उनकी उपाधि विक्रसा- 
दित्य थी, तब उनके पहले एक विक्रमादित्य ३८५ से पूव हुए थे। 
हमारे प्राचीन लेखों में भी इस प्रथम विक्रमादित्य का अचु- 


हि 


स्कंदगुप्त 


संधान मिलता है। “ गाथासप्तशती ” एक प्राचीन गाथाओं का 
संग्रह 'हाल! भूपति के नाम से उपलब्ध है। पेठन में इसको राज- 
धानी थी । इसका समय इसवी-सन्‌ को पहलो शताद्दी है! 
सहामहोपाध्याय पं० दुगोप्नसाद ने अभिननन्‍द्‌ के रामचरित से-- 


“ हालेनोत्तम पृजयाकवि दपः श्रीपालितो लालितः 
ख्याति कामपि कालिदास कवयो नीता शक्राशतिना 


उद्धत करके माना है कि श्रीपालित ने अपने राजा “हाल! के 
लिये यह “ गाथासप्तशती ” चनाई। इसमें एक गाथा पॉचव 
शतक की है-- 


& घंवाहण सुहरस तोसिएण देन्तेह तुहकरे लक्खमर्‌ 
चलणेण विक्रमादित्त चरित्र श्रणु सिक्खिअंतिस्सा  ॥६४॥ 


इंसवी पूव पहली शताब्दी में एक विक्रमादित्य हुए, इसके _ 

मानने का यह एक प्रमाण है। जैन-प्रंथ कालकाचार्य-कथा में 

(. उजजयिनो-नाथ विक्रम का सध्यभारत के शको को परास्त करना 
लिखा है। « प्रवंधकोष ” मे लिखा है कि सहावोर स्वामी. के. मो क्तः 

* ' पाने पर, ४७० व बाद, विक्रमादित्य हुए। भारत की. परंपरागत 
« कथाओं सें प्रसिद्ध है कि विक्रमादित्य गंधवंसेन का पुत्र था। 
टाड ने राजस्थान के २६ राजकुलों का वर्णन करते हुए यह लिखा 

है कि तुझर-वंश पांडव-बंश की एक शाखा है, जिसमें संवत्‌- 
प्रचारक विक्रम ओर अनंगपाल का जन्म हुआ था। प्राचीन 
ऐतिहासिक ग्रंथ “ राजावली ” में दिल्ली के राजाओं का वर्णन करते. 
हुए लिखा है कि दिल्ली के राजा राजपाल का राज्य कमायूँ के 


॥ 


विक्रमादित्य 


पहाड़ो राजा शुकवंत ने छीन लिया। उसे विक्रमादित्य ने सार 
कर दिल्ली का उद्धार किया। इधर प्रसिद्ध विद्यव स्मिथ ने लिखा 
है कि इंसा के पूव दूसरी शताब्दी में शको का उत्थान हुआ जो 
भारत सें उसीके लगभग घुसे । 

9 00॥69 07 08 फक्का0ककवा 66७0  छरादा 9०7778#60 
606 ताक 839७9, 6800ञ990. 806#7076878 का 785]9 व 
496 2िष्वा)]9४9 बाप जिछावापा8 070 क86 ऐंशराप्रात8 

पए७४ 800087 8689079 07 696 90706 &6 & 9697 (७/& 
9७ 98]08 ७७०ए फ्रातंव]७ 07 ४986 किक 00ग्राप्रा'ए 8687 ए॥एडा 
ए9प60_ 07 80 फ्री ज्रक्ा'दे8 बड़ते 060परछा७व. 6. एशशापहपो& ० 
डि0प्रा॥996079 00. हिकवशरा॥षफ्रहए, ई0प्रग्तगह 8 शिक्वेप्का तैएग्र४ण | 
जद ]88889 पी  फ॑ एछ8 ते086096व 9ए  00847828 ०.68 + 
जपिकएथवी(ए9 200 है. 0. 390. 

3086 50809 07 पा ज0/6 ७०08७ 807780860 शा 
$7088 0 प्रीद्रां8 800 02७07928 ४00 ६06 876. 90000. ७906 
50 8, (४ 07 ७87 

पिछली शक-शाखा के संबंध में, जो सोराष्ट्र गईं, यह कहा 
जाता है कि चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसे निमल किया; पर वास्तव 
में २८५ इंसवी तक समुद्रगुप्त जीवित थे ओर उन्हीं के समय सें 
३८२ ३० तक के शक सिक्के मिलते हैं, बाद के सिक्के बिना संवत्‌ 
के है-।- इससे अतीत होता है कि समुद्रगुप्त के सामने जन्नपों का 
प्रताप निस्तेज हुआ, फिर बिना संवत्‌ के सिक्के वहाँ प्रचलित 

हुए। तात्पय्य, उक्त समुद्रगुप्त के समय ३८५ तक ही सोराष्ट् 
का शक-शाखा का हास हुआ। चरद्गुप्त का राज्यारहशणन्काल 


५ 


2+करक>-३००२->न्‍यु+ 


स्कंद्गुप्त 


३८० ईं० मानते हैं। परन्तु उसका सबसे पहला शिलालेख-- 
उद्यगिरि का गुप्त-संबत्‌ ८९ (६० ४०१ ) का सिलता है। सौ- 
राष्ट्र के सिक्के जो चंद्रगुप्त के माते जाते हैं वे गुप्त-संवत्त ९० 
(३० ४०९) के हैं--इसके पहले के नहीं । शक-न्षत्रपों के अंतिम 
सिक्कों का समय (३१९) ई० ३८९ है। अच्छा, इन सिक्कों के 
ताद ३८९ से लेकर ४०९ ई०-(२० वर्ष />तक किन सिक्‍कों 
| अचार रहा, क्योंकि चंद्रगुप्त के सिक्कों के देखने से उसका सौ- 
राष्ट्रविजय ४०९ ई० से पहले का नहीं हो सकता, ( जब के 
उसके सिक्के हैं )। फिर इधर उद्यग्रिरि वाला लेख भी ई० 
४०१ के पहले का नहीं है। तब यह सहज में अनुमान किया 
जा सकता है कि चंद्रगुप्त का राज्यारोहण-काल ४०० ई० के 
समीप होगा। परन्तु ३८९ ई० तक के शक-ब्षत्रपों के सिक्कों के 


करने के लिये चंद्रगुप्त का राज्यारोहण-काल ३८५ या ३८० 
अमान किया जाता है, बिससें सौराष्ट्रविजय का श्रेय उसी 
मिले । वास्तव में समद्रगप्त.. के -ही. समग्र में. शक-विजय 
गे. हरिषेण की विजय-प्रशस्ति - में समुद्रगुप्त के द्वारा परा- 
जित राजाओ को नामावली में. रुद्देव का भी उल्लेख है और 
हा अव सोराष्ट्र के शक-क्षत्नपा से रहा होगा। चंद्रगुप्त ने 
भी पिता के अंजुकरण पर विजये-्यात्रा को थी, जैसा कि उनके 
5द्यगिरि वाले शिलालेख से अकट है। परन्तु उनके शासन- 
काल सें सालब स्वतंत्र था। स के बाद॒मालव और सौ- 
प्र स्वतंत्र राष्ट्र गिने जाते थे। 0०॥80॥87 और मंदसोर के 
दोनो शिलालेखों को देखने से सूचित होता है कि नरवर्भा और 


१० 


विक्रमादित्य 


विश्ववस्मो मालव के स्वतंत्र नरेश थे। कुमारगुप्त के समय में 
वंधुवम्सो ने संभवत: ४२४--४३७ इं० के बीच में गुप्त-साम्राज्य 
के अधीन होना स्वीकार किया । 


चन्द्रगुप्त के शक-विजय का उल्लेख वाणभट्ट ने भी 
किया है--“ अरिपुरे परकलत्रकामुक कामिनीवेशश्चंद्रगुप्तः 
शकनरपतिं अशातयत्‌। ? यह शक-विजय किस प्रांत में हुआ, 
इसका ठीक उल्लेख नहीं ; पर कुछ लेाग अज्ञमान करते हैं. कि 
कुशानों के दक्षिणी शक-छ्षत्रप से ४७०० इ० के समोप प्रतिष्ठान 
का उद्धार चन्द्रगुप्त ने किया। जब आंध्र-राजाओं से लड़-मगड़ 
कर वे शकन-च्षन्नप खतंत्र हो गये थे और चन्द्रगुप्त ने दक्षिण के 
उन स्वतंत्र शकों को पराजित करने के लिये जिस उपाय का 
अवलंबन किया था; उसका उल्लेख “ कथा-सरित्सागर ! की चौथो 
तरंग से भी प्रकट है । 

सथुरा फे शक-शासकोां का नाश, जो शकककों को पहलो 
शाखा के थे, किसने किया--इस संबंध में इतिहास चुप है । 
“ राजुबुल षोडाश ! और “ खरओषछ्ट ” नाम के तीन शक-नरेशों 
के, ३० के पूवे पहली शताब्दी से, मथुरा पर शासन करने का 
उल्लेख स्पष्ट मिलता है। षोड़ाश ने आय्य-शासक रामदत्त से दिल्ली 
ओर मथुरा छीनकर शकनराज्य प्रतिष्ठित किया था । ' राजावली 
में इसका उल्लेख है कि विक्रमादित्य ने पहाड़ी राजा शुकवंत से 
दिल्लो ,का उद्धार किया। शुकबंत संभवतः विदेशी षोडाश का 
ही विकृत नाम है, क्योकि इंसा की पहली शताब्दी के बाद 
उस आंत मे उन शकों का शासन निमूल हो गया । इन लोगों 


११ 


स्कंदशुप्त 


को पराजित करनेवाला वही विक्रमादित्य हो सकता है, जो 
इंसवी पूव पहली शताब्दी का हो। 

जैसलमेर के इतिहास मे भट्टियों का वर्णन यहाँ वड़े काम 
का है। उन्होंने लिखा है कि विक्रमीय संबत्‌ ७२ सें गजनी-पति 
गज का पुत्र शालिवाहन मध्य एशिया की क्रांतियों से विताड़ित 
होकर भारतवर्ष चला आया; और उसने पंजाव से शालिवाहनपुर 
( शालपुर या शाकल ) नाम की राजधानी बसाई। स्मिथ ने 
जिस दूसरी शक-शाखा का उल्लेख किया है, उसके समय से 
भट्टियों के इस शालिवाहन का समय ठीक-ठीक मिल जाता है! 
शकों के दूसरे अभियान का नेता यही शालिवाहन था, जिसके 
संबंध में * भविष्यपुराण ? सें लिखा है-- 


एतस्म्िन्नन्तरे तत्र शालिवाहन भूपतिः 
विक्रमादित्यपोत्रस्थ पिठराज्यं गरहीतवान्‌ ॥ 


कुछ लोग  पोच्रश्व ? अशुद्ध पाठ के द्वारा भ्रांव अर्थ निकालते 
हैं जो असंबद्ध है। विक्रमादित्य के पौचन्च का राज्य अपहरण 
करनेवाला शालिवाहन विदेशी था। “ प्रबन्धनचिंतामणि ? से भी 
शालिवाहन को नागवंशीय लिखा है। गजनी से आया हुआ 
शालिवाहन शक था। संभवत: उसीने शक-राज्य की स्थापना 
की और शकन-संवत्त्‌ का प्रचार किया। इसके पिता के ऊपर 
जिस खुरासान के फरीद्शाह के आक्रमण की वात कही जाती 
है, वह पाथिया-नरेश * सिथाडोटस ? का पुत्र ' फराटस ट्वितीय 
रहा होगा । 

उस काल से युवेची, पाथियन ओर शको में 

श्श्‌ 


भयानक संघष 


विक्रमादित्य 


चल रहा था। गजनी के शको को भी इसो कारण अपना देश 
छोड़कर रावी ओर चनाब के बीच में / शाकल ” बसाना पड़ा। 
मिथोडोटस छ्वितीय आदि के शासन-काल में भारतवर्ष का उत्तर- 
पश्चिसीय भू-साग बहुत दिनो तक इन्हीं शको के अधिकार में 
रहा । कभी पाथियन, कभी शक और कभी युवेची-जाति की 
प्रधानता हो जाती थी । उसी समय में मालवों को पराजित करके 
शकों ने पंजाब में अपने राज्य की स्थापना की । स्मरण रखना 
होगा कि मालव से यहाँ उस राष्ट्र का संवँध है जो “ पाणिनि ? के 
समय में मालव-द्षुद्रक-गण कहे जाते थे, और सिकंदर के समय 
से वे 79/[0 370 8520079/८०४' के नास से अमिह्दित थे। 
इस प्राचीन मालव की सीसा पंजाब में थी। विक्रमादित्य और 
शकों का प्रथम कहरूर-युद्ध मुलतान से ५० मील दत्षिण-पूथ में 
हुआ, ओर फिर शालिवाहन के नेतृत्व में शकों के आक्रमण से 
मालवों को दक्षिण की ओआर हटना पड़ा। संभवतः वत्तेंसान 
मालव देश उसी काल में मिलाया गया, और जहाँ पर इन मालवों 
ने शको से पराजित होकर अपनी नई राजधानी बनाई, वह 
मंदसार और उज्जयिनी थी । 
शालिवाहन की इस विजय के बाद इसीके वंश के लोग 
राजस्थान से होते हुए सौराष्ट्र तक फैल गये, और वे पश्चिमीय 
क्षत्रप के नाम से असिद्ध हुए । चछ्ठन ओर नहपान आदि दक्षिण 
तक इसकी विजय-वबैजयंती ले गये । नहपान को कृतलेश्वर 
सातकणशि ने पराजित किया। “ कथा-सरित्सागर ” से पता चलता 
कि भरुकच्छ देश से भी शकों की सत्ता सातकरि ने उठा दी; 
ओर “ कालाप ? व्याकरण के प्रवत्तेक श्वेवम्मों के वहाँ का राज्य 


१३ 


स्कंद्ग॒प्त 


दिया । शालिवाहन के सेनापतियों ने दक्षिण में शक-सवत्‌ का 
अपने शासन-बल से प्रचार किया, ओर उत्तरोय भारत में 
आक्रंमण और संघ बरावर होते रहे । इसलिये उज्जयिनी में वें 
अधिक समय तक न ठहर सके। शक-नक्षत्रपों ने सौराष्ट्र में 
अपने के! दृढ़ किया, ओर नवोंच मालव--जिसे दक्षिण मालव 
भी कहंते हैं--शीघ्र स्वतन्त्र होने के कारण अपने पूव॑-व्यवह्नत 
मालव-संवत्‌ का ही उपयाग करता रहा । 


. अपर के भमाणों से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है 
/ कि प्रथम विक्रसादित्य-- गंध सेल का एच--सालव-गण का प्रमुख 
* अधिपति रहा | उसने सथुरावाली शक-शाखा का नाश किया, 


के अकजर 


* ओर दिल्‍ली का उद्धार करके जैन्नपाल को वहाँ का राज्य दिया। 


सं० १६९९ अगहन सुदी पंचसी की लिखी हुई “ अभिज्ञान 
शाकुतल' की एंक प्राचीन प्रति से, जो पं० केशव प्रसाद जी मिश्र: 
(भदेनी, काशी) के पास है, दो स्थलों के नवीन पाठों का. अवतरण 
यहाँ दिया जाता है-+- 


(१) “आयें रपसतभाववशेष दीक्षागुरोः श्री विक्रमादित्य 
साहलाइस्पाभिरूप भयिष्ठेय॑ परिपत्‌ श्रस्यां च कालिदासंप्रयुक्तेनाभिज्ञान- 
शाकुंन्तेल नाम्ना नवेन नाटकेनोपस्थातंव्यमस्मामिः | 

( २ ) “ भवतु तवविडोजाः प्राज्यदृष्टिः प्रजासु 

त्वमपि वितत यज्ञो वज्धिणं भावयेथा 
गण शत परिपततेरेवमन्योन्य कृत्ये-- 
नियत॑मुभयंलोकानुप्रहंरंली घनीये ?” 

१४ 


विक्रमादित्य 


इसमें नीचे रेखा किये हुए दोनों शब्दों पर ध्यान देने से दो 
बातें निकली हैं । पहली यह कि जिस विक्रमादित्य का उल्लेख 
शाकृतल में है, उसका नाम विक्रमादित्य है और “ साहसांक 
उसकी उपाधि है | दूसरे भरत-वाक्य में “ गण “शब्द के द्वारा 
इन्द्र और विक्रमादित्य के लिये यज्ञ और गण-राष्ट्र-दोनों की 
ओर कवि का संकेत है । इसमें राजा या सम्राट-जैसा कोई 
संबोधन विक्रमादित्य के लिये नहीं है । तब यह विचार पुष्ठ 
होता है कि विक्रमादित्य मालव-गण-राष्ट्र का श्रमुख नायक था, 
न कि कोई सम्राट या राजा । कुछ लोग जैत्रपाल को विक्रमादित्य 
का पुत्र बताते हैं । हो सकता है कि इसी के एकाधिपत्य से मालब- 
गय में फूट पड़ी हो और शालिवाहन के द्वितीय शक-भाक्रमण में 
वे पराजित किये गये हों । 

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य मालव का अधिपति नहीं था ; वह 
पाटलिपुत्र का विक्रमादित्य था। उसने सत्री-वेश धारण करके 
किसी शकन्नरपति को सार डाला था| पर पश्चिमी मालव और 
सौराष्र उसके समय में भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे. 
क्योंकि नरवमो और विश्ववम्मों का मालव में और स्वामी रुद्रसिंह 
आदि तीन स्वतंत्र नरपति सोराष्ट्र के शक्तों का नाम मिलता है। 
इसके लेख आकर उदयगिरि और गोपाद्रि तक ही मिलते हैं। 
जैसा विक्रमादित्य का चरित है; उसके विरुद्ध इसके संबंध मे कुछ 
गाथाएँ मिलती हैं । अपने पिता समुद्रगुप्त की विजयो के आधार 
पर और किसी शक-नरपति को मारकर, इसने भी पहली चार 
विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर ली थी । वह असली विक्रमा- 
दित्य के बराबर अपने को सममता था। 


५९४ 


स्कंद्गुप्त 


« कथा-सरित्सागर ” और ' ह्षचरित ” से लिये गये अव- 
तरणों पर ध्यान देने से यह विदित होता है. कि यह शक-विजय 
किसी छुल से मिली थी। तुआर या ( शिवश्रसाद के मता- 
नुसार पवॉर ) मालव-गण के प्रमुख अधघीश्वर से मिन्न यह 
पाटलिपुत्र का विक्रमादित्य चन्द्रगुष्त था; जिसका समय रे८५ 


( ४०० ) से प्रारंभ होकर ४१३ ईं० तक था । 


कुछ लोगों का मत है कि सालव का यशोधस्मदेव तीसरा 
विक्रमादित्य था; परन्तु जिस “ राजतरंगिणो ” से इसके विक्रमा- 
दिव्य होने का प्रमाण दिया जाता है उसमें यशोधर्म के साथ 
“विक्रम' शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। उसके शिलालेखों, सिक्को 
में सी इसका नाम नहीं है । यशोधस के जयस्तंभ में हूण 
मिहिरकुल को पराजित करने का प्रमाण मिलता है, परंतु यह्‌ 
शकारि नहीं था । यह अनुमान भी अआांत है कि इसी यशोधमंदेव 
ने मालव-संवत्‌ के साथ “ विक्रम ” नाम जोड़कर विक्रम-संवत्‌ 
का प्रचार किया, क्‍योंकि उसीके अनुचरों के शिलालेख में 
मालव-गणस्थिति का स्पष्ट उरलेख है-- 


“पंचलु शत्तेसु शरदा यातष्वेकान्नवति सहितेपु । 
सालदगणस्वितिवशात्‌ कालज्ञानाय लिखितेषु ॥”” 


अलवेरूनी के लेख से यह भ्रम फैला है, परन्तु वही अपनी 
पुस्तक मे दूसरो जगह कहरूर-युद्ध के विजेता विक्रमादित्य से 
संवतञ्रचारक विक्रमादित्य को मिन्न सानकर अपनी मूल 
स्वीकार करता है। डाक्टर हानेलों और स्मिथ कहरूर-युद्ध के 


१६ 


विक्रमादित्य 


समय में मतभेद रखते हैं | हानली उसे ५४४ में और स्मिथ 
५२८ ३० में सानते है। कहरूर का रणत्षेत्र कई युद्धो की रंग- 
स्थली है, जंसा कि पिछले काल में पानीपत । शक ओर हों के 
आक्रमण-काल से प्रथम विक्रमादित्य, स्कंदशुप्त और यशोधम्स ने 
वहीं विजय प्राप्त की । अलबेरूनी ने पिछले ही युद्ध का विवरण 
सुनकर अपने को भ्रम से डाल दिया। जिन लोगो ने यशोधम्म- 
देव को ' विक्रमादित्य ? सिद्ध करने की चेष्ठा की है, वे “ राज- 
तरंगिणी' का नोचे लिखा हुआ अवतरण प्रमाण में देते हैं-- »८ 
८ >» . # उज्जयिन्यां श्रीमान हषोपरासिधः, एकच्छन्न- 
अचक्रवर्ती विक्रमादित्य इत्यभूत।” इस ख्ोक के “ श्रीमान्‌ 
हष! पर भार डालकर असंभावित अथ किया जाता है ; पर हप- 
विक्रमादित्य से यशो धम्म का क्‍या संबंध है, यह स्पष्ट नहीं होता । 
इसी हथे-विक्रमादित्य के लिये कहा जाता है कि उसने माठ्गुप्त 
को काश्मीर का राज्य दिया, परंतु इतिहास में पॉचवी और छठी 
शत्ताव्दी में किसी हु नामक राजा के उज्जयिनी पर शासन 
करने का उल्लेख नहीं मिलता । बहुत दिनो के बाद इंसवी सन्‌ 
९७० के समीप मालव में श्रो हपेदेव परमार का राज्य करना 
मिलता है। “ राज-तरगिणी ? के अनुसार उक्त हष-विक्रमादित्य 
का काल वही है, जब काश्मोर से गान्धार-वंश का “ तोरमान 

युवराज था । तोरमान के शिलालेखों से यह सिद्ध हो जाता है. 

कि उसके पिता तुआोन वा प्रवरसेन का समकालीन स्कंदगुप्त 

मालव का शासक हो सकता है | तब क्या आश्चय है कि लेखक 

के प्रमाद से * राजतरंगिणी ? में हष का उल्लेख हो गया हो, ओर 

शुद्ध पाठ “ श्रीमान्‌ स्कंदापरासिधः ” हो; क्योकि इसी 


५७ 


स्कंदगुप्त 


तोरमान ने ५०० ई० में शुप्रवंशियों से सालव ले लिया था; तत्र 
साद्गुप्ताली घटना ५०० इ० के पहले की है । जो लोग 
यशोधमस्म के विक्रमादित्य मानते हैं, वे यह भी कहते है. कि 
मिहिरकुल को पराजित करने में यशोंधम्म और नरसिंदगुप्त 
वालादित्य-दोनो का हाथ था। परन्तु यह भी भ्रम है। नर- 
सिंहगुप्त ५९८ या ५४४ ३० तक जीवित ही न थे। यशोधम्स का 
समकालीन वालादित्य ह्वितोय हो सकता है, जो हमारे दिये हुए 
वंशबृक्त के देखने से स्पष्ट हो जायगा । 


ढ< कप ७ ए ० रन 

श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने अपने विद्धत्तापूण लेख सें 
यह प्रमाणित किया है कि यशोधमंदेव कटिक थे। ( जीवानंद- 
संस्करण ) “ कल्किपुराण ? सें लिखा है-- 


प्रसीद जगतानाथ धमंवम्मन रमापते ॥ अध्याय ३ 0 
मुने किपत्र कथन कल्किना धर्मव्मेणा ॥ श्रष्याय ४ 0 


तब “राज-तरंगिणी ”? का यह अवतरणाओर भी हमारे 


मत को पुष्ठ करता है कि यशोधम्मेदेव से पहले विक्रमादित्य 
हुए थे-- 


स्लेच्छीच्छेदाय वसु्ां, हरेस्वतरिष्यत्तः । 
शकान्विनाश्य येनादी कार्य्य भारो लघूकृतः ॥ तरंग ३ ॥ 
भावी कल्कि यशोधस्म के कार्यभार को लघु कर देनेवाले 


विक्रमादित्य उनसे ६० ही ब्ष पहले हुए थे, और बह थे श्री 
विक्रमादित्य स्कंद्शुप्त । इस तरह “राजनतरंगिणी” के “श्रीमान 


१८ 


विक्रमादित्य 


५५ के बे [| 
छहघोपराभिधः ” के शुद्ध पाठ से “ श्रासान्‌ स्कंदापरामिध: ” को 
संगति भी लग जाती है.। 


इन तीसरे विक्रमादित्य स्कंद्गुप्त के सम्बन्ध में * कथा-सरित- 
सागर ” का विषमशील लम्बक सर्विस्तर वर्णन करता है। उज्ज- 
(यिन्ी-ताथ ( महेन्द्रादित्य ) का पुत्र यह विक्रमादित्य ्लेच्छाक्रांते 
च भूलोके! उत्पन्न हुआ और इसने-- 


सकश्मीरान्स कोवेरी काध्श्च करदीकृता 
स्लेच्छुसंघाश्च निहताः शेषार्च स्थापिता वशे “ 


इतिहास में सम्राट कुमारगुप्त की उपाधि महेन्द्रादित्य 
श्रसिद्ध है। इसके चाँदी के सिक्कों पर ” परम भागवत महाराजा- 
घिराज श्री कुमारगुप्त महेन्द्रादित्यः ” स्पष्ट लिखा मिलता है। 
इसी के समय में मालव के छतंत्र नरेश विश्ववस्मों के पुत्र 
बंधुवम्मों ने अधीनता स्वीकार की । विक्रमाब्द ४८० तक, 
0872१॥७' के शिलालेख द्वारा; मालव का स्वतंत्र रहता प्रमाणित 
है ; परंतु ५२९ विक्रमाब्द वाले मंद्सोर के शिलालेख में ४९३ 
(वि० में कुमारगुप्त की सावेभोम सत्ता सान ली गई। इससे प्रतीत 
होता है. कि इसी_ काल में मालव गुप्त-साम्राज्य में सम्मिलित 
हुआ । चंद्रगुप्त फेतीय के संमंय में नरंबस्मों आर विश्ववम्मों 
“मालब के स्वतंत्र नरेश थे। कुछालोगों का अलुमाच है कि समदा 
के निकटवर्ती पुष्यमित्रों ने जब गुप्तन्साम्राज्य से युद्ध प्रारंभ किया 
था, तभी छुमार स्कंदगुप्त के नेठत्त में गुप्त-साम्राज्य की सेना ने 
उज्जयिनी पर अधिकार किया। इन्हीं स्कंदगुप्त का सिक्‍कों से 


५ 


अज लिलन भी जतालनमत+ 


स्कंद्गुप्त 


४ परम भागवत श्री विक्रमादित्य स्कन्दरुप्तः ” के नाम्त से उल्लेख 
मिलता है । इनके शिलालेख से प्रकट है. कि कुल-लक्ष्मी विचलित 
थी; स्लेच्छों और हणों से आय्योवत्त आक्राँत था.। अपनी सत्ता 
बसाये रखने के लिये इन्होंने पृथ्वी पर सोकर रातें बिताई । हुणां 
के युद्ध में जिसके विकट, पराक्रम से धरा विकंपित_ हुई) जिसने. 
सौराष्ट्र के शक्ों का मूलोच्छेद करके परशुदत्त को वहाँ का शासक 
नियत किया, वह स्कंदगुप्त ही थे। जूनागढ़ वाले लेख में इसका 
स्पष्ट उल्लेख है । स्कंदगुप्त की प्रशंसा में उसमें लिखा है-- 


“आवपिच ज़ितप्रिव तेन प्रथयन्ति यर्शांसि यस्य 
रिपवोष्यामूल भग्मदर्पों निर्वेचना म्लेच्छदेशेषु । “ 


पणुदत्त के पुत्र चक्रपालित ने “सुदर्शन मील ? का संस्कार 
कराया! था; उससे अनुमान होता है कि अंतिम शकनक्षत्नप 
रुद्रसिंह की पराजय वाली घटना इंसवी सन्‌ ४५७ के करीब हुई 
थी। स्कंदगुप्त को सोराष्ट्र के शककां ओर तोरमाण के 'पृवेवर्ती 
हूणों से लगातार युद्ध करना पड़ा । इधर वैमातूक भाई पुरणशुप्त 
से आंतरिक इंद भी चल रहा था। उस समय की विचलित 
राजनीति को स्थिर करने के लिये प्राचीन राजधानी णाटलिपुत्र 
या अयोध्या से दूर एक केन्द्रस्थल में अपनी राजधानी वनाना 
आवश्यक था। इसलिये वतेमान मालव की मोय्यकाल की 
अवती नगरी को ही स्कंद्गुप्त ने अपने सांम्राज्य का केंद्र बनाया, 

ओर शक तथा हूणों के परास्त करके उत्तरीय भारत से हूय 


तथा शर्कों का राज्य निसृंल कर “ विक्रमादित्य ” की उपाधि 
घारण की । 


ब््ठ 


विक्रमादित्य 


“ विक्रमादित्य -उपाधि के लिये शकों का नाश करना एक 
आवश्यक कार्य था। पिछले काल में इसीलिये, विक्रमादित्य का 
प पय्योय * शकारि! भी अ्रचलित था, और स्कद्गुप्त के समय 
में सौराष्ट्र के शकों का विनाश होना चक्रपालित के शिलालेख से 
स्पष्ट है। परन्तु यशोधम्म के समय में शकों का राज्य कहीं न 
था, यही बात ' राजतरंगिणी ! के “ शकान्विनाश्य येनादौ काय्य 
भारो लघूकृतः” से भी ध्वनित होती है। मंदसोरवाले 
जयस्तंभ में यशोधर्म का शकों के विजय करने का उल्लेख नहीं 
है, हणों के विजय का है। मंदसेर के यशोधस्में के विजय- 
स्तम्भ का भी वहीं समय है जो वराहदांस था विष्णुवद्धन 
के शिलालेख का है. | गोविद की उत्कीर्ण की हुई दोनों 
प्रशस्तियाँ हैं, उसका समय ५३े२ ३० का है । मिहिरकुल 
ही भारी विदेशी शत्रु था; यह बात उद जयस्तंभ से प्रतीत 
होती है । मिहिरकुल ५ऐ२ के पहले पराजित हो चुका था, तब 
वह कौन युद्ध ५४४ में हुआ, यह नहीं कहा जाता, जिसके द्वारा 
यशोधर्म्स के ' विक्रम होने की घोषणा की जाती है। इसीसे 
हानली के विरुद्ध स्मिथ ने यशोधम्म छढ्वारा मिहिरकुल के पराजित 
होने का काल ५२८ ई० माना है, परंतु वह इस युछ को “ कह- 


[8 


रूस्युद्ध कहकर सम्बोधन नहीं करते । कहरूर-युद्ध ५४४ में 
नहीं हुआ, जैसा कि फर्गुसन, कीलहान, हानलो आदि का सत 
है--प्रत्युत पहले, बहुत पहले, ४५७ ई० के समीप, दूंसरी वार 
हो चुका है। संभवतः सौराष्ट्र के शक रुद्रसिंह और गांधार के 
हूण तुजीन की सम्मिलित वाहिनी को कहरूर-युद्ध में पराजित 
कर स्कंदशुप्त ने आयोवत्त की रक्ष्या की थी । अच्छा, जब ५२८ सें 


२६१ 


स्कंद्गुप्त 


मिहिरकुल पर विजय निश्चित-सी है, तत्र कहरूर-युद्ध के ऊपर 
विक्रमादित्य को यशोधर्म माननेब्राला सिद्धांत निरमेल हो जाता 
है; क्योंकि ५१२ के विजयस्तम्भ तथा शिलालेख में सालवगश- 
स्थिति का उल्लेख है--विक्रम-संवत्‌ का नहीं, और ५१२ के पहल 
ही यशोधर््म हूण-विजय करके सम्राठ आदि पद्वी धारण कर 
चुका था। फिर ५४४ के काल्पनिक युद्ध को आवश्यकता नहीं दे । 
'राजतरंगिणी” और सुंगयुन के वर्णन से मिलाने पर्‌ प्रतीत 
होता है कि हों का प्रधान केन्द्र गांधार था। वहीं से हूण- 
राजकुमार अपनी विजयिती सेना लेकर भिन्न प्रदेशों में राज्य- 
स्थापत्त करने गये । 'राजतरंगिणी' का क्रम देखने से तीन राजाओं 
का नास आता है--मेघवाहन, तुखीन ओर तोरसाण । गांधार के 
मेघवाहन के समय में काश्मीर उसके शासन में हो गया था। 
उसके पुत्र तुओोन ने काश्मीर की सूबेदारी की थी | यही तुआीन 
प्रवरसेन के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसने मेलस पर पुल बँधवाया। 
: सेतुबंध ” नामक प्राकृत काव्य इसीके नाम् से अक्लित है। 
गांधार-वंशीय हूण तुजीच का समय और स्कंदगुप्त का समय 
एक है, क्‍योंकि उसके पुत्र तोर्माण का काल ५०० ई० स्मिथ 
ने सिद्ध किया है। संभवतः स्कंदगुप्त के द्वारा हुणों से काश्मीर- 
राज्य निकल जाने पर मातृगुप्त वहाँ का शासक था। यह 
उज्यिनी-नाथ कुमारगुप्त महेंद्रादित्य का पुत्र स्कंदगुप्त विक्रमा- 
दित्य ही था, जिसने सौराष्ट्र आदि से शकों का और काश्मीर 
तथा सीमा-प्रांत से ह््णों का राधज्यध्यंस किया और सनातन 
आय्य-पस्पत का रक्षा को-स्लेच्छों से आक्रांत भारत का उद्धार 
किया। “ मितरी ! के स्तम्भ में अंकित--/ जयति भुजबलाह्यो 


श्र 


विक्रमादित्य 


शुप्तवशेकवो रः प्रथितविपुलधामा नामतः स्कंदगुप्त:। विनयबल- 
खुनीते विक्रमेण क्रमेण ? से स्पष्ट प्रतीत होता है कि स्कंदरशुप्त 
विक्रमादित्य ही ह्वितीय कहरूर्युद्ध का विजेता तृतीय 
विक्रम ? है। 


पिछले काल के स्वण-सिक्कों को देखकर लोग अनुमान 
करते हैं. कि उसोके समय में हणों ने फिर आक्रमण किया और/ 
स्कंदगुप्त पराजित हुए । वास्तव में ऐसी बात नहीं । तोरमाण के/ 
शिलालेखों के संवत्‌ को देखने से यह विदित होता है कि 
स्कंदगुप्त पहले ही निधन को प्राप्त हुए, और दुबल पुरणुप्त के । 
हाथों में पड़कर तोरसाण के द्वारा गुप्त-साम्राज्य विध्वंस क्रिया 
गया और गोपाद्रि तक उसके हाथ में चले गये । 


श्र 


स्कंदरुप्र 


ग्रन्थों के रचयिता कालिदास छठी शताब्दी में उत्पन्न हुए और 
वे यशोधस्सदेव के समासद्‌ थे । इस तरह महाकवि कालिदास के 
संबंध में तीन सिद्धान्त प्रचलित है-- 


(१) ५०७ ई० पूव में मालव के कालिदास हुए । 


(२१) ईसा के चोथे शतक में चंद्रगुप्र &वितोय मगधनरेश- 
के समकालीन कालिदास हुए। 


(३) मालव-नरेश यशों धम्मदेव के सभासद्‌ थे । 


« अंगार-तिलक ” आदि भन्थों के कत्तो कालिदास के प्रायः 
सब लोग इन सहाकवि कालिदास से सिन्न और सबसे पीछे का-- 


संभवतः नवस्॒ या दशम शताव्दों का-मानते हैं । हम महाकवति 
कालिदास के संबंध में हो विवेचन किया चाहते हैं । 


सालव के प्रथम विक्रमादित्य के लोग इसलिये नहीं मानते 
कि उन्तका कहीं ऐतिहासिक उल्लेख उन लोगों को नहीं मिला; 
और विक्रम-संवत्‌ प्राचोन शित्ा-लेखों मे मालवगण के नाम से 
प्रचलित है। परंतु ऊपर यह प्रमाणित किया गया है. कि वास्तव 
मे ०७ इसवी-पूवे में एक विक्रमादित्य हुए। इस भत को न 
माननेवाले विद्वानों ने विक्रमादित्य को “ चंद्रगुप्त द्वितीय ” कहकर 
कालिदास का समय 'निधोरित करने का प्रयत्न किया है। 
€ खुबंश ” में जो सकेत से गुप्तवंशी सम्रादों का उल्लेख है, 
उसकी संगति इस प्रकार लगाईं गई | परन्तु आश्चण्य को बात है 
कि चंद्रगुप का समय अमाणित करने के लिये जो अवतरण दिये 
गये हैं, उनमें चंद्रगुप्त का तो स्पष्ट उल्लेख नहीं है; हाँ, कुमार- 
गुप्त ओर स्कंदगुप्त का उल्लेख अधिक और स्पष्ट है। यदि वे सब 


रद 


रॉ 


कालिदास 


संकेत भी गुप्तवंशियों के ही सम्बन्ध में मान लिये जायें, तो यह्‌ 
समझ में नहीं आता कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के समसामयिक कवि ने 
भावी राजाओं का वर्णन कैसे कर दिया; जब कि गुप्तव॑श में 
उत्तराधिकार-नियस निश्चित नहीं था कि ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का 
अधिकारी हो । समुद्रगुप्त केवल अपनी योग्यता से ही युवराज 
हुए और चन्द्रगुप्त भी; तब  रघुवंश ' मे कुमार और उनके बाद 
स्ून्दगुप्त का वर्णन कैसे आया ? चन्द्रगुप्त के समय गुप्त- 
साम्राज्य का यौवन-काल था, फिर अपिवर्ण-जैसे राजा का चरित्र 
दिखाकर ' रघुवंश ' का अंत करना चन्द्रम॒प्त के समसामयिक 
और उनकी सभा के कालिदास कैसे लिख सकते हैँ? वास्तव में, 
“खघुबंश” की-सो दशा गुप्तवंश को हुईं। अग्निवण के समान हो 
पिछले गुप्तवंशी विलासी और दीन-बैभव हुए। तब यह वाला 
पड़ेगा कि गुप्तबंश का हास भो कालिदास ने देखा था और वबः 
४ रघुवंश ” की रचना की थी। 

इंसवी-पूर्व भ्रथम शताब्दी के कालिदास के लिये भी उधर 
प्रमाण मिलते है। इसलिये यह समस्या उलमती जा रही है, ओर 
इसका मूल कारण दै--एक ही कालिदास को काव्य और नाटकों 
का कत्तो मान लेता | हमारी सम्मति से काव्यकार कालिदास और 


नाव्यकार कालिदास सिन्न-भिन्न थे, और * नलोद्य ' आदि के. 
तीसरे थे। इस प्रकार जल्हण का 


कन्ती कालिदास अंतिम और |] 

“कालिदास-त्रयी' का भो समर्थन हो जाता है और सब पक्षों के 

प्रमाणो की सज्ञति भी लग ज्ञाती है--यद्यपि * शक्ुन्तला ओर 

८ रघुबंश ” का श्रेय एक ही कालिदास को देने का संस्कार बहुत: 

प्राचीन है। विश्व-साहित्य के इंच दो भन्ध-रल्ी का कत्तो एक. 
ख््ड 


स्कद्गुप्त 


कालिदास को न मानने से श्रद्धा वैंट जाने का भय इसमें बाधक 
है । परन्तु पक्षपात और रूढ़ि को छोड़कर विचार करने से यह 
बात ठीक ही जेचेगी । हम ऊपर कह आये हैं कि कालिदास 
तीन हुए; परन्तु जो लोग दो ही मानते हैं; वे ही बता सकते हैं 
कि प्रथम कालिदास तो महाकवि हुए और उन्होने उत्तमोत्तम 
नाटक तथा काव्य बना डाले, अब वह कौन-सी बची हुई 
कृति है जिसपर टितीय कवि को “ कालिदास ” की उपाधि 
मिली ? क्‍योंकि यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि 
दूसरे कालिदास की उपाधि “ कालिदास ” थों; न कि उसका नाम 
कालिदास था। जैसी प्रायः अब भी किसी वर्तमान कवि को, 
उसकी शेत्री की उत्तमता देखकर, किसी प्राचीन उत्तम कवि के 
नास से संबोधित करने को प्रथा-्सी है। अस्तु। हस नाटककार 
कालिदास को प्रथम ओर इंसवी-पूव का कालिदास सानते हैं | 


( १ ) नाटककार कालिदास ने गुप्तवंशीय किसी राजा का 
संकेत से भी उरलेख अपने नाठकों मे नही किया । 

(२) € रघुवंश ” आदि में असुरों के उत्पात और उनसे 
देवताओं की रक्षा के वर्णन से साहित्य भरा है। नाठकों में उस 
तरह का विश्लेषण नहीं । काव्यकार कालिदास का ससय हूरों 
के उत्पात और आतंक से पूर्ण था। न्ञाटकों से इस भाव का 
विकास इसलिये नहीं है कि वह शकों के निकल जाने पर 


सुख-शांति का काल है। “ मालविकाभिसमिन्न ? में सिधु-तट पर 


विदेशी यवन्नों का हराया जाना मिलता है । यवनों का राज्य उस 


समय उत्तरीय भारत से उखड़ चुका था। “शाकुंतल' में हस्तिना- 
२८ 


कालिदास 


पुर के सम्राट्‌ “वनपुष्ष ” सालाधारिणी यवनियों से सुरक्षित 
दिखाई देते हैं। यह संभवतः उस प्रथा का वर्णन है जे यवनन- 
सिल्यूकस-कन्या से चन्द्रशुप्त का परिणय होने पर मौय्ये और 
उसके बाद शुगवंश में प्रचलित रही हे। । यवनियों का व्यवहार 
क्रीत दासी और परिचारिकाओं के रूप में राजकुल में था। 
यह काल इंसवो पू्व प्रथम शताब्दी तक रहा हैोगा। नाटककार 
कालिदास “ मालविकाभिमित्र ” में राजलूय का स्मरण करने पर 
भी बौद्ध प्रभाव से मुक्त नहीं थे, क्योंकि “ शाकुतल ” में धीवर के 
मुख से कहलाया है--/ पशुसारणकरम्म दारुणाप्यनुकम्पा मदुरेब 
श्रोत्रिय:”--ओऔर भी--/ सरस्वती श्रुतिमहती न हीयताम्‌ ”-- 
इन शब्दों पर बौद्ध धर्म की छाप है । नाटककार ने अपने पूर्व 
वर्ती नाटककारों के जो नाम लिए हैं, उनमें सोमिद्ल और कविपुत्र 
के नाख्यरत्ों का पता नहीं। भास के नाठकों के चोथी शताब्दी 
इसवी पूर्व का माना गया है । 


(३ ) नाटककार ने “ मालविकाभप्रिमिन्र ” की कथा का जिस 
रूप में वर्णन किया है, वह उसके समय से बहुत पुरानी नहीं जान 
पड़ती । शुंगवंशियों के पतन-काल में विक्रमादित्य का मालबगण- 
राष्ट्रपति के रूप में अभ्युद्य हुआ। उसी काल में कालिदास के 
होने से शुंगो की चचो बहुत ताज़ी-सी मार्धूम हे।वी है। 

(४) जामित्र ”' और “हेोरा” इत्यादि शब्द; जिनका 
प्रचार भारत में इसा की पॉचवीं शताब्दी के समीप हुआ है, 
नाटक में नहीं पाये जाते । आर “ शाकुतल ” की जिस प्रति का 
हम उल्लेख कर. चुके हैं, उसमें स्पष्टरूपेण विक्रमादित्य से 


२५ 


स्कंद्ग॒प्त 


गण-राष्ट्र का संबंध सांकेतिक है, और कालिदास का उस नाटक 
का स्वयं प्रयोग करना भी ध्वनित होता है । यह अभिनय * साह- 
सांक-उपाधिधारी विक्रमादित्य-नाम के मालवगणपति की परि- 


घदू में हुआ था। इसलिये नाटककार कालिदास इंसवो पूर्व 
प्रथम शताब्दी के है । 


(५) नाठकों को ग्राकृत में मागघी-अचुर प्राकृत का प्रयाग 
है। उस प्राकृत का प्रचार भारत में सेकड़ों व पीछे हुआ 
था । पॉचवीं, छठी शताब्दी में महाराष्ट्रीय प्राकृत प्रारंभ हो गईं 
थी और उस काल के श्रंथों में उसी का व्यवहार मिलता है। 
* शाकृतल ” आदि की प्राकृत में बहुत-से प्राचीन प्रयोग मिलते हैँ, 
जिनका व्यवहार छठी शताब्दी से नहीं था । 


इसलिये नाटककार कालिदास का होना, विक्रमादित्य प्रथम 


( सालवपति ) के समय--ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दी-में ही 
निधोरित किया जा सकता है। 


काव्यकार कालिदास अनुमान से पाँचवीं शताव्दी के उत्तराज्ध 
ओर छठी शताब्दी के पूबोद्ध में जीवित थे । यह काश्मीर के थे, 
ऐसा लोगों का मत है । 'सेघदूत' से जो अलका का वर्णन है, वह 


काश्मीर-वियेग का वणुन है | यदि ये काश्मीर के न होतें ते 
विर्हण का यह लिखने का साहस न होता-- 


सहोदरा कुंकुमकेसराणां सार्धन्तनून कविताविलासा 
न शारदादेशमपास्य दृषस्तेषां यदन्यत्र मया प्ररोहः ” 
(६ ७० 
५०० वर्ष के प्राचीन ' पराक्रम-बाहु-चरित ? में इसका उल्लेख 
३० 


कालिदास 


है कि सिंहल के राजकुमार धातुसेन ( कुमारदास ) से कालि- 
दास की बड़ी मित्रता थी। उसने कालिदास को वहाँ बुलाया । 
( भहावंश के अनुसार इसका राज्यकाल ५११ से ५२७४ ईंसवी 
तक है ) यह राजा स्वयं अच्छा कवि था। “ जानकी-हरण ? 
इसका बनाया हुआ पशन्ध है-- 
/ ज्ञानकीहरणं कर्तु रघुवंशेस्थिति सत्ति 
कविः कुमारदासे! वा रावणो वा यदिक्षमः 
_ सोहुल की बनाई हुई “उद्य-सुन्द्री-कथा' में एक श्लोक है-- 
& उ्यातः कृती कोीपि च कालिदासः शुद्धा सुधास्पादुमती च यस्य 
वाणीमिषाबर्ड म्रीचिगोत्र सिन्धों; परंपास्मवाप कीत्ति: । 
वभूवुरन्येपि क्ुमारदासः इत्यादि । + 
हमारा अनुमान है कि * सिन्धो: पर॑पार ” में कालिदास और 
कुमारदास के सम्बन्ध की ध्वनि है । 
ज्योतिविंदाभरण” को बहुत-से लोग इसवी छठी शताब्दी 
का बना हुआ मानते है; और हम भी कहते है कि बह ईसवी 
की पॉचवी शताब्दी के अंत और छठी के प्रारम्भ में होनेवाले 
कालिदास की कृति है । नाटककार से पीछे भिन्न एक दूसरे 
कालिदास के होने का, ओर केवल काव्यकार होने का; उसमें 


एक स्पष्ट प्रमाण है। 
“काव्यत्रयं सुमतिकृद्रधुवंश पूर्व, पूर्व ततोननुक्रियच्छू ति कस्मंवादः, 
ज्योतिर्विदाभरणकालविधानशास्त्र श्रीकालिदासकरविताहि तते। बभूव” 
इस श्लोक में छठी और पॉचवीं शताब्दी के ज्योतिविदा- 
भरणुकार कालिदास अपने को केवल काव्यत्रयी का ही कत्तो 


२१ 


स्कंद्गुप्त 


मानते है, नाटकों का नाम नहीं लिया है। इस लिये यह दूसरे 
कालिदास--नुपसखा कालिदास या दीपशिखा कालिदास कहिये-- 
पाँचवीं और छठी शताब्दी के कालिदास हैं। ' अस्तिकश्चिह्माग्‌ 
विशेष: ? वाली किंवदन्ती भी यही सिद्ध करती है कि काव्यकार 
कालिदास नाटककार से मिन्न हुए । * कालिदास ” उत्तकी उपाधि 
थी, परन्तु वास्तविक नाम कया था ९ 


८ राजतरंगिणी ? में एक विक्रमादित्य ” का वर्णन है; जिसने 
प्रसन्न होकर काश्मीर देश का राज्य “ माठ्गुप्त ” नाम के एक कवि 
को दे दिया था। डाक्टर भाऊदाजी का मत है कि यह मातृ- 
गुप्त ही कालिदास है। सेरा अनुमान है कि यह साठगुप्त कालि- 
दास तो थे, परन्तु द्वितीय ओर काव्यकत्तो कालिदास थे। प्रवर- 


सेन, मातृगुप्त और विक्रमादित्य--ये परस्पर समकालीन व्यक्ति 
छठी शताब्दी के माने जाते है । 


सहाराष्ट्री भाषा का काव्य 'सेतुबंध' ( दृह मुह बह ) प्रवरसेन 
के लिये कालिदास ने बनाया था। ऊपर हम कह आये हैं कि 
साठ्गुप्त का वही समय है जो काश्मीर में प्रवरसेन का है; 
इसका नाम “ तुजीन ” भी था। सम्भवतः इसी सभा में रहकर 
कालिदास ने अपनी जन्मभूमि काश्मीर सें यह अपनी पहिली 
कृति बनाई; क्योकि उस समय प्राकृत का प्रचार काश्मीर में 
अधिक था और यह वही प्राकृत है, जो उस समय समस्त 


रः ९७४. में कप 
भारतवष से राष्ट्रभाषा के रूप में व्यवहत थी; इसलिये इसका 
नास महाराष्ट्री था । 


कुछ लोगों का विचार है. कि यह काव्य कालिदास का नहीं 
शेर 


कालिदास 


है, क्योंकि इसमें पहले विष्णु की स्तुति के रूप में मंगलाचरण 
किया गया है; परन्तु यह तक निस्सार है। कारण; ' रघुवंश ! में 
भी विष्णु की स्तुति कालिदास ने की है ओर “ सेतुबंध ” में तो 
स्पष्ट रूप से लिखा मिलता है. कि “ इअ सिरि पवर सेण विर्‌इए 
कालिदास कए | ” जब यह काव्य प्रवरसेन के लिये बनाया गया 
तो यह आवश्यक है कि उनके आराध्य विष्णु'की स्तुति की जाय । 
प्रवरसेन ने 'जयस्वामी' नामक विष्णु की मूर्ति बनवाई थी। वस्तुतः 
कालिदास के लिये शिव और विष्णु में भेद नहीं था। जैसा कि 
हम ऊपर कह आये हैं, 'शाकूतल' के प्राकृत से सितुबंध' को प्राकत 
अत्यंत अवाचीन है; इसलिये उसे काव्यकार कालिदास का 
सान लेने में कोई आपत्ति नहीं है। कालिदास के संस्क्ृत-काव्यों 
तथा इस महराष्ट्री-काव्य में करपना-रौली और भाव का भी साम्य 
है। कुछ उदाहरण लीजिये-- 
पेदेहि पश्यामलयाद्विभक्तमत्सेतुनाफेनिलमम्वुराशिम 
“(६ रघछुवंश ) 
दीसइ सेउ मह्दा वह दोहाइश् पुव्व पच्छिम दिसा भार 
--( सेतुबंध ) 
ने न नः न 
छायापथेनेव शरत्मसत्रमाकाशमाविष्कृतचारुतास्म 
-( सघुवंश ) 
मलशअसुवेलालग्गो पडिट्ठिओो णहणि हम्मि सागरसलिले 
-( सेतुबंध ) 
्ः न हु ने 
झ्३ 


स्कंद्शुप्त 
श्लच्छाया व्यतिकर इव प्रेच्यमेतत्पुरस्तात 


“ मैघदूतत 9 
शणिश्नश्नच्छाआवइश्ररतामलइअपाश्नरो प्रश्न क़ढ़न्तर्‌ 


--( सेतुबंध ) 
ऐसा जान पड़ता है कि किसी कारण से प्रवरसेन और मातृ- 
गुप्त ( कालिद्यस ) में अनबन हो गई, और उसे राजसभा तथा 
काश्मीर को छोड़कर मालव आना पड़ा। शास्त्री महोदय के 
उस सत का निराकरण किया जा चुका है कि यशोधम्मेदेव 
£ विक्रमादित्य ! नहीं थे । फिर संभवतः इन्हें स्कैद्गुप्त विक्रमादित्य 
का ही आश्रित मानना पड़ेगा, क्योकि तुंजीन और तोरमाण के 
समय में काश्सीर आपस के विग्ह के कारण अरक्षित था। उज्ज- 
यिन्नी के विक्रमादित्य के लिये यह मिलता भी है कि उसने “ स- 
काश्मीरान्सकोवेरीकाष्ठाश्चवकरदीकृता ? । यह रुकंदगुप्त विक्रमा- 
दित्य की हो वदान्यता थी कि काश्मीर-विजय करके उसे मातृ- 
गुप्त को दान कर दिया। 


चीनी यात्री हुएन्त्सांग ने लिखा है कि कुमारगुप्त की सभा 
में दिडनाग के दादागुरु ' मनोरथ ” को हराने में कालिदास को 
प्रतिभा ने काम किया था। कुमारगुप्त का समय ४०७० ई० 
तक है। किशोर माठ्गुप्त ने कुमारशुप्त के समय में ही विद्या का 
परिचय दिया। सनोरथ के शिष्य बसुवंघु, और उनका शिष्य 
दिड्नाग था, जिसने कालिदास के काव्यों की कड़ी आलोचना की 
थी। संभवतः उसीका प्रतिकार “ द्डिनागानां पथिपरिहरन्‌ स्थूल- 
हस्तावलेपान्‌ ” से किया गया है; क्योंकि प्राचीन टीकाकार 

सह 


कालिदर्सि 
महिनाथ भी इसको मानते हैं । दिडिनाग का गुरु वसुबंधु 
अयोध्या के विक्रमादित्य का सुहृद था। बौद्ध विद्वान “ परसार्थ ? 
ने उसकी जीवनी लिखी है । इधर वामन ने काव्यालंकारसूत्रब॒त्ति 
के अधिकरण ३, अध्याय २ में सामिप्रायत्व का उदाहरण देते 
हुए एक खछ्ोकारु उद्धृत किया है-- 
४ ह्ोाइयं सम्प्ति चन्द्रगुप्ततनयश्चद्रत्रकाशों युवा 
जातो भूपतिशश्रयः कृतधियां दिध्या इतार्थअ्रमः 
* झाश्रपः कृतचियामित्यस्प वसुबंधु 
साचिव्योपक्षेप परत्वात्साभिप्रायवम 


यह अयोध्या के विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त * का तनय चन्द्रश्रकाश 
युवा कुमारगुप्त हो सकता है। वसुबंधु के गुरु मनोरथ का अन्त 
ओर उसका सभा में पराजित होना स्वयं बौद्धों ने कालिदास के 
द्वारा माना है। इसी छेष से दिडिनाग कालिदास का प्रतिइ्वन्द्द 


+ विक्रमादित्यइत्यासीद्रायापादलिपुत्रके ( कथासरित्सागर ) 


यह द्वितीय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के लिये भाया है । बोदों ने अयोध्या 
में इसकी राजधानी लिखा है। संभवतः मगध की पाम्राज्य-छोमा बढ़ने पर 
अयोध्या 'में सम्राट कुछ दिनों के लिये रहने लगे हो। परच्तु उज्जयिनी में 
इसका शासन होना किसी भी लेखक़ ने नहीं लिखा है। इसके पुत्र कुमार- 
गुप्त ने ' मद्दोदय ” को विशेष आदर दिया, क्‍योंकि साम्राज्य धीरे-धीरे उत्तर- 
पश्चिम की ओर बढ़ रहा था। वस्तुतः उस समय राज्य की उत्तरोत्तर ढढ्ठि 


के साथ गुप्त-सम्राद लोग कुसुमपुर की प्रधानता रखते हुए सुविधानुतार 


अपने रहने का स्थान बदलते रहे हैं, क्येंकि उन्हे सैनिक केन्द्रों का बराबर 
परिवत्तेन करना पड़ता था । 


घ्५ 


स्कद्युप् 

चना | अब यह सान लेने में कोई भ्रम नहीं होता कि मातृशुप्त 
किशोरावस्था में कुमारगुप्त की सभा सें था, वही कालिदास 
स्कंदशुप्त विक्रमादित्य के सहचर थे । कुमारगुप्त का नामाह्लित एक 
काव्य भी ( कुमारसंसव ) वनाया। यह वात तो अब बहुत- 
से विद्वान मानने लगे हैं. कि कालिदास के काव्यो में गुप्ततंश का 
व्यखना से वणेत है। हूणों के उत्पात और उनसे रक्षा करने के 
वर्णन का पूरा आभास कुमारसंभव से है । 


स्कंदगुप्त के सित्रीवाले शिलालेख में एक स्थान पर उल्लेख है- 
४ च्ितितलशयनीये येव नीता त्रियामा 


तो रघुवंश' सें भी-- 


८४ घललितकुसुमप्रवालशय्याँ, ज्वलितमहोषधिदीपिकासनाथाम । 
नरपतिरतिवाहयों वभूव क्चिद समेतपरिच्छद खियामाम 


मिलता है। स्कंदगुप्त के शित्ा-लेखों में जो पद्म-रचना है, 
वह वेसो ही ग्राजल है जैसी रघुवंश की--“ व्यपेत्य सवोन्‌ 
सनुजेन्द्रपुत्नान्‌ लक्ष्मी: स्वयं यं वरयां चकार ”--इत्यादि में रघुवंश 
की-सी ही शैली दीख पड़तो है। ४ स्कन्देनसाज्षादिव देवसेनाम्‌ ” 
“इत्यादि में स्कंदगुप्त का स्पष्ट उल्लेख भी है। ओर कुमारशुप्त 
का तो बहुत उल्लेख है। रघुवंश के ५, 8; ७ सर्ग में तो अज के 
लिये कुमार ” शब्द का प्रयाग कम-से-कम ११ बार है। 


विक्रमादित्य के जीवन के संबंध में यह असिद्धि है कि 
उनका अंतिम जीवन पराजय और दुःखों से सी संबंध रखता है । 
द्र्द्‌ 


कालिदास 


वस्तृतः चन्द्रगुप्त के जीवन-काल में साम्राज्य की वृद्धि के अतिरिक्त 
उसका हास नहीं हुआ । यह स्कंद्गुप्र के समय में ही हुआ कि 
उसे अनेक पड़यन्त्र और विपत्ति तथा कष्टा का सामना करना 
पड़ा । जिस समय पुरणशुप्त के अन्तर्विद्रोह से सगध और 
अयोध्या छोड़कर स्कंद्गुप्त विक्रम्नादित्य ने उज्जयिनी को अपनी 
. राजधानी बनाई, और साम्राज्य का नया संगठन हो रहा था, 
उसी समय माठ्शुप्त को काश्मीर का शासक नियत किया गया। 
यह समय ईसवी सन्‌ ४५० से ५०० के वीच पड़ता है। ४६७ 
ई० में स्कंद्शुप्त विक्रमादित्य का अन्त हुआ । उसी समय माढ- 
गुप्त (कालिदास ) ने काश्मीर का राज्य स्वयं छोड़ दिया और 
काशी चले आये । अब बहुत-से लोग इस बात की शंका करेंगे 
कि कहा उज्जयिनी, कहाँ सगध, कहाँ काश्मीर, फिर काशी, और 
सबके बाद सिहल जाना-यह बड़ा दूरान्वय संबंध है। परन्तु 
उस काल में सिंहल और भारत में वड़ा संबंध था। महाराज 
समुद्रगुप्त के समय में सिंहल के राजा मेघवर्ण ने उपहार भेज 
कर बाध-गया मे एक विहार बनाने की प्रार्थना की थी ; महावंश 
और समुद्रगुप्त के लेख में इसका संकेव है ओर महावोधि- 
विहार सिंहल के राजकुल की कीर्ति है। तव से सिंहल के 
राजकुप्तार और राजकुल के भिक्षु इस विद्वार में वराबर आते 


[8] 


रहते थे। बोधगया से लाया हुआ पटना-म्यूज़ियम से एक 


॥ टी 


शिलालेख है--( नं० ११३); यह अमाण प्रख्यातकीचि क्र 
है--“ लड्कुद्वीपनरेन्द्राणां श्रमणः कुलजोसवत्‌ । ्रख्यावकीत्ति- 
धमोत्मा स्वकुलाम्ब्रचन्द्रमा । ” महानासच के शिलालेख से भा 
इसकी पुष्टि होती है-- 


ते 
घ्ट्् 


१७ 


स्कंदगुप्त 


४ छंगुक्तागमिनों विशुद्धश्नलः सत्वानुकम्पोयरतता 
शिप्पायस्य सदृद्विचेसुरतुलांलद्डा चजेपत्यक 
तेम्यः शीलगुणान्वितश्च शतशः शिष्याः प्रशिष्याः मात 
जातास्तुंगनरेद्रवंशतिलकाः प्रोत्तज्य राज्यश्रियम्र्‌ 


जब राजकुल के श्रमण और राजपुत्र लोग यहाँ तीथयात्रा 
के लिये बराबर आते थे, और संस्कृत-कविता का प्रचार भी रहा 
हो, तब;डस काल के सर्वोच्च कवि की मैत्री की इच्छा भी होना 
स्वाभाविक है। और उस नष्टाश्रय महाकवि के साथ मेन्री करने 
में अपने के धन्य सममनेवाले कुमारदास की कथा सें अविश्वास 
का कारण नहीं है । यदि स्कदगुप्त विक्रमादित्य के मरने पर दुखी 
होकर राजमित्र के पास सिंहल जाना इनका ठीक है, ते यह 
कहना होगा कि “सेघदूत ” उसी समय का काव्य है और देवगिरि 
की स्कंदराज श्रतिमा उनकी आँखों से देखी हुईं थी, जिसका 
बरणुन उन्होने “ देवपूव गिरि ते-- ” वाले श्लोक में किया है 

_यदि ५२४ ईं० तक कालिदास का जीवित रहना ठीक है तो 
उन्होने गुप्तवंश का हास भी सली साँति देख लिया अथवा सुना 
होगा। रघुवंश में वैसा ही अंतिम पतन-पूर्ण वणेन भी है । 

कुमारदास का सिंहल का राजा उसी काल में होना, और 
सिंहल से कालिदास के जाने की रूढ़ि उस देश में माना जाना, 
उधर चीनी यात्री छारा वर्णित कालिदास का सनोरथ को हटाना; 
दिडनाग और कालिदास का इन्द्र, विक्रमादित्य और माद्गुप्त की 
 अक 'राजतरंगिणी' में उसी काल का उल्लेख, हुण-राजकुल में 

छुगयून के अनुसार विग्रह, काश्मीर-युद्ध को देखी हुईं घटना-- 
८ 


कालिदास 


थे सब्र धातें आकर एक सूत्र में ऐसी मिल जाती हैं कि दूसरे 
काव्यकार कालिदास को विक्रम-सखा, दीपशिखा कालिदास को 
मातृगुप्त मानने में कुछ भी संकोच नहीं होवा-जैसा डाक्टर 
भाऊदाजी का मत है । 

विक्रमाडु के समान भोज के पिता सिन्धुराज को पदवी 
'साहसाडु? थी । पद्मशुप्त परिमल ने “नव-साहसाह्ू-चरित ! 
बनाया था। त*जौर वालो “ साहसाझ्ु-चरित ? की प्रति मे इनको 
भी कालिदास लिखा है। बहुत संभव है कि यह तोसरे कालिदास 
बच्धाल के हों, जैसा कि बंगाली लोग मानते हैं। ऋतु-संहार, 
पृष्पबाण-बिलास, आंगार-तिलक और अश्वधाटी आदि काध्यों के 
रचयिता संभवतः यही तीसरे कालिदास हो सकते है । 

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हमें इस नाटक के सम्बन्ध में भी कुछ कहना है। इसकी 
रचना के आधार में ऊपर दो मन्तव्य स्थिर किये गये हैं; पहला | 
यह कि उज्जयिनों का परढुःखर्मंजन विक्रमादित्य शुप्रवशोय | 
स्कंदगुप्त था; दूसरा यह कि मात्गुप्त हो दूसरा कालिदास था): 


नल 
अलआज 


जिसने “ रघुबंश आदि काव्य बनाये । 

स्कंदगुप्त का विक्रमादित्य होना तो प्रत्यक्ष प्रमाणो से सिद्ध 
होता है। ज्षिप्रा से तुम्बी मे जल भरकर ले आनेवाले, और 
चटाई पर सेानेवाले उज्जयिनों के विक्रमादित्य स्कंदगुप्र के ही 
साम्राज्य के खँंडहर पर भोज के परमार-पुरखों ने मालव का 


नवीन साम्राज्य बनाया था। परन्तु माद्गुप्त के कालिदास होने में 
है कि आगे चलकर 


अनुमान का विशेष सम्बन्ध है । हो सकता 
३५ 


स्कद्युप्त 


कोई प्रत्यक्ष प्रमाण भी सिल जाय; परन्तु हम उसके लिये 
कोई आग्रह नहीं । इसलिये हमने नाटक में मातृशुद् का हो 
प्रयाग किया है । मातृगुप्तर का काश्मीर का शासन ओर 
तोर्माण का समय ता निश्चित-सा है । विक्रमादित्य के मरने पर 
उसका काश्मीर-राज्य छोड़ देता है, और वही समय सिहल के 
कुमार धातुसेन का निधोरित होता हैं । इसलिय इस नाटक से 
धातुसेन भी एक पात्र है । वंधुक्स्मो, चक्रपालित, परणुदत्त, शवे- 
नाग, भठाक, प्रथ्वीसेन, खिगित्न, प्रख्यातक्रीत्ति, भीमवस्मों 
(इसका शिलालेख कोशाम्बी से मिला है), गोविन्द्गुप्त, आदि सच 
ऐतिहासिक व्यक्ति हैं | इसमें प्रपंचचुद्धि ओर मुदगल कटिपत 
पात्र है। ख्रीपात्रों में स्कंद की जननी का नाम मेंने देवकी 
रक्खा है; स्कंदगुप्त के एक शिलालेख मे--“ हतरिपुरिव ऋष्ग्गो 

देवकीमभ्युपेत: ? मिलता है। सम्भव हे कि स्कदू की माता के 

नास देवकी ही से कवि को यह उपसा सूको हो | अनन्तदेवी का 

ते स्पष्ट उल्लेख पुरणशुप्त की साता के रूप मे मिलता है | यही पुर- 
गुप्त स्कंदगुप्त के वाद शासक हुआ है। देवसेना और जयमाला 
वास्तविक ओर काल्पनिक पातन्न;, दोनों हो सकते हैं। विजया, 
कसला, रासा और सालिनी-जैसी किसी दसरी नामधारिणी द्ती 
की भी उस काल में सम्भावना है। तव भी ये कटिपत 
पात्रा को ऐतिहासिकता के विरुद्ध चरित्र [की सष्टि, जहाँ तक 
संभव हो सका है, न होने दी गई है । फिर भी कल्पना का अबं- 


85 दी पढ़ा है, केवल घटना की परम्परा ठीक करने. 
के लिये। 


च् 
सा 


प्‌ 


“-- प्रसाद ? 
९१०